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श्री भुवन-सुदर्शन जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक - २७ जायाचं पद्मसागर || अहम् ||
णमोत्थूणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।
सूरि.म.
श्री विजयदान प्रेमरामचन्द्रभुवनसुदर्शन सूरिभ्योः नमः ।
श्री विजयकर्पूरामृतसूरिभ्यो नमः । गुणशेखर वाचनाचार्य श्रीमद् मण्डनगणिवर शिष्यरत्न-विद्याधरवंशभूषण गुणमणिनिधि
श्रीमत्पादलिप्ताचार्यवरविरचिता 5 निर्वारण कलिका 5
सा च पूज्यपाद् तपागच्छाधिपति श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वर प्रथम पट्टधर पूज्या चार्यदेव श्रीविजयभुवन सूरीश्वर प्रथमपट्टधर-देशनादच मालव देशप्रभावकपूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद्विजय सुदर्शन सूरीश्वराणां
अर्धशताब्दिकालीन निर्मलचारित्रययार्यानुमोदनाथं भाविकैः प्रदत्तसहायेन प्रकाशिता । संपादकः संशोधकच पूज्यपन्न्यास श्रोजिनेन्द्र विजय गणिवरः । विक्रम सं० २०३८ मूल्य रु०८-०० प्रकाशिका - श्री भुवनसुदर्शन जैन ग्रन्थमाला - देवाली (राजस्थान )
सन् १९८१
वीर सं० २५०८
प्रतय: ५००
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EHIMIRROLOll
॥ श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ पूज्य आचार्य विजय सुदर्शनसूरीश्वरजी महाराज ज्ञानमन्दिर
ज्ञानभराडार : देवाली (उदयपुर-मेवाड़)
श्री भुवन सुदर्शनसूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थरत्नोनी यादी १. स्तवन गहुंली संग्रह १२. गणिपद महोत्सव
२१. धर्मादा द्रव्यनी व्यवस्था (हिन्दी) २. प्रकरण स्तोत्रादि संग्रह १३. गुरु गुण गीत अंग्रह
२२. विहरमान पट (हिन्दी) ३. प्रकरणमाला (मोटा अक्षर) १४. संस्कार सोपान:
२३. संवत्सरी क्षमापना (हिन्दी) ४. जिनेन्द्र स्तवनावली १५. बारव्रतनी टीप
२४. जीवन किरण (गुजराती) ५. कर्मग्रन्थ सार्थ (१ थी ४) १६. स्नात्रपूजा सार्थ (हिन्दी) २५. यशोधर चरित्र (संस्कृत) ६. विहार दर्शन दीपिका १७. जिनेन्द्र गुरु गुण सरिता
२६. शान्तिस्नात्र कार्ड ७. प्रकरण माला (नाना अक्षर) १८. जीवन झरमर (गुजराती) २७. निर्वाण कलिका (संस्कृत) ८-कर्मग्रन्थ मूल (थी ६) १९. सातक्षेत्र अने धर्मद्रव्यनी व्यवस्था २८. तपोरत्न महोदधि ९. कर्मप्रकृति मूल
(गुजराती) ०१. जिनगुणरत्न मंजुषा
२०. जीवन ज्योति (हिन्दी) ११. जिनेन्द्र भक्ति कणिका
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श्री भुवन-सुदशन जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक-२७
॥ अहम् ।।
णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स। श्री विजयदानप्रेमरामचन्द्रभुवनसुदर्शनमूरिभ्योः नमः।
श्री विजयकरामृतमूरिभ्यो नमः । गुणशेखर वाचनाचार्य श्रीमद् मण्डनगणिवर शिष्यरत्न-विद्याधरवंशभूषण-गुणमणिनिधि
श्रीमत्पादलिप्ताचार्यवरविरचिता
卐 निर्वारण कलिका ॥
सा च पूज्यपाद् तपागच्छाधिपति श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वर-प्रथमपट्टधर पूज्याचार्यदेव
श्रीविजयभुवनसूरीश्वर प्रथमपट्टधर-देशनादक्षमालवदेशप्रभावक
पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद्विजयसुदर्शनसूरीश्वराणां अर्धशताब्दिकालीन निर्मलचारित्रययार्यानुमोदनार्थ भाविकः प्रदत्तसहायेन प्रकाशिता ।
संपादकः संशोधकश्च-पूज्यपल्यास श्रीजिनेन्द्रविजय गणिवरः । वीर सं० २५०७ : विक्रम सं० २०३७ : सन् १९८१ : मूल्य रु०८-०० : प्रतय: ५००
प्रकाशिका-श्री भुवनसुदर्शन जैन ग्रन्थमाला- देवाली (राजस्थान)
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निर्वाण कलिका
॥ २ ॥
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-: प्रासंगिक :
अमारी संस्था तरफथी पू० पं० श्रीजिनेन्द्रविजयजी गणिवरे संपादन करेल आ निर्वाण कलिका ग्रन्थ प्रगट करतां आनंद अनुभवीए छीए ।
जोगानुजोग प० पू० शासन शिरोमणि पूज्यपाद आचार्यदेवेश श्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजाना पट्टधर शांतमूर्ति पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजयभुवन सूरीश्वरजी महाराजाना पट्टधर पूज्य देशनादक्ष मालवदेशे सद्धर्मसंरक्षक आचार्यदेव श्रीमद्विजय सुदर्शन सूरीश्वरजी महाराज साहेबना अर्धशतादिदीर्घकालीन निर्मल चारित्रपर्यायनी अनुमोदना निमित्ते भाविकोनी शुभसहायताथी आ ग्रन्थ प्रगट करत आनंद थाय छे, अने पूज्य आचार्यदेव श्री विजयसुदर्शन सूरीश्वरजी महाराज जैन शासननी प्रभावना आदिमां विजयवंत बनो एवी अभिलाषा व्यक्त करीए बीए ।
मुद्रक -
गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, व्यावर (राज.)
प्रकाशिका -
श्री भुवनसुदर्शन जैन ग्रन्थमाला
॥ २ ॥
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॥३॥
शासन प्रभावक विद्वद्वर्य पू० आचार्यदेव श्री विजयसुदर्शनसूरीश्वरजी महाराजना
संयर्माईशताब्दि पूर्णाहूति प्रसंगे ५०वर्ष ना निर्मल
卐 संयम पर्यायनी शुभ अनुमोदना ॥ प.पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजयसुदर्शनसूरीश्वरजी महाराजे वि० सं० १९८८ ना पोष वद ५ पाटण (1 उत्तर गुजरात ) मां दीक्षा लीधी हती अने वि० सं० २०३८ पोष वद ५ ना संयम पर्यायने ५० वर्ष परिपूर्ण थाय के वर्तमानमा ५० मुवर्ष तेओश्रीना संयमनु चाली रह्य छ।
तेोधीना ५० वर्षना दीर्घ निर्मल चारित्र पर्यायनी अनुमोदना करीए छीए अने तेश्रोश्रीना धर्मप्रभावक जीवननी टुंक नोंध अत्रे रजु करीए छोए
राजस्थान मेवाड़मां देवाली नामे गाम के ज्यां भव्य जिनमन्दिर आदि विद्यमान छे, त्यां शेठ श्री लक्ष्मीलालजी तथा शेठाणी श्री कंकुचाई रहेता हता. तेमने बे पुत्र भगवतीलाल अने संग्रामसिंह एक पुत्री श्री सोवन बेन हता।
श्री भगवतीलाले वि० सं० १९८० मां दीचा लीधी अने हाल तेश्रोश्री पू० आ. श्री विजयभुवनमूरीश्वरजी महाराज तरीके विचरी धर्मप्रभावना करी रह्या छ।
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अने पू० मुनिश्री
निर्वाणकलिका
महाजनी देशना
श्री प्रेमविजय
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भाई संग्रामसिंह पूज्य सद् आ० श्री विजयदानसूरीश्वरजी महाराज, पू० उ० श्री प्रेमविजयजी म०, पू० उपाध्याय श्री रामविजयजी म. अने पू० मुनिश्री भुवनविजयजी म. अपदावादमा विराजमान हता त्यां आव्या अने पूज्यवाद् उपाध्याय भगवन्त श्री रामविजयजी महाराजनी देशना सांभली वैराग्यवंत वन्या अने काका आदिने समजावी दीक्षा लेवा तैयार थया, पाटण मुकामे पू० उपाध्याय भगवंत श्री प्रेमविजयजी म. आदिनी निश्रामा धामधूम पूर्वक दीक्षा थइ अने तेमना वडील संसारीबंधु पू० मुनिश्री भुवनविजयजी म. ना शिष्य मुनिश्री सुदर्शनविजयजी तरीके जाहेर कराया।
रत्नत्रयीनी आराधनामा उद्यमवंत थया, धर्मप्रभावनाना कार्यों पण तेमनी छायामा थवा लाग्या, मुम्बई मलाड, रतलाम, उजैन, कराड, भाईखला, गोरेगाम आदि अनेक स्थलोए प्रभावक चातुर्मास करी संघोमां जागृति लाव्या हता। मालवा तथा मध्यप्रदेशपां शिखरबंधी जिनमन्दिरो तथा प्रतिष्ठाओ तेमज छरि पालता संघो मक्षीजी विगेरे तेमना उपदेशथी थया छे।।
वि० सं० २०१३ कातक वद ५ ना पोरबंदरमा पू० आ० श्री विजयभुवनसूरीश्वरजी म. ना हस्ते गणिपद प्रदान समहोत्सव थयु अने वांकी कच्छमा तेश्रोश्रीने हाथे वि० सं० २०१५ मा पन्न्यासपद प्रदान धामधूम पूर्वक अपायु' । वि० सं० २०२६ ना पूज्यपाद् परमशासन प्रभावक सुविशाल गच्छाधिपति पू० आचार्यदेवेश श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजाना वरद हस्ते श्रीपालनगर वालकेश्वर मुम्बई आचार्यपद समये तेमने पण
॥४॥
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आचार्यपद प्रदान थयु, तेमां पू. आ. भ. श्री विजयमेरुमूरीश्वरजी म०, पू० आ. श्री विजयकनकचंद्रसूरीश्वरजी म०पू० आ. श्री विजयसुदर्शनसूरीश्वरजी म०, पू. आ. श्री विजयजीतमृगांकसूरीश्वरजी म०, पृ० आ० श्री विजयमहोदयसूरीश्वरजी म. ने एक साथे श्रीपालनगरमा आचार्यपद प्रदान थयु हतु।
पू. आ. श्री विजयसुदर्शनसूरीश्वरजी महाराज अनेकविध धर्मप्रभावना अने धर्मरक्षाना कार्योमा उजमाल छे तेओश्री ना ५० वर्षना उज्वल निर्मल संयम पर्यायनी अनुमोदना करी तेओश्री खूब खूब स्वपरना श्रेयना साधक बनो एज शुभेच्छा।
-प्रकाशक
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निर्वाण
कलिका
॥ ६ ॥
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फ्र प्रस्तावना फ्र
सम्यग्दर्शनना हेतु स्वरूप जिनभक्तिमां श्री जिनप्रतिमा ए अगत्यनु आलंबन छे. श्री जिनप्रतिमा भराववानी तेमज तेनी अंजनविधि अने प्रतिष्ठा विगेरे करवाना होय छे. ए जिनबिम्ब भराववा आदि अंगेना विधान श्री प्रतिष्ठा कल्पोमां आलेखायां छे, वर्तमानमां पूज्यपाद् महो. श्री सकलचन्द्रजी महाराज विरचित प्रतिष्ठा कल्प द्वारा आ विधि मोटे भागे थाय छे, वर्तमानमां पू० ६० श्री कल्याणविजयजी महाराज साहेबे कल्याणकलिका नी रचना करी छे। अने तेमां प्रतिष्ठा-कल्पो तेम ते अंगेना विधानो विगेरे छणावट पण करी छे. पू० आ० श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजे श्री पंचासकजीमां, पू० आ० श्री रत्नशेखरसूरीश्वरजी महाराजे श्राद्धविधियां तथा पू० उ० श्री मानविजयजी महाराजे श्री धर्मसंग्रहमां जिनबिम्ब विधान प्रतिष्ठा आदि माटे प्रकाश पाथर्या छे ।
पू० आचार्यदेव श्री देव भद्रसूरि रचित 'कहारयणकोस' मां पण विम्बविधान अंजन तथा प्रतिष्ठा अंगे थोड उपयोगी मार्गदर्शन छे. पूज्य आचार्य भगवन्तो आदि द्वारा तेना अधिकारी विगेरेनो अभ्यास आदि थतो रहे थे. अने जेम खेडान थाय तेम अनुभव बघतो जाय छे. श्री कपिलकेवली भगवंते चंडप्रद्योत राज ने वासक्षेपथी जीवंतस्वामीनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी आध्यानी वात उदायन राजाना चरित्रमां आवे छे।
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श्री जिनबिम्बविधान अंजनशलाका तथा प्रतिष्ठा माटे ना प्राचीनतम महत्वना ग्रन्थ तरीके निर्वाणकलिका ग्रन्थ छे. आ ग्रन्थनी रचना महान आचार्यदेव श्रीमत्पादलिप्तसूरीश्वरजी महाराजे करी छे, जेम तेमणे जिनविम्ब विधान उपरांत नित्यकर्मविधि, दीक्षा विधि, आचार्याभिषेकनी विधि छे तथा जिनबिम्ब अने जिनमन्दिर अंगेना विधिविधानमां भूपरीक्षा, भूमिपरिग्रह, शिलान्यास प्रतिष्ठा विधि पादप्रतिष्ठा द्वार प्रतिष्ठा विवप्रतिष्ठा (अंजनविधि) अतिशय स्थापना, हृत्प्रतिष्ठा, चूलिका प्रतिष्ठा, चूलिका ध्वजकलश धर्मचक्र प्रतिष्ठा, वेदिका लक्षण ते जिनबिंत्र जिनमन्दिर जीर्णोद्धार विधि आदि आलेख्या छे. उपरांत विविध ६३ मुद्राओ श्री तीर्थङ्करदेवोना लंछन-वर्ण- राशि -नक्षत्रो - यक्ष-यक्षिणीनां स्वरूप, श्रुतदेवता शांतिदेवता १६ विद्यादेवीओना स्वरूप, दशदिक्पाल - ग्रह, ब्रह्मशांति, क्षेत्रपालादिनां स्वरूप आप्या छे. अन्तर्गत सर्वतोभद्र मंडल, जापविधि, कलशवर्णन, शङ्खवर्णन, तोरणप्रकार वर्णन, नंदावर्त रचना, नंदावर्तपूजन, देवद्रव्य वर्णन तेमज संक्षेप प्रतिष्ठादिना विधानो संग्रहित कर्या छे. आम आ ग्रन्थ आ विषयमा अजोड प्राचीन अने महत्वनो ग्रन्थ छे. जेना अभ्यास द्वारा प्रतिष्ठा आदि विधानोना ari रहस्य प्राप्त थइ शके तेम छे ।
आ ग्रन्थ कह सालमा बनाव्यो ते स्पष्ट उल्लेख नथी, तेपणे निर्वाणकलिका उपरांत प्रश्नप्रकाश (ज्योतिष), (तपगच्छ पट्टावली ) तरंगलोला (विशेषावश्यभाष्य सुजय तरंगवती), कालज्ञान ( कल्प चूर्णिमां उलेख ), ज्योतिषकरंडक टीका ( जैन परम्परा इतिहास ), गाहाजुअल ( सुवर्णसिद्धिना आम्नाय साथे वीर
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निर्वाण कलिका
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स्तुति, शत्रुञ्जय उपर प्रभु महावीर पासे रचेली प्रभावकचरित्र), रच्या छे तथा श्री भद्रबाहुस्वामीजीए अने श्री वज्रस्वामीजीए उद्यूत करेल श्री शत्रुञ्जयप्रकाशनो संक्षेप एवो शत्रुञ्जय प्रकाश तेपणे रच्यो हतो, तेना उपरथी आ० श्री जिनप्रभसुरिजीए शत्रुञ्जयकल्प रच्यो छे. तरंगलोला कथा उपरथी आ० श्री वीरभद्रसूरिजी ना शिष्य आ० श्री नेमिचन्द्रसूरिजोए तरङ्गवतीसार' ( जैन प० इतिहास ) रच्यो छे. सिवाय पण तेमना बीजा अप्रसिद्ध ग्रन्थो होवानो संभव छे ।
