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वाला है, ईर्ष्या करने वाला है-ऐसे व्यक्ति हमें बहुत प्रिय हैं। लक्ष्मी ने सुना। वह असमंजस में पड़ गई। काले रंगों को छत्रछाया देना स्वीकार कर लिया, उसके साथ जाना और रहना स्वीकार कर लिया, अब वह दुविधा में पड़ गई। उसने सोचा-ऐसे व्यक्तियों के साथ कैसे रह पाऊंगी? उसने एक उपाय निकाला। वह रंगों से बोली-'मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। तुम्हारे घर में नहीं रहूंगी, बाहर ही अलिन्द में रहूंगी।' लक्ष्मी उनके साथ चली गई। उसने अपनी छत्रछाया का वहां विस्तार भी किया, किन्तु वह घर के भीतर कभी नहीं गई। वह सदा अलिन्द में ही बैठी रही।
जो इस प्रकार के कृष्ण-लेश्या वाले, नील-लेश्या वाले और कापोत-लेश्या वाले लोग हैं, जो काले वर्ण वाले लोग हैं, उनके पास भी लक्ष्मी होती है, पर वह घर के भीतर नहीं जाती, शरीर के बाहर-बाहर रहती है। वह शरीर को सुविधा देती है पर घर के भीतर नहीं जाती। मन के भीतर नहीं जाती, अतः मन की शान्ति नहीं होती।
एक दिन ऐसा ही एक दूसरा प्रसंग बना। प्रकाश के रंग मिलकर आए और लक्ष्मी से बोले-'महादेवी! आपकी छत्रछाया चाहिए। क्योंकि उसके बिना कोई जी नहीं सकता, सुखपूर्वक नहीं रह सकता। लक्ष्मी बोली-'अच्छी बात है। तुम्हारे पास आ जाऊंगी। तुम्हें छत्रछाया दूंगी।' फिर पूछा-'तुम्हारा घर कैसा है? तुम्हारे लोग कैसे हैं? तुम्हारा परिवार कैसा है? तुम्हें कैसे लोग प्रिय हैं?' प्रकाश के रंगों ने कहा-'जिनका व्यवहार विनम्र होता है, जो चपल नहीं होते, स्थिर मन के होते हैं, जो भीतर से भी अचंचल होते हैं और बाहर से भी अचंचल होते हैं, जो कपटी नहीं होते, मखौल नहीं करते, जो प्रियधर्मा होते हैं, जो धर्म में दृढ़ होते हैं, जिनका क्रोध और मान क्षीण हो चुका है। जिनका चित्त इतना शान्त है कि दुःख उनका स्पर्श तक नहीं कर पाता, ऐसे लोग हमें प्रिय हैं। वे हैं हमारे परिवार के सदस्य।'
एक बहुत बड़े संत हुए हैं। उनका नाम था मिलरेप्पा। मरने को थे। तीव्र वेदना हो रही थी। शिष्यों ने पूछा-'गुरुदेव! आपको दुःख हो रहा है? उन्होंने कहा-'नहीं, संसार में चारों ओर दुःख है, पर मुझे दुःख नहीं हो रहा है। क्योंकि मेरा मन शान्त है। जिसका चित्त शान्त १०४ आभामंडल
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