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पिता पुत्र का सम्बन्ध तो है ही नहीं। आज दर्शन को नया आयाम देने की जरूरत है। यदि उसको नया आयाम नहीं दिया जायेगा तो दर्शन सर्वथा प्रयोगशून्य और अर्थशून्य बन जाएगा। मैं स्वयं दर्शन के ग्रन्थ लिखता रहा, दर्शन पर चिन्तन-मनन करता रहा, किन्तु वह सारा का सारा तर्क की सीमा में था। तर्क की परिक्रमा किए हुए था। तर्क की सीमा को लांघकर स्वयं के अनुभव की बात कह सकूँ, ऐसा नहीं हुआ। ऐसा लगता भी नहीं था कि इस तर्क-सीमा का अतिक्रमण करना चाहिए। किन्तु जब अध्यात्म की सीमा में प्रवेश कर अनुभव किया तब लगा कि जो दर्शन लिखा जा रहा है, वह दर्शन नहीं है, किन्तु वह मात्र शास्त्रों का और ग्रन्थों का समाकलन या वर्तमान की भाव-भाषा में प्रस्तुतीकरण है। इस संदर्भ में मुझे अनुभव हुआ कि दर्शन को नया आयाम मिलना चाहिए। वह मिल सकता है केवल अनुभव के धरातल पर, प्रयोग और परीक्षण के धरातल पर। जब से दार्शनिकों ने स्व-अनुभव
और स्व-संवेदन तथा प्रयोग और परीक्षण की बात छोड़ दी, तब से दर्शन का विकास अवरुद्ध हो गया। उसका उन्मेष रुक गया। वह जहां था वहीं रुक गया। ऐसी स्थिति में पुराने ग्रन्थों की व्याख्या में भी कठिनाई होने लगी। एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूं। जैन सूत्रों में वनस्पति के जीवत्व-सम्बन्धी अनेक चर्चा-स्थल हैं। इस विषय की विशद चर्चा अन्यत्र दुर्लभ है। आगमकार दार्शनिक थे, स्वयं द्रष्टा थे। उन्होंने साक्षात्कार के आधार पर निरूपण किया। यह अनुभव की बात थी, केवल ज्ञान की बात नहीं थी। साक्षात्कार से उपलब्ध सत्य का निरूपण था, केवल बौद्धिक व्यायाम नहीं था। वह उनका अपना 'स्व' था। किन्तु आगे के आगम-व्याख्याकार तर्क के जगत् में जन्मे थे। उनका अपना अनुभव नहीं था। उनका अपना संवेदन नहीं था। वनस्पति जैसे अव्यक्त चेतना वाले प्राणियों के साथ उनका साक्षात् संपर्क नहीं था। इसलिए साक्षात् द्रष्टाओं द्वारा निरूपित तथ्यों की व्याख्या में भी उन्हें कठिनाई महसूस होने लगी। वनस्पति के जीवों में दो ज्ञान होते हैं- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। व्याख्याकारों को मतिज्ञान सम्बन्धी व्याख्या में बहुत कठिनाई नहीं हुई। क्योंकि वह ज्ञान इन्द्रिय-चेतना से सम्बन्धित है। इन्द्रिय चेतना वनस्पति
तनाव और ध्यान (१) १२६
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