आचार्यश्री महाज्ञानी विद्यासिद्ध महापुरुष हता. तेमनो समय स्पष्ट जण तो नथी तेमना जीवन अंगे प्रभावक चरित्र तपगच्छपट्टावली विगेरे ग्रन्थोमां वर्णन छे. तेमना अंगे निशीथ भाष्य विशेषावश्यभाष्य, कल्पसूत्रचूर्णि वगेरेमा उल्लेख छे, महो० श्री धर्म लागरजी महाराजे, पूज्य श्री पादलिप्तसूरिजी वीर सं० ४६७ वर्षे थया जणान्या छे । अज्ञातकर्ता के गुरुपट्टावलीमा पण तेमज जणान्यु छे ।
श्री पादलिप्तसूरिजीनु जीवन तपगच्छपट्टावली प्रभावक चरित्र आदिमां छे ।
ओनो जन्म अयोध्या- कोशलानगरीमा थयो हतो. त्यांनो राजा विजयब्रह्म हतो. ते नगरीमां फुल्ल नामे शेठ हता, तेमने प्रतिमा नामनी पत्नी हती. शेठाणीए पार्श्वनाथ चैत्यमां वैरोट्या देवानी भक्ति करी, प्रसन्न थयेली देवी पासे पुत्रनी इच्छा कही, देवीए कह्यु - 'नमिविनमिना वंशमां कालकसूरि थया छे. ए विद्याधरगच्छ लब्धिसंपन्न आर्यनागहस्तिसूरि अहीं विद्यमान छे, तेमना पादशौचनु जलपान कर' - प्रतिमा उपाश्रये
॥ ८ ॥
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॥४॥
गइ, पादशौचनु पाणी लइ उभेला साधु पासेथी प्रार्थना करी ते पाणी ते पी गइ, पछी मूरिजी पासे जइ वंदन कयु, गुरुए पण धर्मलाम आप्यो, हसीने बोल्या-तें अमाराथी दस हाथ दूर जलपान कयुछे. तेथी तारो पुत्र दस जोजन दूर वृद्धि पामशे. अने वीजा नवपुत्र थशे।
प्रतिमाए खुश थाने का-पहेलो पुत्र हुँ तमने अर्पण करु छ, दर रहे तेमा मने शो लाभ ? तमारी सेवा करे एज उत्तम ।
मूरिजीए पण कह्य-तारो पुत्र संघनो तथा पृथ्वीनो उद्धार करशे. बुद्धिमां बृहस्पति थशे।
अनुक्रमे पुत्र जन्म्यो . प्रतिमाए गुरुना चरणे धर्यो, गुरुए 'अमारा थकी वृद्धि पामो' एम कडं फुल्ल शेठे नागेन्द्र नाम आप्यु. आठ वर्णनो थतां गुरुए लइ पोताना गुरुभाई संग्रामसिंहसूरि पासे दीक्षा करावी. श्री मंडन गणीने सोप्या. एक वर्षमा व्याकरण साहित्यशास्त्र आदि भणी गया. एक कांजी आपनार बाइनु वर्णन करता गुरुए 'पलित्त' का, त्यारे तेणे 'प' नो 'पा' करवा कां एटले गुरुए 'पालिक्त' नाम आप्यु, 'पादलिप्त' आकाशगामिनी विद्यावाला थारो एम कही दस वर्षनी उंमरे आचार्यपदवी आपी पोतानी पाटे स्थाया।
श्री पादलिप्तमरिजी वादी हता तथा अनेक विद्या आदिना निधान बन्या. श्रीनिशीषभाष्यमा मुरंड. राजाना मस्तकनी वेदना दूर थवा अंगे नोंध लीधी छे. :
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निर्वाणकलिका
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जह जह पएसिणि जाणुअंमि पालितओ भमाडे । तह तह से सिरवेयणा पणस्सइ मुरंडरायस्स ॥
एम गाथा बोली हाथ फेरववाथी राजाना मस्तकनी पीड़ा दूर था. बीजा पण बुद्धि विद्या अने ज्ञान शक्तिना अनेक प्रसंगो थी तेमनु जीवन गम्भीर छे, तेपना उपदेशथी भरुच श्री अश्वावबोध तीर्थनो शातवाहन राजाए जीर्णोद्धार कराव्यो हतो. भरुचना ब्राह्मणोने तमणे वश कर्या हता ।
तेमनी पासे रससिद्धिनो अर्थी नागार्जुन आवतो. सूरिजी पासे धर्म पाम्यो अने सूरिजीना नामे पादलिप्सपुरपालीताणा बसा. शत्रुञ्जय उपर श्री वीरप्रभुनु मन्दिर बनावी श्री वीरप्रभु आदि जिनबिम्बोनी प्रतिष्ठा मूरि पासे करवी तथा सूरिजी नी मूर्ति पण स्थापी. वीरप्रभुनी वरिजीए 'गाहाजुयल' वे गाथाथी स्तुति करी. जे बे गाथामां सुवर्णसिद्धि तथा आकाशगामिनी विद्या रही छे. आजना जीवो ते जाणी शक्ता नथी. नागार्जुने योगरत्नावली, 'योगरत्नमाला, अनेकाक्षरी आदि ग्रन्थो बनाव्या छे. गुरुमहाराजना मुखथी रैवताचल नीचे दुर्ग पासे नेमिनाथ चरित्र सांभली द्वारकाना महेलो दशार्हमंडप, उग्रसेन भवन, विवाह वेदिका नेमिनाथ पाछा फरवु वगेरे बनाच्या हता. सूरिजीए मानखेदपुरना राजा कृष्णराजने बोध पपाडयो हतो ।
उपकेश पट्टावली श्री पादलिप्तवरिजी दररोज पांच तीर्थेनी यात्रा ने नमस्कार करता एम लख्यु छे. भगवान महावीरदेवना ११मा पट्टधर श्री आर्यदिनसूरिजीना कालना प्रभावको श्री पादलिप्तसरिजीनो
॥०१॥
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॥११॥
उल्लेख छे. वाचकवंशमां आ० कौडिन्यना शिष्यो स्थ० नागसूरि आ० पादलिप्तसूरि आ० स्कंदिला. चार्य, आ. वृद्धवादिसूरि थया छे. आ० खपुटाचार्य पासे श्री पादलिप्तपरिजीए विद्याभ्यास कर्या हतो।
आ. श्री पादलिप्त सूरि पोतानु आयुष्य अल्प जाणी श्री शत्रुञ्जय तीर्थ उपर आव्या. त्यां ३२ दिवस अनशन पाली कालधर्म पामी बीजा देवलोकमां गया ।
आवा महान युगपुरुषना रचेल निर्वाण कलिका ग्रन्थनु संपादन करवानी तक पलता घणो आनन्द अनुभव्यो छे. आ ग्रन्थनु पूर्व प्रकाशन श्री मोहनलाल भगवानदास झवेरीए संशोधन करेलु इन्दोर निवासी शेठ नथमलजी कनैयालाल रांका द्वारा वि० सं० १९८२ मां श्री मोहनलालजी जैन ग्रन्थमालाना ५ मा ग्रन्थरत्न तरीके प्रसिद्ध थयु हतु. ते द्वारा यथामति संशोधन करीने आ ग्रन्थ प्रसिद्ध थाय के. जैन संघमां आ ग्रन्थनु वाचन-मनन थतां आ विषयमा निपुणता साथे निर्मलता प्राप्त थाय एज अभिलाषा ।
वि. सं. २०३७ श्रावण शुक्ल ५ बुधवार आराधना भवन, विठल प्रेस रोड, सुरेन्द्र नगर (सौराष्ट्र)
पू. आ. श्री विजयकपूरसूरीश्वर पट्टधर हालारदेशोदारक
पू. आ. श्री विजयामृतसूरीश्वर विनेय
पं. जिनेन्द्रविजय गणी
॥११॥
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निर्वाण
कलिका
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विषय
मंगलाचरणम् १. नित्यकर्म विधि:
उपासक देह शुद्धिः द्वार पूजा पूजागृह प्रवेश:
भीमादि विघ्ननिरास:
आसन पूजा
द्विविध: करन्यासः भूतशुद्धि: मान्त्रिकस्नानम् त्रिविधोऽङ्गन्यासः
पत्रात
१
२
३
२
२
२
२
२
२
३
३
-: विषयानुक्रमः
卐
विषय
मातृकान्यास पञ्चविधशुद्धिः आत्माभिषेकः
--
त्रिविध जापः
यौगिक ध्यानम्
अर्हमूर्ति पूजा
विसर्जनम्
पत्राङ्क
*
४
५
प्रथम वलये जिनगुर्वादि पूजा ६
द्वितीय वलये विद्यादेवीनां पूजा ७ तृतीय वलये इन्द्रादिक पूजा आदित्यादि पूजा
B
७
८
९
१०
१०
विषय गृहदेवतागण पूजा दिग्देवता बलिविधानम्
पत्राङ्क
१०
११
२. दीक्षा विधिः
१२
१२
गृहस्थदीक्षा पूर्वं विधिः सर्वतोभद्रमण्डलनिरूपणम् १२ अष्टसमयादि श्रावणम्
१५.
३. आचार्याभिषेकः
१६
मण्डपवेदिका कुम्भवर्णनम् १६ शङ्खवर्णनम्
१७
१७
अभिषेक: नन्दि विधि
१८
।। १२ ।।
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विषय
२५
१८
AM
२६
विषय
पत्राङ्क अनुज्ञा विधिः नुतनाचार्यदेशना मूलाचार्यस्यानुशास्तिः शङ्खादीनां मन्त्राः ४. भूपरीक्षा अनेकविधा भूपरीक्षा भूमिपरिग्रह विधिः २१ शल्यज्ञानम्
२१ ५. शिलान्यास विधिः वास्तुपूजनम्
२२ ६. प्रतिष्ठा विधि:
१. पाद प्रतिष्ठा शिल्पोन्द्राचार्याणां गुणाः २३ अधिवासना मण्डप रचना २४ भूतशुद्धि सकलीकरण कव चबलिविधानम् २४
पत्राङ्क स्नानमण्डपः शिलावर्णनम् कुम्भ शिलान्यासः ७. द्वार प्रतिष्ठाः विधिः ८. बिम्बप्रतिष्ठा विधिः कारक समूहः शुचि विद्या भूतबलि मन्त्रः मन्त्रन्यासः दिग्बन्धमन्त्रः बिम्बस्नानम् स्नान मन्त्रा जिनावाहनम् नन्दावर्तनिरूपणम् निरूपण गाथाः नन्दावर्तपूजा मन्त्राः
विषय
पत्राङ्क अधिवासनाविद्याद्वयम् सौभाग्यविद्या अतिशयचतुष्कन्यासः अधिवासना (गाथा) धान्य वृष्टिः (,) ४४ मङ्गलप्रतिपाः (,) ४४ बलिदानम् (,) ४४ सुवर्णादिदानम् (,) लवणारात्रिकम् ) चैत्यवंदनादिः (1) अञ्जनशलाकाविधि:(.) वृतादर्शदधिदर्शनम् कर्मक्षयोत्पन्नातिशय
न्यास: मन्त्रश्न रत्नधात्वादिन्यास: जिनविम्बप्रतिष्ठा विधिः । प्रतिष्ठामन्त्रः
२२
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निर्वाण कलिका
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विषय
मूर्ति प्रतिबोध स्थिरीकरणमन्त्रौ
पत्राङ्क
मुद्राकरणम् सुरवृतातिशय प्रातिहार्ययक्षयक्षैश्वरीधर्म चक्रमृगद्वन्द्वरत्नध्वजप्राकारत्रयादि स्थापना ४६ तेषां मन्त्राः निम्रक्षणारात्रिक देववन्दनादिकम् बलिदानम्
५०
शान्ति बलिमन्त्र: संघपूजादि शासनो
४९ ૪Æ
( आगम गाथा ) ५१
५४
अष्टा
कमहः
विसर्जन विधिः
दुभासनम् (,, ) ५४
(,, )
५५
( गाथा) ५६
विषय अष्टोत्तरशतस्नात्रम् मास संवत्सर कार्याणि (गाथा) ५६ विभवाभावस्य प्रतिष्ठा
पत्राङ्क
कार्यम् (,, ) ५७ लेप्यादिप्रतिमा प्रतिष्ठाविधिः ५८ सरस्वत्यादि प्रतिष्ठा तृतीया प्रतिष्ठा मन्त्राः सरस्वति माणिभद्र ब्रह्मशान्त्यम्बिका प्रतिष्ठा हृत्प्रतिष्ठा चतुर्थी कलाप्रभृतिविन्यासः नाडी दशक वायुदशक विन्यासः ६० नाडी वायुन्यास मन्त्राः चुलिका प्रतिष्ठा पश्चमी
५९
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चूलक कलशध्वजधमंचक्रादिनां अधिवासः
५८
५८
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पत्राङ्क
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विषय प्रासादाधिवासः चूल+ कलशादि निवेश: ध्वजचटापनफलम् (गाथा) ६२ देवगुरु सङ्घपूजा
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६२
६२
अनुकम्पा दण्डनिरूपणम् दण्डमानदिशाफलम् वैदिकालक्षणम्
६. जीर्णोद्धार विधिः बिम्बोत्थापनम् दिक्पाल बलिदानम् दिक्पालावानम् विसर्जनस्नानम्
जाप सुवर्णपुष्प पूजा विसर्जन मन्त्रः
शैल बिम्बक्षैपनम्
******* 3 3 3 w
६३
૬૪
૬૪
૬૪
६५
६५
६५
६५
६६
। १४ ।।
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॥१५॥
विषय
पत्राडू मृद्ररत्नबिम्बं सुवर्णादि बिम्बस्य पुनः स्थापनम् ६६ चूलकध्वजप्रासादविसर्जनम् ६६
प्रासादषडङ्गपूजनम् १०. मुद्रा विधिः (६३ मुद्राः) ६६ ११. प्रायश्चित विधिः
बिम्ब विषये जप प्रायश्चितम् ७२ देवोपकरणं पादेन स्पर्श सन्ध्यालोपे देवानर्चने निर्माल्य भक्षणे प्रायश्चितम् ७३
विषय
पत्रात निर्माल्यभेदाः देवद्रव्यनिरुपणम् निर्माल्योपगे फलम् ७३ सूतक शावाशौचयोः विशेषः सूतके शावाशीचे नित्यक्षतिः
न कार्या १२. अहंदादीनां वर्णादि क्रमः ७४
तीर्थकराणां वर्णलाञ्चन जन्मनक्षत्रवर्णनम् यक्षयक्षिणी स्वरूपायुध वर्णनञ्च
विषय
पत्राङ्क श्रुतदेवता शान्तिदेवतावर्णनम् ८० १६. षोडशविद्यादेवीनां
__स्वरूपायुध वर्णनम् ८० १४. लोकपालस्वरूपायुधवर्णनम् ८१ १५. नवग्रह स्वरूपायुधवर्णनम् ८२
ब्रह्मशान्तिक्षेत्रपालस्वरूपायुधवर्णनम्
८२
॥१५॥
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निर्वाण
कलिका
॥ १६ ॥
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पृष्ठ पंक्ति:
५
५
६
६
८
९
७
३
१२ ३
१३ ११
१५ ११
१६ २
१६ १५
१९
२
२० २
२१
१
२१ ११
२२
६
२४
૪
अशुद्धं
० दीपान्तरं
दक्षिणायाम्
उत्तरायां
महाकल्यै
क्षेत्रपालानां
तद्वि
पूर्ववद्विर्ण्य
पूर्व कप विधवा पट्टवस्त्रोपेतं षट्विंश ०
पलाशा मने
कुण्ड सदि
o कण्डूदनादिना
सविता
ह्यणवा०
शुद्धं
० दीपानन्तरं
दक्षिणस्याम्
उत्तरस्यां
महाकाल्यै
क्षेत्रपालेभ्यो
तद्बहिः
पूर्ववदिवसृस्य पूर्व कमविधवा०
पट्टवस्त्रोपेतं
षट्त्रिंश० पलाशात्मने
कुण्ड सहि
o कण्डूयनादिना
सवितृ -
प्रणवा०
* शुद्धिपत्रकम्
पृष्ठ पंक्ति:
२९ १४
३०
३
३१
३१
३
५
अशुद्धं पंचंगाबद्ध ० ० कयमेणं
परममन्त्रान् ० चेन्द्रादीनां दिग्निवासियो
३७
४
४१ ७ थी १० पाणि
४७
४
४८
२
४८ ८
४८ १५
५२ १०
५६ ११
६४
५
६५ 6
६७
९
नायिकायाः पश्चिमस्यां
सगं गर्तासु
लोकपालानां
ब्रहाणां
अष्टाह्निका च दिक्पालानां
गालितम्भा
०नामियो०
शुद्धं
पश्वाङ्गाबद्ध ० ०कयकम्मेणं
परमन्त्रान्
० चेन्द्रादिभ्यः दिनिवासियो
पाणे
नायिकायै
पश्चिमायां
सर्व
लोकपालेभ्यो
हृदानां अष्टाश्र्वि
दिक्पालेभ्यो
गालितम्भसा
०नामिकयो०
॥ १६५
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॥ अहम् ।। णमोत्यु णं समणस्स भगवो महावीरस्म ।
पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकारामृतमूरिभ्यो नमः । गुणशेखर वाचनाचार्य श्रीमद्भण्डनगणिवर शिष्यरत्न विद्याधरवंशभूषणमणि-गुणमणिनिधि
श्रीमत्पादलिप्ताचार्यकृता निर्वाणकलिका ।
ॐ नमो वीतरागाय ॥ वर्धमान जिन नत्वा समुहत्य जिनागमात् । नित्यकर्म तथा दीक्षां प्रतिष्ठां च प्रच(ब)महे ॥१॥ प्रतिष्ठापडतिश्चैषा श्रीमत्पालिप्तसूरिणा। भव्यानामुपकाराय स्पष्टार्थाऽऽख्यायनेऽधुना ।।२।।
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॥१॥ अथ नित्यकर्मविधिः॥
नित्यकर्म
निर्वाणकलिका.
