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आकाश में कभी चांद को नहीं देखा, उसमें प्रतिबिम्ब को देखकर जिज्ञासा जाग जाए कि मूल क्या है? इसी प्रकार जिसने आत्मा को न जाना हो, वह शास्त्रों में आत्मा शब्द को पढ़कर यह जानने का प्रयत्न करे कि यह क्या है? मूल क्या है? तो मैं कह सकता हूं कि उस प्रतिबिम्ब ने उसमें जिज्ञासा उभारी है। ऐसा होता है तो वह उस सीमा तक उचित है। किन्तु प्रतिबिम्ब को ही सब कुछ मानकर बैठ जाना, मूल की जिज्ञासा ही न होना, उचित नहीं है।
ध्यान के द्वारा हम प्रतिबिम्ब की दुनिया से हटकर मूल तक पहुंच सकते हैं। यह एक सशक्त माध्यम है। आज सबसे बड़ी समस्या है-प्रतिबिम्ब की समस्या। हम प्रतिबिम्बों की छाया पर ही अपनी यात्रा चला रहे हैं। मूल बेचारा कहीं पड़ा है। बिम्ब कहीं पड़ा है और प्रतिबिम्ब पूजा जा रहा है।
एक मार्मिक कहानी है। एक कलाकार ने अपनी सारी बुद्धि लगाकर एक चित्र बनाया। उसमें उसने एक ग्रामीण महिला को चित्रित किया था। चित्र अत्यन्त स्वाभाविक था। ग्रामीण महिला सुन्दरता की प्रतिमूर्ति थी। सहज सौन्दर्य, प्राकृतिक सौन्दर्य। शहर में चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। उसमें वह चित्र भेजा गया। हजारों की भीड़। चित्रों की बिक्री प्रारंभ हुई। महिला के उस चित्र पर पचास हजार की बोली लगी। एक व्यक्ति ने उसे खरीद लिया। वह चित्र को लेकर प्रदर्शनी से बाहर निकला। एक स्त्री दरवाजे पर बैठी बिलख रही थी। वह ५.१० पैसों की भीख मांग रही थी। पचास हजार में चित्र को खरीदने वाले ने उस महिला को दुत्कार दिया। महिला ने चित्र देखा, वह स्तब्ध रह गई। वह चित्र उसी का था। बिम्ब ५.१० पैसों के लिए रो रहा है और प्रतिबिम्ब बिक रहा है पचास हजार में। कैसी विडम्बना!
ध्यान के अतिरिक्त ऐसा कोई माध्यम नहीं है जो प्रतिबिम्बों से हटाकर मूल तक पहुंचा दे। प्रतिबिम्ब को बिम्ब का मूल्य नहीं दिया जा सकता। बिम्ब बिम्ब होता है और प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्ब ।
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