विधि.
॥२॥
तत्रोपासको नमस्कारपूर्वमुत्थाय कृतावश्यको विशुद्धमृदा गुदलिङ्गादीन्प्रक्षाल्य गन्धलेपापनोदेन भावशुद्ध्या शौचं विधाय सकृत् मृदा पादौ हस्तौ च प्रक्षाल्य आचम्य जम्बाम्रादिकाष्ठेन द्वादशाङ्गुलेन कनिष्ठागुलिपरिणाहेन दन्तशुद्धिं विधाय स्नायात् । तत्र शुचिप्रदेशे समुपविश्य मूलमन्त्राभिमन्त्रितफलशेष्वष्टसु नवसु वा तीर्थजलं संकल्प्य श्रीजिनेशमनुस्मरन् स्नात्वा पश्चात्सुगन्धामलकादिना राजोपचारेण चोद्वर्तयेत् । ततो वामहस्ते जलमादाय मूलमन्त्रेणाभिमन्व्य सोमसूर्यो वामदक्षिणहस्तयोः संचिन्त्य मूलमन्त्रेणाञ्जलिमुद्रयात्मानमभिषिच्य शुद्ध वाससी परिधाय स्वीकृतसामान्यापात्रहस्तो द्वारमस्त्रैण संप्रोक्ष्य ऊर्बोदुम्बरे यक्षेशलक्ष्म्यौ नाम्नाभ्यय॑ अस्त्रमुद्रया कालगङ्गे महाकालयमुने आत्मनो वामदक्षिणशाखयोः स्वनाम्ना हृदानने संपूज्य विघ्ननिवा(र्धा रणाय ज्वलन्नाराचास्त्र(चसु)प्रयोगेण पूजागृहस्यान्तः पुष्पं प्रक्षिप्य त्रिपाणिघातैभीमान् , तालत्रयेणान्तरिक्षान्, छोटिकात्रयेण च दिव्यान्विघ्नान्निरस्य, किश्चिदुत्तरशाखाश्रितो देहलीमस्पृशन् दक्षिणपादेनान्तः प्रविश्य देहल्यां विघ्ननिवारणाय पुष्पमस्त्रेण प्रक्षिप्य ब्रह्मस्थाने ॐ वास्तोष्पतये ब्रह्मणे नमः इति ब्रह्माणमभ्यर्य प्रणवेनासनं सम्पूज्य तत्र प्राङ्मुख उदङ्मुखो वोपविश्यास्त्रप्राकारकवचावगुण्ठनाभ्यां पूजागृहं संरक्ष्य का शुद्धिं कुर्यात् ।
तत्र चन्दनलिप्ती हस्तौ परस्पराघर्षणेन तलके पृष्ठे चास्त्रेण संशोध्य वौषडन्तेन मूलमन्त्रणामृतीकृत्याङ्गुष्ठयो.
Kा
॥२॥
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॥ ३ ॥
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जिनान् तर्जन्योः सिद्धान् मध्यमयोराचार्यान् अनामिकयोरुपाध्यायान् कनिष्ठिकयोः साधून् विन्यस्य । ततोऽङ्गानि पृथिव्यादिभूतैः सह क्रमोत्क्रम विधिना संस्थाप्य परेण तेजसा संयोज्य कवचेनावगुण्ठ्य (मुच्य ) सर्वकर्मसु नियोजयेत् । सर्वत्राप्याचमनादावनेनैव विधिना करशुद्धिं विदध्यात् ।
ततो भृतशुद्धयर्थं करकच्छपिकां वा कृष्णरूपं वायु विरेच्य शुक्लेन हविवदात्मानमापूर्य संकुच्य पुनविरेच्य हृदये आत्मानमस्त्र कवचाभ्यां संरक्ष्य प्रथमपूरकार्थेन पार्थिवधारणया अधोमुखनवपादपरूपं शरीरं संचिन्त्य, द्वितीयार्धेन वारुण्या पुष्पफलान्वितं संचिन्त्य, कुम्भकेनाग्नेय्यां शुष्कं दग्धं च रेचकार्धेन वायव्यां भस्मरूपमुयाऽपरेण नाभस्या सुशुद्धं व्योम भावयेत् । यद्वा हृत्कण्ठतालुभ्र मध्यत्रक्षरन्ध्रेषु ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः यथाक्रमं बीजपञ्श्चकचिन्तनेन देहशुद्धिं विधाय ॐ विमलाय विमलचित्ताय वां वां (पां पां) इवों वीं अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहेति कुम्भमुद्रया स्नानं प्रकुर्यात् ।
तदनु ब्रह्मरन्धललाटदक्षिणकर्णवामकर्णेषु तथा ललाटदक्षिणवाममिजानुद्वयेषु पूर्ववत् चित्यादीन् विन्यस्य ततश्चाकाशवीजं सान्तं विन्दुगुरुकलान्वितं सविसर्गं च कृला हृद्वदनललाटशिरः शिखा स्त्रे ( खां से ) षु षड्विधमपि विन्यस्यानन्तरं पादजानुनाभिहृन्मूर्धसु च पृथिव्यादिभूतपञ्चकं पूर्वक्रमेण विन्यसेदित्यङ्गन्यासं कृत्वा तदनु सिद्धमातृकाभङ्गया कुर्यात् ।।
तत्र ॐकारं युग्मे । न नासावंशे । मः ओष्ठयुग्मे । सि कर्णपाल्योः डं ग्रीवायां । अ दक्षिणे शङ्खे |
॥ ३ ॥
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निर्वाण
कलिका.
118 11
वामे । इदक्षिणनेत्रे । ई वामे । उ दक्षिणकर्णे । ऊ वामे । ऋ दक्षिणकपोले ! ॠ वामे । लृ दक्षिणहनुनि । लृ वामे । ए दक्षिणसृकभागे । ऐ वामे । ओ अधोदन्तपङ्क्तौ । औ ऊर्ध्वदन्तपङ्क्तौ । अं चिबुके । अः नासान्तरे । क दक्षिण से । स्व दक्षिणभुजे । ग दक्षिणमणिबन्धे । घ हस्ते । ङ हस्ताङ्गुलिनखेषु । एवं चवर्गं वामबाहौ । ट दक्षिणकटिविभागे । ठ दक्षिणोरुणि । उ दक्षिणजङ्घायां । ढ पादगुल्फे । ण पादाङ्गुलिषु । एवं तवर्गं वामपादविभागेषु । प दक्षिणकुक्षौ । फ वामकुक्षौ । व पृष्ठवंशे । भ नामौ । म हृदये । य स्वचि । र रक्ते । ल मांस । व वसायां । श स्नायुनि । ष अस्थिषु । स शुक्रे । ह प्राणापानयोः । क्ष क्रोधचये । —क वज्रकवचे । वज्रास्त्रे | भृतं दिक्षु विन्यसेदिति ।
यद्वा मातृकाकवचभङ्गन्या तत्र प्रणवादिवीजपञ्चकं पूर्ववदानने विन्यस्यानन्तरमे कोनपञ्चाशत् हृदये कल्पितपदेषु दक्षिणसात् प्रभृत्यादिवर्णमाठकाः प्रदक्षिणगतिना तावद्विन्यसेद्यावन्मध्यपदे शून्यमिति ।
ततो ळ दक्षिणकर्णशकुल्यां । क्ष वामकर्णशष्कुल्यां । क दक्षिण कर्णपाशे । प वामकर्णपाशे न्यसेदित्येवं मन्त्रमयं कवचं कृत्वा । हृदयं हृदि । शिरसि शिरः । शिखायां शिखा । कवचं सर्वगात्रेषु । अस्त्रं प्राच्यादिदित्तु विन्यस्य । भूरसि भूतधात्रि सर्वभूतहिते विचित्रवर्णैरलङ्कृते देवि भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहेति निरीक्षणविधिना स्थानशुद्धिं विधाय । हृदये पूजया । नाभौ होमेन । भ्रमध्ये ध्यानेन । बाह्ययागवदन्तर्यागं कृत्वार्थपात्रमस्त्रेण प्रक्षाल्य बिन्दुध्यानादमृतरूपेणाम्भसा पुष्पदूर्वाक्षतोपेतेन मन्त्रसहितया प्रमृज्य सम्पूज्य च धेनुमुद्रया
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नित्यकर्मविधि.
| ॥ ४ ॥
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प्रबोध्य वर्मणावगुण्ठय ततोऽपि चात्मानं मूर्धन्यभिषिच्य पुष्पादिवस्त्रजातं शुद्धयर्थमस्त्रेण सम्प्रोक्ष्य कवचेनाभ्युक्ष्य हृदयेनाभिमन्य चन्दनेन खिलकं कृत्वा स्वशिरसि मूलमन्त्रेण पुष्पमारोपयेत् ।
ततो यथाभिमतं मौनं कृत्वा प्लुतमात्रो(मन्त्रो)चारेण मन्त्रशुद्धिं विधाय पूर्वदत्तपुष्पाण्यस्त्रेणापनीय ईशान्यां निक्षिप्यास्त्रधारिणा प्रक्षालनेन देवशुद्धिं विदध्यात् । सर्वत्राप्यात्माश्रयद्रव्यमन्त्रदेवाङ्गपश्चकशुद्धयनन्तरं श्रीमजिनेशं पूजयेत् । तत्र पीठस्याग्रे ॐगुरुभ्यो नमः । ॐपरमगुरुभ्यो नमः । सामान्यार्थगन्धपुष्पधूपदीपान्तरं श्रीमजिनं नत्वा मध्ये कर्णिकायां ॐचतुर्मुखदिव्यसिंहासनाय नमः इति आसनं पूजयेत् । ततः पुष्पैरञ्जलिमापूर्य ॐहां अहन्मूर्तये नमः इति मृति विन्यस्य शेषाश्च सिद्धादिमूर्तीयथावद्विनिवेशयेत् ।
पुनरञ्जलिमापूर्य बद्धपद्मासनं स्निग्धच्छायमष्टप्रातिहार्योपेतं द्वादशगणसमन्वितं चतुमुखं ज्ञानशक्तियुक्तं संचिन्त्य ॐ हां विद्यादेहाय नमः इति विद्यादेहं विन्यसेत् । पुनरञ्जलिमापूर्य एयहि संघौषडन्तं मूलमन्त्रमुच्चार्य स्फुरद्रश्मिमण्डलं द्वादशान्तं नीत्वा तन्मयीभूय विन्दुस्थानेऽभ्युदितं ध्यात्वा तस्मादादाय स्थिरबुद्धिरावाहनमुद्रया समावाह्य प्राणं यथा तिष्ठ तिष्ठ ठान्तद्वययुक्तेन मूलमन्त्रेण देवमृतौ स्थापन्या संस्थाप्य तेनैव वपडन्तेन सन्निधापन्या सनिधाप्य अत्रैव पूजान्तं यावत् स्थातव्यमिति तेनैव निष्ठुरतया निरोध्य स्वमुद्रां प्रदर्श्य देवाभिमुखं पादयोरच पाद्यं च हृदयेन देवाय दत्त्वा स्वागतं कृत्वा निर्मजनाभ्यजनोद्वर्तनस्नानादीनि विधाय स्नपनार्थ कनकादिकुम्भानाहत्य निरीक्ष्याभ्युक्ष्य संतान्य संप्रोक्ष्य चास्त्रेण स्नानोदकभाण्डेषु तीर्थजलं संकल्प्य अस्त्रेण कुम्भात्तोयं वस्त्रं
णं यथा तिन्मयीभूय विन्टर पुनरञ्जलिमापूर्य
Vau५॥
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निर्वाण कलिका.
विधि.
च प्रक्षाल्य गालिताम्भसा हृदयेनार्य प्रत्येकमेकैकं पुष्पं दत्त्वार्धोदकविन्दु च क्षिप्त्वा तैर्देवं स्नापयेत् ।
ततो घृतदुग्धदघिसौंषधिगन्धकुङ्कुमचन्दनादिमिर्जलधृपान्तरितैः सर्वत्राशून्यमस्तकं मूलमन्त्रेण संस्नाप्य शुद्धवाससा निमृज्य पाद्यमादौ दवा शिरसि चापं दद्यात् ॥ छ।
नित्यकर्मततः पुनरासनादारभ्य वस्त्रविलेपनाचलङ्कारशुद्धसुरभिनानापुष्पैः ॐही अर्हद्भ्यो नमः इति सम्पूज्य । ॐहां हृदयाय नमः । ॐ हों शिरसे नमः। ॐह शिखायै नमः। ॐ ह्रौं कवचाय नमः । ॐहः अस्त्राय फडिति मङ्गलपूर्वाणि जिनाङ्गेषु सम्पूज्याग्नेयैशान्यनैऋत्यवायव्येषु हच्छिरःशिखाकवचानि संपूज्य पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरेषु अस्त्रं पूजयित्वा हृदयादीनां धेनु नेत्रस्य गोवृषामस्त्रस्य त्रासनीमिति प्रदर्श्य । ॐहीं सिद्धेभ्यो नमः प्राच्याम् । ॐह आचार्येभ्यो नमः दक्षिणायाम् । ॐ हौं उपाध्यायेभ्यो नमः वारुण्याम् । ॐ हः सर्वसाधुभ्यो नमः उत्तरायां । ॐ ज्ञानाय नमः ईशान्यां । ॐ दर्शनाय नमः आग्नेय्यां । ॐचारित्राय नमः नैऋत्यां । ॐशचिविद्यायै नमः वायव्यां । ॐहीं सरस्वत्यै नमः दक्षिणभागे। ॐहीं शान्तिदेव्यै नमः वामभागे । इत्यनेन विधिना कर्णिकायां सम्पूज्य प्रणवादिनमोन्तं केसरेषु मातृकागणं प्रपूजयेत् ।
IRI॥६॥ ततः पूर्वादिपत्रेषु जयादिदेवताचतुष्कं पूजयेत् । आग्नेयादिषु जृम्भाचतुष्कं प्रणवादिनमोन्तैः स्वनामभिरभ्यर्च्य पाशाङ्कुशध्वजवरदमुद्राचतुष्टयं जयादीनां प्रदर्शयेत् ।
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॥७॥
ततो द्वितीयवलये पूर्वादिदलेषु । ॐयां रोहिण्यै अं नमः । ॐ रां प्रज्ञयें आं नमः । ॐ वज्रशृङ्खलाये इ' नमः । ॐवां वज्राङकुइये ई नमः । ॐ शां अप्रतिचक्रायै उ नमः । ॐषां पुरुषदत्तायै ॐ नमः स काल्यै ॠ नमः । ॐहां महाकल्यै ॠ नमः । ॐ गौर्यै नमः । ॐ गान्धायै लु' नमः । ॐ सर्वास्त्रमहाज्वालायै ए' नमः । ॐ मानव्ये ऍ नमः । ॐशू वैरोट्यायै ओं नमः । ॐ अछुता औ नमः । ॐ मानस्यै नमः । ॐ महामानस्यै अः नमः । इति विद्या पोडशकं स्वमन्त्रमुद्राभिरभ्यर्चयेत् । तासां च मुद्रास्तद्यथा
शङ्खः शक्तिस्तथा ज्ञेया शृङ्खला वज्रमेव च । चक्रं पद्मं गदा घण्टा कुण्डिका मुशलं तथा ॥ १ ॥ परशुश्च तथा वृक्षः सर्पः खड्गं तथैव च । ज्वाला च श्रीमणिश्चैब मुद्रा होता यथाक्रमम् ॥ २ ॥
तदनु तृतीयवल के पत्राष्टके ॐलं अ इन्द्राय नमः । ॐ रं क अग्नये नमः । ॐ शं च यमाय नमः । ॐट नैर्ऋतये नमः । ॐवं त वरुणाय नमः । ॐयं प वायवे नमः । ॐ सं य कुबेराय नमः । ॐहं स ईशानाय नमः । ॐ नागाय नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । पुनः पूर्व दलोभय गर्श्वदलेषु पूजयेत् । वज्रमिन्द्रस्य विज्ञयं शक्तिर्वैश्वानरन्य च । यमस्य दण्डो विज्ञेयो नैऋतेः खड्गमेव च ॥ १ ॥ वरुणस्य च वै पाशः पवनस्य तथा ध्वजः । कुबेरस्य गदा ज्ञेया त्रिशूलं शङ्करस्य च ॥ एता यथाक्रममिन्द्रादीनां प्रदर्श्य । ॐ आदित्याय नमः पूर्वदले । ॐ सोमाय नमः वायव्यदले ।
२ ॥
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॥ ७ ॥
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निर्वाण
कलिका.
॥ ८ ॥
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ॐ अङ्गाराय नमः याम्यदले । ॐबुधाय नमः उत्तरदले । ॐ बृहस्पतये नमः ईशानदले । ॐ शुक्राय नमः आग्नेयदले । ॐशनैश्चराय नमः पश्चिमदले । ॐ राहवे नमः नैर्ऋतदले । ॐ केतवे नमः पुनः पूर्वेदले इत्यनेन विधिना दूर्वादध्यचतादिभिर्ग्रहनवकं संपूज्य । ॐक्षं क्षेत्रपालाय नमः । ॐक्षां क्षेत्राधिदेवतायै नमः । इति मण्डलस्य बाह्यकक्षायां दक्षिणवामभागयोरर्चयेत् । ततो मायाबीजेन त्रिधा मण्डलमावेष्ट्याङ्कुशेन निरोधयेत् । ततः पार्थिवमण्डलवारुणमण्डलवायुमण्डलत्रयं दत्रा गन्धपुष्पाक्षतादिभिः सम्पूज्य धूपभाजनमस्त्रेण संप्रोच्य वर्मणावगुण्ठ्य हृदयेनाभ्यर्च्यामृतमुद्रया प्रबोध्य घण्टामस्त्रेण सम्पूज्य वादयन् स्वाहान्तेन हृदा धूपनैवेद्यताम्बूलादिकं दवा दुर्वाक्षतश्वेतसर्षपान् देवस्य शिरसि समारोप्यारात्रिकमुत्तार्य मङ्गलप्रदीपं दत्त्वा यथाशक्ति जपं कुर्यात् ॥
.
स च त्रिविधो मानसोपशु-भाष्यभेदात् । तत्र मानसो मनोमात्रवृत्तिनिवृत्तः स्वसंवेद्यः । उपांशुस्तु परैरश्रयमाणोऽन्तः संजल्परूपः । यस्तु परैः श्रूयते स भाष्यः । अयं यथाक्रममुत्तममध्यमाधमसिद्धिषु शान्तिपुष्टर्याभचारादिरूपासु नियोज्यः । मानसस्य यत्नसाध्यत्वाद्भाष्यस्याधमसिद्धिफलत्वादुपांशुः साधारणत्वात्प्रयोज्यः । त्रिविधोऽपि न द्रुतो न विलम्वितो नास्पष्टाक्षरो नान्यमनसा कर्तव्यः । नित्यनैमित्तिकेषु प्राङ्मुखेनोदङ्मुखेनैकचित्तेन कार्यः । काम्येषु कामानुसारेणाभिचारादावन्य मुखेनापि विधेयः । नित्यकर्मणि चाष्टशतं तदर्धं पादं वा जपेत् । तत्रैकतमं यथाशक्ति जपं विधाय कुशपुष्पचन्दनाक्षतमिश्रेण गन्धोदकचुलुकत्रयेण शान्तये त्रिभिः इलोकैर्ममास्तु फलसाधकमिति निवेदयन्
नित्यकर्म विधि.
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॥ ६ ॥
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गुह्यानिगुह्यगोता त्वं गृहाणास्मस्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवति मे येन त्वत्प्रसादात्त्वथि स्थिते ॥१॥ I कुर्महे देव सदा सुकृतदुष्कृतम् । तन्मे निजपदस्थस्य हुंक्षः क्षपय त्वं जिन ॥ २ ॥ जिनो दाता जिनो भोक्ता जिनः सर्वमिदं जगत् । जिना जयति सर्वत्र यो जिनः सोऽहमेव च ॥ ३ ॥ इत्येवं जपं पूजामात्मानं च भक्त्या देवाय विनिवेद्य विचित्रस्तुतिभिः स्तुत्वा नमस्कारमुद्रया नमस्कारं विदध्यात् ।
aal हृत्कमलकर्णिका तेजोमयं ज्ञानशक्तिसमन्वितं शान्तं विचिन्त्य मनो वायुतत्त्वं चैकीकृत्य ( विभागेन विभाव्यम् । तत् ज्ञानशक्त्या हृद्गलतालुब्रह्मरन्ध्राणि संशोध्य अमध्यं नीत्वा तत्रस्थं चतुमुखमष्टप्रातिहार्योपेतं धर्मार्थकामजनकमणिमादिगुणैश्वर्यप्रवर्तकं जातिजरामरणविनाशकं निरामयमर्हद्भट्टारकं ध्यायेत् ।
तदनु सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं यावदणुमात्रम् । ततश्चात्मनि विलयं नीत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् किन्तु नासाग्रनिहितदृष्टिः किञ्चिद्विवृतास्यो निःप्रकम्पो भृतकुम्भवत्तिष्ठेत् । तथाच ।
स्थानं तदन्यदेवास्ति गुरुवक्त्रादवाप्यते । यत्र नोत्वा मनो योगी निर्मनस्कत्वमाप्नुयात् ॥१॥ न मनो न च मन्तव्यं ममतां भावयेद्यदा । निर्मनस्केन योगेन भवेद्योगीश्वरस्तदा || २ || तस्यामवस्थायां न शृणोति न पश्यति । न मनः क्षुत्पिपासादिभिरभिभूयते । न व्यालवेतालादयो हिंसन्ति । a asra धनकर्मबन्धनैः । एवमचिरादेव क्षीणप्रायकर्ममलः क्रमेण मोक्षमाप्नुयादित्यनेन विधिना ध्यानं विधायाष्ट
॥ ६ ॥
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कलिका.
॥१०॥
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पुष्पिका जिनेशाय दद्यात्। तद्यथा
ॐ स्थिरतात्मने अवनिमूर्तये नमः ॥ १ ॥ ॐ नित्यात्मने व्योममूर्तये नमः || २ || ॐ तेजोमयात्मने दहनमूर्तये नमः ॥ ३ ॥ ॐ निःसङ्गात्मने पवनमूर्तये नमः ॥ ४ ॥ ॐ गाम्भीर्यात्मने आयमूर्तये नमः || ५ || ॐ धर्मात्मने आत्ममूर्तये नमः ॥ ६ ॥ ॐ ज्ञानात्मने तपनमूर्तये नमः ॥७॥ ॐ सौम्यात्मने सोममूर्तये नमः । इति जगद्वयापकमर्हन्मूर्त्यष्टकं सम्पूज्य चन्दनेन तिलकं कृत्वा स्वशिरसि मूलमन्त्रेण पुष्पं विनिक्षिपेत् ।
विसर्जनार्थमयं दत्वा संहारमुद्रया स्वस्थाने गच्छ गच्छेत्यनेन मूलमन्त्रेण पूजां द्वादशान्तमानीय शिरस्याशेष्य पूरकेण हत्कमले संयोज्य सापेक्षं क्षमस्वेति विसर्जयेत् । पर्वसु च विशेषपूजां कुर्यात् । ततः - देवा देवार्चनार्थं ये पुराहूताश्चतुर्विधाः । ते विधायार्हतः पूजां यान्तु सर्वे यथागताः ॥ १ ॥
इति गन्धं पुष्पं धूपं च दर्शयित्वा (दच्चा) रेचकेन संहारमुद्रया विसर्ज्यं । पत्रिका मीशान्यां प्रक्षिप्यार्घपात्राम्भसा पटं प्रक्षाल्योपरि पुष्पमेकं दत्त्वा समुत्थाय गृहमध्ये वृत्तमण्डलकं विधाय गन्धपुष्पधूपनैवेद्यादिकं दत्त्वा वस्तोपतये ब्रह्मणे नमः । इति वास्तु सम्पूज्य मध्यस्तम्भात्रः ॐस्कन्दाय गृहाधिपतये नमः | शयनीय शिरसि ॐ कामाच कुसुमायुधाय नमः । गृहप्रधानपट्टे ॐ ह्रीं भवनदेवतायै नमः । गृहप्रधानद्वारे ॐमहायक्षराजाय नमः । इति गृहदेवतागणं पूजयेत् ।
नित्यकर्मविधि.
॥१०॥
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॥११॥
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ततो मध्याह्न पुनरपि भट्टारकं सम्पूज्य सर्वमन्नं पात्रे समाहृत्य गृहदेवताभ्यो बलिं दत्त्वा बहिर्निर्गत्य दिग्देवताभ्यः ॐ ह्रीं इन्द्र प्रतिगृह नमः । ॐहीं ऐन्द्रि प्रतिगृह नमः । एवं शेपा अपि अग्नये आग्नेये यमाय याभ्यै नैऋतये नै स्यै वरुणाय वारुण्यै वायवे वायव्यै कुबेराय कौबेर्ये ईशानाय ईशान्यै नागा नागमात्रे ब्रह्मणे ब्रह्माण्यै नमः । इति पुष्पगन्धधूपसहितं बलिं दद्यात् । तदनु
योगिन्यो भीषणा रौद्रा देवताः क्षेत्ररक्षकाः । आगत्य प्रतिगृह्णन्तु जिनेष्टानुविधायिनः ॥ १ ॥ ये रुद्रा रुद्रकर्माणो रौद्रस्थाननिवासिनः । सौम्याश्चव तु ये केचित्सौम्यस्थान निवासिनः ||२|| सर्वे सुप्रीतमनसः प्रतिगृह्णन्त्विमं बलिम् । सिद्धिं यच्छन्तु नः क्षिप्रं भयेभ्यः पान्तु नित्यशः ॥ ३ ॥ इत्यनेन मन्त्रेण बलिं प्रक्षिप्य गन्धपुष्पान्वितं शेषमन्नं भूमौ निक्षिपेत् । ततो हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्याचामेदिति ॥
॥ इति निर्वाणकलिकाभिधानायां प्रतिष्ठापडतो नित्यकर्मविधिः समाप्तः ॥
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॥११॥
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निर्वाणकलिका.
॥१२॥
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||२॥ अथ दीक्षाविधिः ॥
तत्राचार्यः कृतावश्यको देववन्दनादिकं कर्म कृत्वा पूजागृहमुपविश्य आत्मनो रक्षां विधाय भगवन्तं सम्पूज्य क्षेत्रपालानां बलिं दवा निर्वर्तितशान्तिकर्मविधिः मण्डपाद्बहिर्मण्डल के शिष्यं समुपवेश्य दन्तधावनं मुख( प ) वासं च दद्यात् । दन्तधावनविधिः प्रातः प्रागुदगीशानपश्चिमेषु शस्तः अन्यत्र कृते शान्तिकर्म कुर्यात् । ततो रात्रावधिवासनामन्त्रेण त्रिपञ्चसप्तवारान् अधिवास्य शुद्धायां भूमौ दर्भशयने अस्त्रशतालम्भे प्राचीने मस्तके हन्मन्त्रेण शिष्यं समारोप्य शिखया बद्धशिखं विधाय धर्मजप्तवाससा प्रच्छाद्य शाययेत् । शयनीयस्य बहिर्भस्मसर्प व शिरोस्त्राभिमन्त्रितैस्तिस्रो रेखाः कृत्वा भूतबलि दवा स्वयमप्युपोषितो भूत्वा दीक्षितैः सह शयीत । ततः प्रातरुत्थाय समाप्तनित्य कर्मविधिः शिष्यानाहूय स्वप्नदर्शनं पृष्ट्वा अशुमे शान्तिकर्म कृत्वा शुभे तु विशे षपूजापुरःसरं मण्डलेषु मन्त्रान् सम्पूजयेत् ।
तत्र मण्डलानि सर्वतोभद्रादीनि । तत्र सर्वतोभद्रस्य मुख्यत्वात्तदेवोच्यते । तस्मिन् चतुरस्र क्षेत्रं साधयेत् । शुद्ध दर्पणोदराकृतिं भुवं निष्पाद्य पुष्यपौष्णमघावेधान् मण्डलस्थशङ्कुच्छ. याप्रवेशनिर्गमाभ्यां वा पूर्वापरे संसाध्य पूर्वापरायतं सूत्रमास्काल्य ब्रह्मस्थानं सङ्कल्प्य तस्मात्पूर्वापरगतं समान्तरमङ्कद्वयं दत्वा तत्समं सूत्रं पूर्वयोरङ्कयो वा दक्षिणोत्तरमत्स्यद्वयं सम्पाद्य मत्स्योदरे दक्षिणोत्तरायतं सूत्रं प्रसार्य ततः क्षेत्रार्थमानेन मध्यादिष्टाङ्कं विधाय तदङ्कमसूत्रेण विदिक्षु त्वनुलोमविलोमतो मत्स्यचतुष्कं दत्त्वा तेषु सूत्रचतुष्टयदानात् चतुरस्र संसाध्य ततो मण्डलं विदध्यात् ।
दीक्षाविधि.
॥१२॥
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तत्र चतुरस्रमष्टधा विभज्य चतुःषष्टिपदं कृत्वा मध्यकोष्ठकचतुष्टये पद्म सम्पाझ तदनु पङ्क्तौ पद्मार्धन वीथीवदनन्तरं पक्षयोश्चतुर्दिक्षु पद्मासनानि चत्वारि द्वाराणि द्वारार्धमानात् कण्ठोपकण्ठं कपोलोपकपोलौ कुर्यात् । एवं विभज्य ब्रह्मस्थानात् सूत्रभ्रमेण व्यङ्गुलानि चत्वारि वृत्तानि कृत्वा दिक्षु विदिक्षु तत्सन्धिषु सन्ध्यन्तरेषु च द्वात्रिंशत्सूत्राणि दत्वा तृतीयवृत्ते सन्ध्यन्तरसूत्राद्वहिः पार्श्वभ्रमणात् षोडशाधं चन्द्रं कृत्वा दिक्ष विदिक्ष अर्धचन्द्रद्वयं मध्ये चतुर्थवृत्ते दलाग्राणि तृतीयवृत्ते दलसन्धीन् द्वितीयवृत्ते केसराग्राणि प्रथमवृत्ते तवृत्तप्रमाणां पीतां कर्णिको तन्मध्ये नीलवर्णानि नव बीजानि मूलमध्याग्रेषु शुक्लरक्तपोतं केसरजालं दलानि प्रवारण या सह शुक्लवर्णानीति पद्म निष्पादयेत् । तत्रोत्पन्नतहला मुक्तिकामस्य प्राञ्जलं मुक्तिकामस्य स्मरादियोगे तीक्ष्णाग्रम् । दिक्पालाना मंथराग्रं सरस्वत्यम्बिकादीनां अश्वत्थपत्रबद्दलं विधेयं कर्णिकार्धसमम् ।
बहिःपीठे नीलसन्धानकीलकोपेतं श्वेतपीतरक्तकृष्णपादकं विचित्रगात्र विधाय तद्वहिर्वीथीसूत्रीन द्वारार्धन द्वारकण्ठान्तं ततो दक्षिणोत्तरनिःसृतं तावदेवोपकण्ठं तवं तावदेव कपोलं तस्माद्दक्षिणोत्तरमन्तःसम्मुखं तावदेवोपकपोलं तद्विहः शुक्लरक्तकृष्णरेखात्रयं सत्वरजस्तमोरूपं कृत्वा एताश्च रेखा: प्रथमा अगुलप्रमाणाः अन्ये तु यवोने यवान्तराश्च पर्वा मुक्तिकामस्य भुक्तिकामस्य च समाः कार्याः ।
द्वारकण्ठोपकण्ठकपोलोपकपोलरेखां संरक्ष्य प्रतिकोणं शेषरेखाः परिलोपयेत् । सर्वतोभद्रसर्वमण्डलेषु पद्मद्वाराण्यनेनैव मार्गेण स्युरिति । शालिपिष्टेन श्वेतं तदेव हरिद्रान्वितं पीतं सिन्दुरधात्विष्टकादिना रक्तं दग्धजवादिना
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॥१३॥
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निर्वाणकलिका.
दीक्षाविधि.
॥१४॥
कृष्णं शुष्कशमीपत्रादिना नीतं तद्वर्णकार्थ रजः कार्यम् । विशेषसिद्धिकामो मुक्ताविद्रुमादिना एतदेव कुर्यात् एतन्मण्डलं निष्पाद्य सपरिकर भगवन्तं सम्पूज्य द्वारे मण्डलं विधाय प्रणवेनासनं दत्वा शिष्यमूलकायमुदङ्मुखं कृताञ्जलिं सन्निवेश्य स्वयं प्राग्नदनो मुलमन्त्राभिमन्त्रितेन शान्तिकुम्भाम्भसा स्नापयेत् ।
पुष्पाक्षतःदिना मुद्रास्त्रेण सन्ताडय दुर्वाप्रवालेन नामेरूमधश्च त्रिधा समुल्लिख्य अस्त्रप्रोक्षितकवचावगुण्ठितहृदयसंस्कृतवाससा सर्वाङ्गमाच्छाद्य पूजागृहं प्रवेश्य पुष्पाञ्जलिक्षेपं कारयित्वा भगवन्तं दर्शयेत् । तदनु भगवतो दक्षिणहिग्भागमण्डलके प्रणवासमं दत्वा तत्रोपविश्य धारणादिभिर्देहशुद्धिं सकलीकरणं च कृत्वा निजहस्ते मन्त्रान्संपूज्य तेजोरूपान ध्यात्वा शिष्यमस्तके सन्निवेश्य मूलमन्त्रं समुच्चरन् सर्वाङ्गालभनं विदध्यात् ।
तदन्वस्त्रेण प्रोक्षणताडने विधाय रेचकेन शिष्यदेहे सम्प्रवेश्य सुविश्लेषछदा वस्त्रेण संपिधाय अङकुशमुद्रया तच्चैतन्यमाकृष्य द्वादशन्ते समानीय संहारमुद्रया स्वहृदये पूरकेण प्रवेश्य कुम्भकेन समरसीकृत्य रेचकेन ब्रह्मादिदेवताः संचिन्त्य द्वादशान्तमानीय सुपुम्नायां नाडीप्राणवायूनेकीभूतान संचिन्त्य तत्र शिष्यचैतन्यं शुद्धस्फटिकप्रख्यं सम्भाव्यं जिह्वां तालुके संयोज्य ईषद्द्वथावृतवक्त्रे दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् समुन्नतकायो मन्त्रमुचार्य श्रोत्रविवरेण स्वकीयप्राणेन सह मूलमन्त्रं शिष्यस्य हृदि सनिवेशयेत् ।
ततः शिष्यः स्वहस्तेन भगवन्तं सम्पूज्य नैवेद्यादिकं दत्वा गुरवे सुवर्ण दक्षिणां दवात् । एवं समयसंस्कार. संस्कृतः पूजाहोमश्रवणाध्ययनादिषु योग्यः स्याज्जैनं च पदं लभत इति ।
॥१४॥
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ततोऽपात्रोदकेनाभिषिच्याष्टौ समयान् श्रावयेत् । देवगुरुच्छात्रसाधकादिभक्तन भवितव्यम है। प्राणिनं न हन्यात् २। अनृतं न भाषयेत(षेत)३। परस्य द्रव्यं न गृह्णीयात् ४ । परस्त्री न कामयेत् ५। नियतपरिग्रहेण भवितव्यम् रात्रौ नाश्नीयात (७) मद्यमांसादिकं न भक्षयेत ७ ॥ गुरोराज्ञां न लवयेत् ८ । इति समयाचारांश्च तत्र मन्त्रतन्त्रकल्पानदीक्षितान्न श्रावयेत् । नापि तत्पाङल्लेखयेत् । अज्ञानस्वरूपं(अज्ञानरूपं) न दीक्षयेत् । त्रिविरेककालं वा भगवन्तं पूजयेत् । नमस्कारं च जपेत् । देवगुरुयतीनामनिवेच नाश्नीयात । यथाशक्ति अतिथिदीनानाथकृपणेभ्योऽन्नादिकमनुकम्पया दद्यात् । पर्वसु विशेषपूजां गुरौ जिने च कुर्यात् । आचार्यादीन् सदा भजेत् । अष्ठमोचतुर्दशीपञ्चदशीषु च स्त्रोतलक्षुरकर्म धर्जयेत् चतुर्थमेकभक्तं वा कुर्यात् । कन्यायोनि गोयोनि नग्नां प्रकटस्तनी च स्त्रीं न पश्येत् । भीतन्त्रस्तावखिन्नविहलरोगिसमयज्ञजिनभक्तांश्च पालयेत । देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं न भक्षयेत्। स्मशानचत्वरैकवृक्षशून्यवेश्मदेवतादिगृहेषु मूत्राद्युत्सर्ग न कारयेदिति । निन्दितैः सह संसर्गादिकं वर्जयेत् । ततो भगवन्तं सम्पूज्य मण्डलपूजादिकं पूर्ववद्विसज्यं तपोधनवर्ग साधर्मिकवर्ग च भोजयेत् । ततो गच्छ सधं च स्वशक्त्या वस्त्रादिदानादिना सम्पूज्य दीनानाथादिदान कृपया दापयेत् । इत्येवमुत्तरोत्तराध्यवसाययुक्तेन कल्याणिना प्रतिदिनं प्रवर्तितव्यम् ।।
॥ इति दीक्षाविधिः ॥
॥१५॥
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निर्वाणकलिका.
नित्यकर्मविधि.
KI ॥१६॥
॥३॥ अथाचार्याभिषेकः ॥ आभिषेकिकनक्षत्रे स्वानुकूले सतारे चन्द्रे षट्त्रिंशद्गुणालङ्कृतस्य श्रुतशीलगुणाचारसम्पन्नस्य कुर्यात् । तत्र दिक्पालानां चलिं दत्वा शुभेऽति मङ्गलपूर्वकपविधवानारीभिस्तैलादिकर्मविधिना वर्णकं समारोप्य द्वदशाह दशाहं वा क्षीरानभोजिनं पञ्चनमस्कारअपनिरतं शिष्यं विधाय आसन्नलग्नदिने संध्यायां व्याघाताधकतमं कालं संशोध्य प्रातरुत्थाय शुद्धकालं प्रवेद्य स्वाध्यायं प्रस्थाप्य ततश्चैशान्यां मण्डपवेदिकायां चतुर्हस्तं रजोभिश्च पञ्चवणेरुपशोभितं मध्यलिखितद्वात्रिंशदगुलं शुक्लपद्म द्वात्रिंशद गुलायाम पोडशाङ्गुलं विस्तृतावाहनीयद्वाराभिमुखसर्वरजोमुक्तपादपीठसहितं बाह्यचित्रवल्लीद्वारमक्षकोणस्थकन्दुकाद्यपशोभितं स्वस्वदिक्स्थावाहनीयद्वारपूर्वदिग्वाहितद्वारं वा मण्डलमालिखेत् ।
तत्र वीथ्यन्तर्गतान् पूर्वादिक्रमेण शुक्लरजसाऽष्टौ शङ्खान् आनन्द-सुनन्द-नन्दि-नन्दिवर्धन-श्रीमुख-विजयतार-सुतार-संज्ञान सुभद्र-वि(विजय)भद्र-सुदन्त-पुष्पदन्त-जय-विजय-कुम्भ-पूर्णकुम्भसंज्ञाश्च तथाविधान कुम्भानालिखेत् । मण्डलस्योपरि धवलं विचित्रं वा किङ्किणीघण्टायुक्त मुक्ताजालगवाक्षकोपेतं मणिदामोपशोभितं सच्चामरपट्टवस्त्रोपेतं लम्बमानप्रतिसरकन्दुकाधलङ्कृतं वितानकं विदधीत । मण्डपस्याभ्यन्ततरं क्वचित्पमिनीपत्रसंछन्नमन्तरालेषु बहिश्च गौरसर्षपलाजाखण्डतण्डुलयवदुर्वाकाण्डरजोभिश्च विचित्रं कुर्यात् । तोरणं चास्य बजाङ्कुशची(वा)रमण्डितं चन्दनमालायुक्तं पूर्वस्यां न्यग्रोधं, दक्षिणस्यामौदुम्बर, पश्चिमायामाश्वत्थं, उत्तरस्यां प्लक्ष, विनिवेश्य विदिक्ष
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||१७||
प्रशस्तद्रमजातानि च निवेशयेत् । शङ्खान कलशांश्च मूर्तिमतो गोरोचनारचितस्वस्तिकाष्टकार्चितकण्ठान सर्वरत्नैः सर्ववीजैः सर्वोषधिगन्धैरद्भिश्च पूरितान् वस्त्रस्रगदामकण्ठान् चन्दनोपलेपितान शतकृत्वोऽ(वा)भिमन्त्रितान् पीठिकाया बहिर्दिक्षु विदिक्षु च स्थापयेत् ।।
तत्रायत आनन्दः । नात्यायतः सुनन्दः। महाकुक्षिनन्दी । सुनाभिनन्दिवर्धनः । ह्रस्वनाभिः श्रीमुखः । नाभिमण्डली विजयः । सुनिर्घोषस्तारः। उच्चस्वनः सुतारश्चेति । कलशाश्व-मन्थरसुभद्रः । किश्चिदुन्नतो विभद्रः। पृथुलोष्ठः सुदन्तः । हस्बोष्ठः पुष्पदन्तः । मन्थरग्रीवो जयः । शोभनग्रीवो विजयः। इति मण्डलस्योत्त(स्यांतोरे दुःस्वरं सदशाहतसितवस्त्रच्छन्नं भद्रासनं विन्यस्य तस्मिन् शिष्यं शहतूर्यवीणावेणुस्वस्तिपुण्याहमङ्गलध्वनिभिः कृतमङ्गलं पर्वद्वाराभिमुखं समुपवेश्य जातचीजशरावैश्चित्रमुखैगुणैरञ्जलिकारकै गैरभिन्नपुटकोकाभिनिमृश्य बल्मीकान-पर्वताग्रनदीतीर-महानदीसंगम-कुशविल्वमूल-चतुष्पथ-दन्तिदन्त-गोशृङ्ग-एकवृक्षगृहीताभिमृद्भिः प्रथम, तदनु पञ्चामृतेन, तनो वासचन्दनपश्चपल्लवकषायैः सर्वगन्धैश्च संस्नाप्य प्रदक्षिणोपनीतैः पूर्वविन्यस्तम्भराचार्यमन्त्रमनुस्मरनभिषिञ्चेत् ।
ततः स्नानवस्त्रं परित्यज्य शुक्ले वाससी परिधाय्याखण्डतण्डलैः स्नापयेत । तैश्च प्रवृद्धः प्रवृद्धा समैः समा हीनश्च हीनःमुन्नाति जानीयात् ।।
तरनु मूलमण्डपवेदिकायां पञ्चवर्णेन रजसा रत्नकाञ्चनरजतमयप्राकारत्रयोपेतं गोपुर-चतुष्कालङ्कृतं तोरणध्वज-पुष्करिणीपुष्प-प्राकारोपशोभित समवसरणमालिख्य मध्ये च पद्मरागादिभिर्निर्मिते मृगाधिपासने चतुर्मुखमष्ट
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निर्वाण
कलिका.
112511
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प्रातिहार्योपेतं भगवन्तं संस्थाप्य वेदीयवारकवितानकपुष्पगृहादिकं पूर्ववत्कृत्वा शिष्यं तत्रानीय सकलिकां विधाय मन्त्रैरालभ्य मुक्तपुष्पैः सम्पूज्यालङ्कारैरलङ्कृत्याक्षतानाचार्यमन्त्रेणाभिमन्त्रयानुययोगगणानुज्ञार्थं चैत्यवन्दनं श्रुतादिदेवतानां च कायोत्सर्गाणि कृत्वा पञ्चनमस्कारपूर्वकं नन्दिसूत्रमावर्तयेत् । शिष्योऽपि मुखवस्त्रिया स्थगितमुखकमलः शृणुयात् ।
अनन्तरमाचार्यो भगवत्पादयुगे वासान् प्रक्षिप्य गोमयशालि पुष्पादिचूर्णमयान् सङ्घभट्टारकस्य वासान् दत्वा एवं ब्रूयात्- 'अहमस्य साधोरनुयोगमुक्तलक्षणमनुजानामि क्षमाश्रमणानां हस्तेन द्रव्यगुणपर्यायैर्व्याख्याङ्गरूपं रेषोऽनुज्ञातः' इत्यत्रान्तरे वन्दित्वा शिष्यः 'संदिशत यूयं किं भणामि इत्यदिवर्णजातं यथैव सामायिकैः तथाचैव द्रष्टव्यमिति । तदनु वासः क्षेपपूर्वकं प्रदक्षिणात्रयं कारयित्वाऽनुयोगानुज्ञां दद्यात् । तदर्थं कायोत्सर्ग कृत्वा निषद्यायामुपविश्य आत्मनो दक्षिणभागे शिष्यमुपवेश्य लग्नवेलायां कुम्भकयोगेनाचार्य परम्परागतं पुस्तकादिषु लिखितमाचार्य मन्त्रं निवेदयेत् ।
ततो गन्धपुष्पक्षतान्वितं मुष्टित्रयमचाणां दत्वा तदनु छत्रचामर - हस्त्यश्व - शित्रिका - राजाङ्गानि योगपट्टकखटिका - पुस्तका - Sक्षसूत्र - पादुकादिकं च दद्यात् । स्वशाखानुगतं च नाम दत्वा स्वगच्छेन सह द्वादशावर्त वन्दन कं दवा गणं समयज्ञां श्रावयेत् – 'अद्यप्रभृति दीक्षाप्रतिष्ठा व्याख्यादिकं ज्ञात्वा परीक्ष्य च त्वया विधेयम्' इति । ततश्च 'व्याख्यानं कुरु' इत्यनुज्ञातो नन्द्यादिव्याख्यानं यथाशक्त्या करोत्यभिनवाचार्य: । तदनु मूलाचार्यो
आचार्यामिषेक.
॥१८॥
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॥१६॥
निषद्यायां समुपविश्य
"पटाविंशदुज्ज्वलमहागुणरत्नधुर्य रेतत्पदं प्रथितगोतममुख्यपम्भिः । आसेवितं सकलदाखविमोक्षणाय निर्वाहणीयमशठ भवतापि नित्यम् ॥२॥ आरोप्यते पदमिदं बहुपुण्यभाजो निर्वाहयन्ति च निरन्तरपुण्यभाजः। आराध्य शहविधिना धनमेकमेकं संप्राप्नुवन्ति शनकैः शिवधामसौख्यम॥२॥ नास्मात्पदाजगति साम्प्रतमस्ति किंचिदन्यत्पदं शुभतरं परमं नराणाम् ।
येनात्र पञ्चपरमेष्ठिपदेषु मध्येऽतिकान्तमाद्ययुगलं खल कालदोषात ॥३॥" इत्यादिवाक्यराचार्योऽनुशास्ति दद्यात् । तदनु भगवत निवेद्य 'आचार्योऽयं त्वदनुज्ञातो मया कृतो भवत्प्रसादादधिकारं निर्विघ्नेन करोतु' इति विज्ञापयेत् । पुनर्भगवते प्रणिपातं कारयित्वा भगवन्तं क्षमापयेत् । 'म लब्धाधिकारी गुरुपारम्पर्यागतमधिकारं कुयोंदिति ॥ एवमनेन विधिना राज्यकामस्य भ्रष्टराज्यस्य पुत्रकामा सौभाग्यकामयोश्चाभिषेकं कुर्यादिति ॥
अत्र शङ्खादीना मन्त्राः। ॐ आंख आनन्दात्मने नमः। एवं शेषा अपि पूर्वोत्तरान्ता विजेयाः । ॐ
सर्वरत्नेभ्यो विश्वात्मकेभ्यो नमः। रक्षामन्त्रः। सर्वबीजेभ्यः इन्द्रात्मकेभ्यो नमः । जाना सर्वोषधिभ्यः सोमात्मिकाभ्यो नमः । औषधिमन्त्रः। सर्वगन्धेभ्यः पार्षिवात्मकेभ्यो नमः ।
॥१६॥
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भूपरीक्षा
निर्वाणकलिका.
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॥२०॥
गन्धमन्त्रः। सर्वमृद्भ्यः पृथिव्यात्मिकाभ्यो नमः । मृतिकामन्त्रः । न्यग्रोधात्मने सुराधिपतोरणाय नमः । १। पलाशा मने तेजोषिपतोरणाय नमः । २। उदुम्बरात्मने धर्मराजतोरणाय नमः । ३ । सिडकात्मन रक्षोधिपतोरणाय नमः ।४। अश्वत्थात्मने सलिलाधिपतोरणाय नमः । ५ । मधुकात्मने पवनाधिपतोरणाय नमः । ।। प्लक्षात्मने यक्षाधिपतोरणाय नमः । ७ । विल्वात्मने विद्याधिपतोरणाय नमः । ८। तोरणमन्त्रः।
॥ इति आचार्याभिषेकः ॥
॥४॥ श्रथ भूपरीक्षा ॥ अथ प्रासादं चिकीपुः प्रागेव सुपरीक्षितां भुवं गृह्णीयात् । तत्र भूमिः शुक्ला आज्यगन्धा मधुरा ब्राह्मणस्य । रक्ता रक्तान्तगन्धा कषाया क्षत्रियस्य । पीता तिक्तान्तगन्धा वैश्यस्य । विगन्धा कटुका कृष्णा मध्यगन्धा शूदस्य । शेषा चतूरूपाऽपि खातवारिदीपगुणादिना परीक्षणीया । तत्र हस्तमात्रं खातं तत्रत्यमृदा यस्याः पूर्यते सा मध्यमा । या उद्धरति मृत्तिका सा श्रेष्ठा। यत्राऽरिपूर्णा मृत्तिका साऽधमा। उदकेन च खातमापूरितं पदशतगमनागमनपर्यन्तं यत्र सम्पूर्ण दृश्यते सा ज्यायसी । अगुलोनं मध्यमा । बहुभिरङ्गुलैरून निकृष्टेति । आमकुम्भस्य वा उपरि घृतपूर्णशरावे चतुर्दिनु सितरक्तपीतकृष्णवर्तिचतुष्टयं प्रज्वालयेत् । प्रज्वालितं हृदयादिमन्त्रसम्पूजितमास्नेहान्तं यदि पश्येत्तदा सर्ववर्णाना भूः प्रशस्तेति जानीयात् । अथ निर्वाणा यावन्त्यस्तावता सा न प्रशस्तेति ।
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॥२१॥
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एवं परीक्ष्य तस्यां यथोक्तं मण्डपं कुण्डसदितं कारयित्वा द्वारपालपूजादिमन्त्रतर्पणान्तं कर्म कृत्वा मूलमन्त्रेण सहस्र हुत्वा कुम्भपञ्चकं सप्तधान्यानामुपरि स्थितं पुण्योदकपूर्ण प्रशस्तौषधीरत्नगर्भ चूताश्वत्थादिपवरबीजपूरादिफलोपशोभितं वस्त्रयुगावृतं त्रसूत्रकण्ठं शासनेन साङ्गेन भगवता समधिष्ठितं सम्पूज्य लग्नकाले प्रासादस्य मध्यस्थाने कुम्भजलं प्रक्षिप्य पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरसीमासु च ततो मध्यस्थ वातात्तस्मात् मृदमादाय नैऋत्यां दिशि प्रक्षिपेत् । कुम्भावशिष्टजलेन खातं चाप्लाव्य कुद्दालादिकं संस्थाप्य पूजयेत् ।
ततः परं पूर्णकुम्भं वस्त्रयुगच्छन्नास्यमिन्द्रस्य स्कन्धे निधाय गीतवाद्यादिब्रह्मघोषेण बहुजनसाक्षिक यावदभिप्रेतं पुरः पूर्वसीमान्तं नयेत् । तत्र च मुहूर्तमान स्थित्वा प्रदक्षिणमार्गे आग्नेयादिईशान दिगन्तं भ्रामयेत । ततः प्रासादभूमौ शङ्कष्टकं प्रासादसीमाविनिश्चयार्थ चतुर्यु कोणेषु विन्यस्य सूत्रेण संयोज्य सुवर्ण-रजत-मुक्तादध्यक्षतादिभिरेषां प्रदक्षिां कुर्यादिति भूमिपरिग्रहं विधाय । मनोवृत्त्या वास्तु संकल्प्याऽशल्यं निरूपयेत् ।
तत्र यजमानाङ्गकण्डूयनादिना क्षेत्रे शृगालादिप्रवेशेन वा लग्नेन वा ध्वजाद्यायैर्वा कचटतपसहयजैनबभिर्वणः प्रश्नैर्वा शल्यं जानीयात् । तत्र शिरःकण्डूयने शिरःशल्यम् । तत्प्रमाणेन अन्यदङ्गकण्डूदनादिना विकृति करोति तदफ़न तत्प्रमाणेन शल्यम् । द्विरूपे द्विरूपं शल्यम् । सर्वाङ्गिके विकारे सर्वत्र शल्यम् । ज्ञात्वा खनित्वा शल्यमुदधृत्य हस्तापूरपाषाणैरष्टाङ्गुलोघृतमृदं तैलाप्लावितैमुद्गरकुट्टितैः पादत्रयान्तमापूर्य समप्लवां सुघटितां सुश्तक्ष्णां भुवं विधाय छायाशक्वादिना प्राची दिशं संसाध्य शिलासु लाञ्छनानि कृत्वा सम्पूजयेत् ।।
॥ इति भूपरीक्षा ( भूपरिग्रहः) समाप्ता ।
॥२२॥
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निर्वाणकलिका.
॥२२॥
||५|| अथ शिलान्यास विधिः ॥
तत्र प्रासादक्षेत्रमष्टधा विभज्य चतुष्पष्टिकोष्टकान् कृत्वा चैशान - नैऋत्य मूर्ध्ववंशं आग्नेयाश्च वायव्यान्तं तिर्यवंशद्वयं दत्त्वा द्विपदं षट्पदं च रक्षाष्टकं विन्यस्य मर्माणि ज्ञात्वा ईशानकोणार्थे ईशं दत्त्वा 'पर्जन्यजयमाहेन्द्ररविसत्यभृशान्पदिकान् सम्पूज्य अग्निकोणकोष्ठके व्योमपावको विन्यस्य पूषावितथग्रहक्षतयमगन्धर्व भृङ्गान् पदिकान् दत्त्वा नैऋत्यकोणकोष्टके मृगपितरौ विन्यस्य दौवारिक सुग्रीव पुष्पदन्तवरुण असुरशेषान् पदिकान् सम्पूज्य तदनु वायव्यकोण कोष्टके रोगवायू विन्यस्य नागमुख्य भल्लाटसोमदिति अदित्यन्तान् पदिकान् सम्पूज्य ईशानकोणे अदितिं संपूजयेत् || मध्ये पदचतुष्टये ब्रह्माणं तस्यैशान्यां पदिकौ आप (य) वत्सौ प्राच्यां षट्पदं मरीचि आग्नेय्यां सवितासावित्री पदको दक्षिणस्यां षट्पदं विवस्वन्तं नैॠत्यामिन्द्रजयौ पदिको वारुण्यां षट्पदं मित्रम् वायव्यां रुद्ररुद्रदासौ पदिको उत्तरस्यां पट्पदं धराधरं इति आपवत्सादिक्रमेण दूर्वादध्यक्षतादिभिः सम्पूज्य ईशानादिदिक्षु चरकी स्कन्दा विदारी अर्थमा ललना जम्भा पूतना पापराक्षसी पिलिपिच्छान्तैर्च हिर्देवताष्टकं पूजयेदिति । एकाशीतिपदे गृहवास्तौ मध्ये ब्रह्मा नत्रपदे मरीचाद्याः षट्पदा ईशानाद्याः आपचन्द्राद्या द्विपदाः पदिकावहिर्देवताश्च पूर्ववत्वत्स रक्षादिकं चेति एवं वास्तु सम्पूज्य मर्माणि परिहृत्य शिलाप्रतिष्ठादिकं विदध्यात् ।
|| शिलाप्रतिष्ठाविधि समाप्तः ॥
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शिलान्यास विधि.
॥२२॥
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॥६॥ अथ प्रतिष्ठाविधिः ॥ तत्र पादप्रतिष्ठाविधिः ॥ तत्र स्थाप्यस्य जिनविम्बादेर्भद्रपीठादौ विधिना न्यसनं प्रतिष्ठा । तस्याश्च स्थापकत्रयं शिल्पी १ इन्द्रः २
आचार्य ३ श्चेति । ॥२३॥
तत्राद्यः सर्वाङ्गावयवरमणीयः क्षान्तिमार्दवार्जवसत्यशौचसम्पन्नः मद्यमांसादिभोगरहितः कृतज्ञो विनीतः शिल्पी सिद्धान्तवान् विचक्षणः धृतिमान् विमलात्मा शिल्पिना प्रधानो जितारिषड्वर्गः कृतकर्मा निराकुल इति ।
इन्द्रोऽपि विशिष्टजातिकुलान्वितो वा कान्तशरीरः कृतज्ञो रूपलावण्यादिगुणाधारः सकलजननयनानन्दकारी सर्वलक्षणोपेतो देवतागुरुभक्तः सम्यक् रत्नालङ्कृतः व्यसनासङ्गपराङ्मुखः शीलवान पञ्चाणुव्रतादिगुणयुतो गम्भीर सितद्कूलपरिधानः कृतचन्दनाङ्गरागो मालतीरचितशेखर कनककुण्डलादिभूषितशरीरस्तारहारविराजितवक्षस्थलः स्थपतिगुणान्वितश्वेति २।
मूरिश्चार्यदेशसमुत्पन्नः क्षीणप्रायकर्ममलो ब्रह्मचर्यादिगुणगणालकृतः पञ्चविधाचारयुतो राजादिनामद्रोहकारी श्रताध्ययनसम्पन्नः तत्त्वज्ञो भूमिगृहवास्तुलक्षणानां ज्ञाता दीक्षाकर्मणि प्रवीणो निपुणः सूत्रपातादिविज्ञाने स्रष्टा सर्वतोमद्रादिमण्डलानामसमः प्रभावे आलस्यवर्जितः प्रियंवदो दीनानाथवत्सलः सरलस्वभावो वा सर्वगुणान्वितश्चेति ।
सच षष्ठाष्टमादितपोविशेष विधाय कारापकानुकूले लग्ने हस्तादारभ्य नवहस्तान्तानां प्रतिमानामाद्यासु तिसृषु अष्टनवदशहस्तं इतरासु चतुर्हस्तादिप्रतिमासु हस्तद्वयवृद्धथा, यद्वा एकहस्तादिक्रमेणैव द्वादशद्विहस्तवृद्धया TI
| ॥२३॥
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निर्वाण
प्रतिष्ठा
कलिका.
विधि.
॥२४॥
प्रागेव मण्डपं प्रासादस्याग्रतः कारयित्वा तस्य प्राच्यामीशान्यां वा स्नानमण्डपमधिवासनामण्डपार्धेन निवेश्य लघुप्रतिमासु पश्चषट्सप्तहस्तानि तोरणानि इतरासु च वसुवेदाङ्गुलाग्र णि न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षद्रमसमुद्भवानि पूर्वादारभ्य शान्तिभूतिवलारोग्यसंज्ञकानि तोरणान्यस्त्रशुद्धानि वर्मावगुण्ठितानि प्रणवेन विन्यस्य हृन्मन्त्रैः स्वनामभिरभ्यर्च्य तच्छाखयोर्मेघमहामेघौ कालनीलौ जलाजलौ अचलभूलितौ ह्यणवादिस्वाहान्तः स्वनामभिः सम्पूज्य, ततो द्वारेषु कमलश्वेतइन्द्रप्रायरक्तकृष्णनीलमेघपीतपद्मवर्णाः पताकाश्च दवा मध्ये श्वेतचित्रे वा ध्वजे सम्पूज्य पाश्चात्यद्वारेण प्रविशेत् ।
ततः पश्चिमायां पूर्वाभिमुखो वा मण्डपनिरीक्षणप्रेक्षणताडनाभ्युक्षणावकिग्णपूरणसमीकरणसेवनाकुट्टनसन्मार्जनोपलेपनाचक्रीकरणान्तैः कर्मभिः स्वस्वमन्त्रोपेतैः संस्कृत्य चन्दनच्छटाभिः सम्प्रोक्ष्योज्ज्वलस्वच्छभूतान्विचिन्तयन् विनिक्षिप्य पुनस्तान् दर्भकूर्चिकया समाहृत्य मण्डपस्य मध्ये यवारकोपशोभितां छत्रचामरभृङ्गारकलशध्वजणव्यजनसुप्रतीकाष्टमङ्गलकान्वितां वेदी संस्थाप्य, ततो वासुकिनिर्मोकलघुनी प्रत्यग्रवाससी दधानः कराङ्गुलीविन्यस्तकाञ्चनमुद्रिका प्रकोष्ठदेशनियोजितकनककङ्कणः तपसा विशुद्धदेहो वेदिकायामुदङ्मुखमुपविश्य भूतशुद्धिं विधाय सकलीकरणापात्रं कृत्वा इन्द्रादीनां कवचं विधाय सत्पुष्पाक्षतगन्धधूपपक्कानपनोहरं सर्वविघ्नशान्तये स्वयमाचार्य इन्द्रादिमृतिधरैः सह सर्वासु दिक्ष बलि प्रक्षिप्य क्षेत्राधिपं पुष्पधूपाक्षतनैवेद्यदीपादीना सम्पूज्य हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्य कृताचमनो वेदिकायामुपविश्य पञ्चवणेन रजसा स्वर्णवाहनायुधालङ्कृतान् लोकपालान् संलिख्य दधिदुर्वाक्षतादि
K॥२४॥
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॥२॥
भिर्वाहनायुधसमन्वितान् सम्पूज्य अनन्तरं मण्डपा बहिः कुमुदाञ्जनचमरपुष्पदन्ताभिधानान क्षेत्रपालान पूजयेत् ।
ततो हेमाद्येकतमं कुम्भमानीय गालिताम्भसा प्रर्य संहृतविकारेष्वासनं दत्त्वा तत्र मूर्तिरूपं कुम्भ विन्यस्य सागं जिनेशं सम्पूज्य पूर्वद्वारि प्रशान्तशिशिरो। दक्षिणे पर्जन्याशोकौ । पश्चिमे भृतसंजीवनामृतौ । उत्तरे धनेशश्रीकुम्भौ सवस्त्रौ स्रक्सूत्रकण्ठौ सहिरण्यौ चूताश्वत्थदलभूषितवक्त्रौ बीजपूरादिफलसहितौ नन्दादिद्वाराधिष्ठितौ सम्पूज्य यथाक्रमं स्वस्वदिक्षु इन्द्रादिधरणेन्द्रान्तं लोकपालाधिष्ठितं कुम्भदशकम् ततोऽखण्डधारया भृङ्गारेण सह कुम्भमाभ्राम्य भो भोः शक्र यथा स्वस्यां दिशि विघ्नप्रशान्तये सावधानेन स्नानान्तं यावद्भवितव्यमिति ।
अनेन क्रमेण लोकपालान् सम्बोध्य । तत: स्नानमण्डपं दुग्धदाधिसपिश्चन्दन कुकुम सुमनसो धूपं तथा रत्नानि मृत्तिकाः कषायादिकं प्रतिष्ठोपयोगकारकवातं तथा रत्नफलसस्यौषधीअष्टवर्गादिसंज्ञकान् कुम्भान्विन्यस्य अस्त्रप्रोक्षितान् कवचावगुण्ठितान् स्वसंज्ञाभिरभ्यर्च्य क्षीरदधिसर्पिरिचुसमुद्ररूपान् परिकल्प्य बहिरन्यानपि कुम्भान् संस्थाप्य लोकपालायुधाङ्कितं शिलानवकं पञ्चकं वा तासु कलशोयतं सम्पनीय स्नानमुपक्रमेत् ।
सप्तधान्येन रस्तसमूहेन मृद्भिः कपायवर्गेण मूलिकाभिरष्टवर्गणोदकान्तम्चन्दनेन तीर्थाम्भोभिः पञ्चगव्यादिना संस्नाप्य रक्तवस्त्रैराच्छाद्य मण्डपं प्रदक्षिणीकृत्य पाश्चात्यद्वारेण प्रवेश्य वेदिकायां संस्थाप्य अधिवासनामन्त्रेणाधिवास्य पुष्पवासधूपादिभिः सम्पूज्य मुद्रान्यासं कृत्वा धर्माभिजप्तवासपा संच्छाद्य नैवेद्यं दत्वा अहंदादीनि पञ्च तत्वानि विन्यस्य क्षमाप्ने जोवाताकाशगन्धरसरूपस्पर्शराब्दोपस्थपायुपादपाणिवाक्नासिकाजिह्वाचक्षुस्त्वक्श्रोत्रमनोऽहकारवुद्धय
॥२
॥
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निर्वाण
कलिका.
॥२६॥
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इति निष्ठुरया संनिरोध्य शिलां पूजयेत् । पूर्वादिशिलासु च तत्त्वानि सर्वाणि विन्यस्य निरोध्य पूजयेत् ॥
अथ शिला कुम्भनामानि-नन्दा भद्रा जया रिक्ता चेति हस्तप्रमाणा अष्टाङ्गुलोच्छ्रिताः स्वस्तिकाङ्किताः शैलमये शैलमयाः इष्टिकामये तन्मयाः पद्म- महापद्म - शङ्ख-परकत - समुद्राख्याः कुम्भा इति पञ्चमूर्तिपक्षः । नवपक्षे तु सुभद्र - विभद्र - सुदन्त - जय - विजय - पूर्व - उत्तर - संज्ञकाः शिलाः । सुनन्दा भद्रा जया पूर्णा अजिता विजया मङ्गला धरणीसंज्ञकाः मध्यस्था ब्रह्मरूपिणीति ।
ततः शिलां कुम्भश्चादाय प्रासादस्थानमागत्य गर्तासु ॐ अहं जिनाय नमः इति मध्यमगर्तायां कुम्भं विन्यस्य लग्नकाले सिद्धशक्ति विन्यस्य संचिन्त्य ॐ ह्रां (ह्रौं ) जिनाय स्वाहेति मन्त्रमुच्चार्य नमस्कारेण शिल निवेशयेत् ।
ततः पूर्वादिगर्तासु सिद्धानां शक्ति विन्यस्य तदनन्तरं । ॐ हूं इन्द्राय नमः । ॐ अग्नये नमः । ॐ सूं यमाय नमः । ॐ षू नैर्ऋतये नमः । ॐ वू (ब्लु) वरुणाय नमः । ॐ गू ं वायवे नमः । ॐ यूं कुबेराय नमः । ॐ हूं ईशानाय नमः । ॐ नागाप नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । इति लोकेशमन्त्रेताम्रमयकुम्भान् घृतमधुपूरितान् कृतकसूत्रकण्ठान् विन्यस्य तेषामुपरि शिलाः संस्थाप्य धर्मादिचतुष्कं अधर्मादिचतुष्कं च शिलानामधिष्ठायकत्वेन विन्यस्य विशेषतः पूजां विधाय ततः संघादिकं पूजयेदिति । पादकास्ते तु संकल्पाः प्रासादस्य तु देशिकैः । सिद्धशक्ति तु संयोज्य व्योमप्रासादमध्यगाम् ।।
॥ इति पादप्रतिष्ठा प्रथमा ॥
पादप्रतिष्ठा प्रथमा
॥ २६ ॥
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॥२७॥
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||७|| अथ द्वारप्रतिष्ठाविधिः ॥
तत्र पूर्ववत् द्रव्यत्रातमाहृत्य द्वारपालपूजादिकं कर्म कृत्वा द्वाराङ्गानि कषायादिभिः संस्नाप्य रक्तयुग संछाद्य मण्डपमध्ये वेदिकायामारोप्य अध औदुम्बर आयान्तं चमाप्तेजोवा ताकाश गन्धरसस्पर्शशब्दोपस्थपा पादपाणि वाक्प्राणजिह्वा चतुस्त्वकश्रोत्रमनोहङ्कार बुद्धिराग विद्याकला नियतिकालमायेति तत्र वातमारोप्य गन्धपुष्पाक्षतादिभिः सम्पूज्य स्वमन्त्रेणाधिवास्य द्वारदेशे वास्तु सम्पूज्य रत्नादिपञ्चकं विन्यस्य प्रणवासनं दत्वा सूरिः स्वमन्त्रेण लग्नवेलायां द्वारं विन्यस्य यवसिद्धार्थकक्रा(का) न्ता ऋद्धिवृद्धयमृत मोहन गोशृङ्गमृद्वरोत्पलकुष्ठतिलाभिषवलक्ष्मणा। रोचना सह देवी दधिदुर्वे ति द्रव्यसमूहं विचित्र काटे बद्ध्वा ऊर्ध्वोदुम्बरे यशश्रियं चात्मनो दक्षिणवामशाखयोः कालगगे महाकालयमुने विन्यस्येदिति देवताषट्कं जिनाज्ञया संनिरोध्य दूर्वादध्यक्षतादिभिः सम्पूजयेत् । पूर्ववत् शान्तिवलिं दत्वा भगवन्तं सम्पूज्य सङ्घ प्रपूजयेत् ।
॥ इति द्वारप्रतिष्ठा द्वितीया ॥
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निर्वाणकलिका.
||२८||
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||८|| अथ बिम्बप्रतिष्ठाविधिः ॥
तत्र पूर्ववत् मण्डपद्वयं कृत्वा कारकसमूहमाहरेत् सुवर्णरजतताम्रमयं मृन्मयं वा स्नानार्थं कलशाष्टकम् | आद्य म्भचतुष्कम् । वारकाणामष्टोत्तरशतं चतुरङ्गो वेदी मल्लकानां पञ्चाशत् वेणुयववारकान् शरावप्ररूढाश्च स्थपतिकुम्भं ।
यवत्रीहिंगोधूमतिलमाषमुद्गवल्लचणकपसूरतुवरीवणची जनीवारश्यामका दिधान्यवर्गः ॥ १ ॥ वज्रसूर्यकान्तनीलमहानीलमौक्तिकपुष्परागपद्मरागवैडूर्यादिरत्नवर्गः ॥ २ ॥ हेमरजतताम्र कृष्ण लोहत्रपुरीतिकाकांस्य सीसकादिलोहवर्गः ॥ ३ ॥ न्यग्रोवोदुम्बराश्वत्थ चम्पकाशोक कडम्बाम्रजम्बूकुलाजु 'नपाटलावेत सकिंशुका दिकषायवर्गः ॥ ४ ॥ वल्मीकपर्वताग्रनद्युभयतट महानदी संगमकुशवित्वमूलचतुष्पथदन्तिदन्तगोशृङ्गराजद्वारपद्मसरएकवृक्षादिमृत्तिकावर्गः ॥ ५ ॥ गङ्गायमुनामहीनर्मदा सरस्वती तापी गोदावरीसमुद्रपद्म सरस्ताम्रपर्णी नदीसङ्गमादिपानीयवर्गः ॥ ६ ॥ सहदेवीजया विजयाजयन्ती अपराजिताविष्णुक्रान्ताशङ्खपुष्पी बला अति चला हेमपुष्पी विशाला नाकुलीगन्धनाकुली सहवाराही शतावरी मेदामहामेदा काकोली क्षीरकाकोलीकुमारीवृहतीद्वयं चक्राङ्कामयूर शिखा लक्ष्मणादूर्द्धादर्भपतंजारीगोरम्भारुद्रजटालज्जालिकामेषशृङ्गी ऋद्धिवृद्धा द्योषधिवर्गः ॥ ७ ॥ प्रियङ्गुवचारोत्रयष्टीमधुकुष्ठ देवदारु उशीर का द्विवृद्धिशतावरीप्रभृत्यष्टकवर्गः ॥ ८ ॥ बालकामलकजा तिपत्रिकाहरिद्राग्रन्थिपर्णकमुस्ताकुष्ठादिसर्वोषधिवर्गः ॥ ९ ॥ सिल्हककुष्ठकमासीमुरमांसीश्रीखण्डा गुरुकर्पूरनखपूतिकेशादिगन्धवर्गः ॥ १० ॥
बासाश्रीखण्ड कुङ्कुम कपूरमुद्रिका कङ्कण मदनफलानि रक्तसूत्रं ऊर्णासूत्रं लोहमुद्रिका ऋद्धिवृद्धियुतं कङ्कणं मालिकातर्कका शिलागोरोचनाश्वेत सर्षपासितयुगाद्वयं पट्टाच्छादनं पटलकानि घण्टा : धूपदहनकानि रजतव (प )ट्टिकां
विवप्र.
विधि.
||२८||
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क
॥२६॥
सुवर्णशलाका कांस्यवट्टिका आदर्शः नालिकेरवीजपूरककदलकनारङ्गाम्रजम्बूकूष्माण्डयन्ताकामलकरदरादिप्रशस्तफलवर्गः। पूगीफलनागवल्लीदलानि मातृपुटिकानां शतमष्टोत्तरम् । अखण्डतण्डुलाना सेतिका इचयष्टिका पुष्पाणां चय इति प्रचुरमानीयोत्तमवेदिकाय कारकजातं विन्यस्य हस्तशतप्रमाणायां भुवि जीवरक्षादिना क्षेत्र शुद्धि विदध्यात् । तथाचोक्तम् ॥ 'काउ' खेत्तविसुद्धि मङ्गलकोउयजुयं मणभिरामम्। वत्थु जत्थ पदहा कायव्वा वीयरायस्स ॥१॥
इति तदनु पूर्ववत मण्डपप्रदेश विधाय ततो मङ्गलार्थमादौ चैत्यवन्दनं शान्त्यर्थ देवतानां च कायोत्सर्गाणि कृत्वा तदनु वेदिकायामुपविश्य ॐ नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उपज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहणं ॐ नमो सम्वोसहिपत्ताणं ॐ नमो विजाहराणं ॐ नमो आगासगामीण ॐ कंक्षं नमः अशचिः शचिर्भवामि स्वाहेति पश्चसप्तवारा सुरभिमुद्रया शुवित्तपादनायात्मनि शुचिविद्या विन्यस्य श्रीपदहदादिमन्त्रैरात्मनो रक्षां कुर्यात् । तथाचागमः॥ 'सुइविजाए सुइणा पंचंगाबद्धपरियरेण चिरा । निसिऊण जहाठाणं दिसि देवयमाइए सब्वे ॥१॥ एवं सन्नद्धगत्तो य सुइ दक्खो जिइदिओ। सियवस्थपाउरंगो पोसहिओ कुणइ अ पइहम ॥२॥
१. कृत्वा क्षेत्रविशुद्धि मङ्गलकौतुकयुतं मनोभिरामम् । वस्तु यत्र प्रतिष्ठा कर्तव्या वीतरागस्य ।।१।। २. शुचिविद्यया शुचिना पंचंगाबद्धपरिक रेण चिरात् । न्यस्य यथास्थानं दिशि देवतादिकाः सर्वे ॥१॥ एवं संनद्धगात्रश्च शुचिर्दशो जितेन्द्रियः । रि.तवस्त्रप्रावृताङ्गः पौषधिकः करोति च प्रतिष्ठाम् ।। २ ।।
॥२६॥
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निर्वाणकलिका.
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ततश्च श्रद्धायुक्तं शुचितपसा शुद्धदेहं शेखरकटक केयूर कुण्डल मुद्रिका हा वै कक्षा दिपोडशाभरणोपेतं देवस्य दक्षिणभुजाश्रितमिन्द्रं परिकल्पयेत् । उवतंच
1
'उइयदिशासु विणिवेसियस्स दक्खिणभुयाणुमग्गेण । उत्तमसियवत्थविनसिएणं कयसुकयम्मेणं ॥ १॥ तदनन्तरमिन्द्रस्य मन्त्रमयं कवचं कृत्वा ॐ नमो अरिहन्ताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो आगासगामोणं नमो चारणाइलडोणं जे इमे किंनर किंपुरिसम होर गगरुल सिद्धगन्धव्वजक्खरक्खसभूय पिसायडाइणिपभइ जिणघरणिवासिणो नियनियनिलयाडया य विचारिणो सन्निहिया
सन्निहियाय ने सव्वे विलेषणपुष्पधूव पईव सणाहं बलिं परिच्छन्तु तुट्ठिकरा भवन्तु सिवंकररा भवन्तु सन्तिकरा भवन्तु सत्ययणं कुणन्तु सव्वजिणाणं संनिहाणं भावओ पसन्नभावेण सव्वस्थ रक्खं कुणंतु सव्वदुरियाणि नासन्तु सव्वासिवं उवसमन्तु सन्तिपुट्ठितुट्ठिसिवसत्ययगकारिणो भवन्तु स्वाहेत्यादिमन्त्रेण विघ्नोच्चाटनाथ भूतबलि प्रक्षिपेत् ।
ततः प्रतिमाकोणेषु स्रक्वत्र फलान्वितान् चतुःकुम्भानू संस्थाप्य ॐ ह्रां ललाटे । ॐ ह्रीं वामकर्णे । ॐ ह्र दक्षिण कर्णे । ॐ ह्रौं शिरसि पश्चिमभागे । ॐ ह्रः मस्तकोपरि । ॐ क्ष्मां नेत्रयोः । ॐ क्ष्मीं मुखे । ॐ क्ष्म् कण्ठे । ॐ क्ष्मौं हृदये । ॐ क्ष्मः बह्वोः । ॐ क्रीं उदरे । ॐ ह्रीं कटयां । ॐ ह्रीं जङ्घयोः । ॐ क्ष्मू पादयोः । १. उचितदिशासु विनिवेशितस्य दक्षिणभुजानुमार्गेण । उत्तमसितवस्त्रविन्यसितेन कृतसुद्धत कर्मणा ।।१।।
विवप्रतिष्ठा विधिः
॥३०॥
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॥३१॥
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ॐ 'क्ष्मः हस्तयोरिति कुङ्कुम श्रीखण्डकपूरादिना चक्षुः प्रतिस्फोटादिनिवारणाय प्रतिमायां विलिखेत् ।
तदनु ॐ हूं क्षू फुट् किरिटि किरिटि घातय घातय परविघ्नानास्फोटयास्फोटय सहस्रखण्डान् कुरु कुरु परमुद्रां छिन्द हिन्द परममन्त्रान् भिन्द भिन्द क्षः फट् स्वाहेत्यनेन श्वेतसर्षपान् परिक्षिप्य दिग्बन्धाय पूर्वादिकाष्टासु विनिक्षिप्य तदनु चाचार्यश्चतुरः कलशान् गालिताम्भसा प्रपूर्य पुष्पाक्षतादिभिः सम्पूज्य मन्त्र लभ्य स्थपतिं च वस्त्रालङ्कारनाम्बूलादिना संपूज्य मुद्रितं कलशं समर्प्य शेषांश्चेन्द्रादीनां समप्येष्ट | शसमये सूत्रधारकलशपुरःसरां प्रतिमां स्नापयेत् ।
॥ इति प्रथमं कलशस्नानम् ॥
ततः सप्तधान्यरत्नमृत्तिकाकषायोपधिअष्टवर्ग सर्वौषधिपञ्चामृतगन्धवासचन्दन कुङ्कुम कपूरतीर्थोदकादियुक्तैः स्त्रस्वमुद्राभिमन्त्रितैः कुम्भैः स्नापयेदिति ॥ अत्र स्नान मन्त्राः |
ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते महाभूते आ ४ जलं गृह गृह स्वाहेति प्रथमस्नानपट्कस्यायं मन्त्रः । ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते पृथु विपृथु विपृथु गन्धं गृह गृह स्वाहेत्यष्टवर्गादिस्नान समूहस्यायं
मन्त्रः ।
१. क्षः पाठान्तरम् ।
॥३१॥
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निर्वाण
कलिका.
॥३२॥
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ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते मेदिनि पुरु पुरु पुष्पवति पुष्पं गृद्ध गृह स्वाहेति समस्तस्नानान
पुष्पमन्त्रोऽयम् ।
ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते दह दह महाभूते तेजोधिपतये धूपं गृह गृह स्वाहेति समस्तस्नानानां धूपमन्त्रोऽयम् ।
देवाशुद्धिं विधाय परमेष्ठिमुद्रया प्रतिमायां भगवन्तमावाहयेत् । ॐ नमोऽर्हत्परमेश्वराय चतुर्मुखपरमेष्ठिने त्रैलोक्यनताय अष्टदिक्कुमारीपरिपूजिताय देवाधिदेवाय दिव्य शरीराय त्रैलोक्यमहिताय आगच्छ आगच्छ स्वाहा । ततोऽभिमन्त्रितचन्दनेन प्रतिमां सर्वाङ्ग समालिप्य अञ्जलिमुद्रया पुष्पाण्यधिरोप्य धूपं चोद्ग्राह्य वासान् प्रक्षिप्य श्वेतवाससा प्रच्छाद्य मूलमन्त्रेण संपूज्य हृदये संस्थाप्य मण्डपं प्रदक्षिणीकृत्य हिरण्यकस्वरत्नकरम्वकपर्दकप्रक्षेपपूर्वकं नीत्वा मण्डपाग्रे हृदये रथात्समुत्तार्य पश्चिमद्वारेण मण्डपं प्रवेश्य भद्रपीठे संस्थाप्य अग्रतः पीठिकायां नन्दावर्ताख्यमण्डले मन्त्रान् सम्पूजयेत् ।
तत्र चन्दनानुलिप्ते श्रीपर्णीफलके पूर्ववत् चतुरस्र क्षेत्रं संसाध्य ब्रह्मस्थानात् सूत्रभ्रमेण सप्तवृत्तानि कृत्वा प्रथमवृत्ते तद्वृत्तप्रमाणां कर्णिका तन्मध्ये नवकोणं नन्दा (न्या) वर्त, पूर्वादिदिक्षु वज्रयवाङ्कुश सुमनोदामानि च लिखित्वा । ततो द्वितीयवृत्ते मूलमध्याग्रेषु शुक्लरक्तपीतं केसरजालं चतुर्विंशतिमायुतं तृतीयादिवृतेषु चतुर्विंशतिषोडशाष्टपत्रसंख्यया क्रमेण पद्मानि च निष्पाद्य आग्नेयनैऋ' तवायव्येशानासु द्वादशगणा विलिखेत् ।
विवप्रतिष्ठा विधि.
।'३२॥
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॥३३॥ |
बहिश्चतुर्दागन्वित प्राकारत्रयं श्रीशान्तिभूतिबलारोग्यसंज्ञकैस्तोरणैरलकृतं धर्ममानगजसिंहध्वजः समन्वितमालिख्यानन्तरं प्रथमप्राकारपूर्वादिद्वाराभ्यन्तर उभयपावें कनकपीतसितारक्तकृष्णवर्णानि वैमानिकव्यन्तरज्योतिष्कभवनपतिदेवानां युगलानि प्रथमप्राकारद्वारपालान् खड्गदण्डधनुःपरशुसमन्वितान सोमयपवरुणकुबेराख्यान्मध्ये च यष्टिहस्तं तुम्बुरुदेवं विलिख्य ।
ततो द्वितीयप्राकारद्वारेषु जया विजया अजिता अपराजिताभिधाना द्वारपालीः तृतीयप्राकारद्वारेषु तुम्बरु चाभिलिख्य तदनु द्वितीयप्राकारान्तरे तिरश्चः तृतीयप्राकारान्तरे वाहनानि बाह्यभूमौ मनुष्यदेवानालिख्य । चतुद्वारोभयपाश्र्वेषु पधिनीखण्डमण्डिताः पुष्करिणीविलिखेत् ।
ततो वज्रलाञ्छितमिन्द्रपुरं दत्वा दिक्षु परविद्या क्षः फुट कोणेषु परमंत्रा क्षः फुट चतुकोणेषु पद्मासनानि समारोप्य पद्मपिधानांश्चतुरो मङ्गलकलशान् लिखित्वा बाह्य वायुभवनं दद्यात् । इत्येतत्सर्व कपूरगोरोचनामृगमदमिश्रेण कुङ्कुमरसेन काश्चनतूलिकया सन्मण्डल बिलिखेत । ___तदनु तन्मध्यकर्णिकायां भगवन्तमावास पुष्पाक्षतचन्दनादिभिः सम्पूज्य पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरासु सिद्धादिचतुकं आग्नेयनैऋतवायव्यैशानेषु ज्ञानादिचतुष्कं च पूजयेत् ।
ततो दक्षिण भागे देवस्य शकश्रुतदेवते उत्तरतश्चेशानशान्तिदेवते सम्पूज्य केसरेषु मातृगणं प्रणवादिनमोन्तं सम्पूजयेत् ।
॥३३॥
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निर्वाणकलिका.
पादप्रतिष्ठा प्रथमा
॥३४॥
।
॥३४॥
, तदनु पत्रेषु जयादिदेवता चतुष्टयमाग्नेयादिषु जम्भादिदेवतागणं बहिश्चतुर्विशत्यब्जपत्रेषु लोकान्तिकदेवतागणं अनन्तरपोडशपत्रेषु विद्यापोडशकपभ्यर्च्य । उपरितनपद्मद्वये क्रमेण वैमानिकदेवान सदेवीकान् दिक्पालांश्च सम्पूज्य ततो द्वादशगणादिकपशेषमपि देवतागणं मण्डलध्धजतोरणादिकं च पुष्पाक्षतादिभिरभ्यर्चयेत् । तथाचोक्तम्
मझे य नसेयन्वं नन्दावज्ज जवं कुसं सुमणम । तस्सोवरि दुविजा पतिमा देवस्स इत्था(च्छा)ए ॥१॥ मज्झे निरक्षणजिणो पुञ्चावरदाहिणोत्तरदिसासु। तह सिद्धसुरूवझायसाहसुह- रयणतियनासो ॥२॥ केसरनिलये वह मायरो य मरुदेवि विजय सेणा य| सिहत्था तह मङ्गलसुसीमपुहवी य लकवणया ॥ ३ ॥ रामा नन्दा विण्हू जयसामा सुजस सुव्वया अइरा । सिरि. देवी य पहावइ तत्तो पउमावई वप्पा ॥४॥ सिव वम्मा तिसलावि य मायाए नामरुवा उ । ॐ नमो पुव्वं अन्ते साह त्ति तो य वत्तव्वम् ॥ ५॥ लोयंतियदेवाणं तत्तो चउवीसपरिगणो नमिउं । * मध्ये च न्यासयितव्यं नन्दा (वर्त) व यवमङ्कुशं सुमनः । तस्योपरि स्थापयेत् प्रतिमां देवस्य इच्छया ॥१॥
मध्ये निरञ्जनजिनः पूर्वापरदक्षिणोत्तरदिशासु । तथा सिद्धसूर्युपाध्यायसाधुशुचिरत्नत्रयन्यासः ।। २॥ केसरनिलये तथा मातरश्च मरदेवी विजया सेना च । सिद्धार्था तथा मङ्गला सुसीमा पृथ्वी च लक्ष्मणा । ३ ।। रामा नन्दा विष्णुर्जया श्यामा सुयशाः सुव्रता अचिरा। श्रीदेवी च प्रभावती तत: पद्मावती वप्रा ।। ४ ।। शिवा वामा त्रिशलापि च मातृणां नामरूपाणि तु। ॐ नमः पूर्व अन्ते स्वाहेति ततश्च वक्तव्यम् ।। ५ ।। लोकान्तिकदेवानां ततश्चतुर्विशतिपरिगणं नत्वा । स्वमन्त्रैविधिना षोडश विद्यागणश्च ततः ।। ६ ।।
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सगमंतेहिं विहिणा सोलसवितागणो य तओ॥ ६॥ पुथ्वोत्तराईम रोहिणीपन्नत्ती वजसंकला तह य । वज्जंकुशी य अप्पडिचक्का तह पुरिसदत्ता य ॥ ७॥ काली य महाकाली गौरी गन्धारो जालमाला य । माणवि वइरोहातच्छुत्ता माणसि महामाणसी चेव ।। ८॥ वेमाणिधा य देवा तभी य चउव्विहा सदेवीया। इंदाइ दिसाइवई नसेज नियएहिं मंतेहिं ।। १।। दारे य ठाई सोमो यमवरुणो य तह कुबेरो य । हत्थेसु य रहउ धणुदण्डपासगयगाहिणो तहय ।।१०।। सक्को य जिणासन्नो णाणादेवो जहोइया वारे । पडिहारोवि य तुबरु मंतो य णमो तओ साहा || एव नसिउ' सव्वं पुज्जे विविहगन्धमल्लेहिं । नसियन्वो पञ्चगो मंता पडिमा य जत्तेणं ॥१२॥ इति ।
॥३५॥
पूर्वोत्तरादिषु रोहिणी प्रज्ञप्तिर्वचलला तथा च । वजाङकुशी च अप्रतिचक्रा तथा पुरुषदत्ता च ।। ७ ।। काली च महाकाली गौरी गन्धारी ज्वालामाला च । मानवी वैरोटया अच्छुप्ता मानसी महामानसी चैव ॥८॥ वैमानिकाच देवास्ततश्च चतुर्विधाः सदेवीकाः। इन्द्रादिदिशाधिपतीन्यसेत् निजमन्त्रैः ॥ ९ ॥ द्वारे च तिष्ठति सोमः यमो वरुणश्च तथा कुबेरश्च । हस्तेषु च रचयित्वा धनुर्दण्डपाशगदाग्राहिणस्तथा च ।।१०।। शक्रश्च जिनासन्नो नानादेवा यथोदिता द्वारे । प्रतिहारोप च तुम्बरुः मन्त्रश्च नमस्ततः स्वाहा ।। ११ ।। एवं न्यस्य सर्व पूजयित्वा विविधगन्धमाल्यैः । न्यासयितव्यः पञ्चाङ्गो मन्त्रः प्रतिमा च यत्नेन ।। १२ ॥
॥३५॥
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निर्वाणकलिका.
॥३६॥
अथ नन्दावत्तपूजामन्त्राः। ॐ नमो अर्हते जिनाय रजोद्दननायाऽघोरस्वभावाय निरतिशयपूजार्हाय अरुहाय भगवते हा अर्हत्परमेष्ठिने । विवप्रतिष्ठा स्वाहा।
विधि. ॐ नमः स्वयम्भुवे अजराय मृत्युञ्जयाय निरामयाय अनिधनाय भगवते निरञ्जनाय ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने स्वाहा । ॐनमः पञ्चविधाचारदिने तदाचरणशीलाय तत्प्रवर्तकाय हूँ. आचार्यपरमेष्ठिने स्वाहा । ॐनमो द्वादशाङ्गपरमस्वाध्यायसमृद्धाय तत्प्रदानोधताय ह्रौं उपाध्यायाय ब्रह्मणे स्वाहा । ॐनमः स्वर्गापवर्गसाधकाय हः साधुमहात्मने स्वाहा ।। पञ्चपरमेष्ठिजामन्त्राः।
ॐनमः परमाभ्युदयनिःश्रेयसहेतवे ज्ञानाय नमः । रत्नत्रयादीनां मन्त्राः ।
ॐनमः शुचित्वापादिकायै शुचिविद्यायै स्वाहा । ॐनमः सौधर्मकल्पोत्तरस्थितये ऐरावतवाहनाय वज्रपाणिशचीपतिविबुधाधीशभास्वकिरीटप्रच्युतिसमनन्तरापवर्गभाक्शक्राय स्वाहा । ॐ नमो दक्षिणपार्थासीनधवलमूर्तिवरदपद्माक्षसूत्रपुस्तकालंकृतानेकपाणिद्वादशाङ्गश्रुतदेवाधि(दि)देवते सरस्वत्यै स्वाहा । ॐ नमो ईशानकल्पोत्तरस्थितये गजवाहनसदेवीकदिव्यायुधपाणिदेवाधीशकनककिरीटोद्भासिने ईशानाय स्वाहा । ॐ नमो वामपार्थासीन धवलद्युतिवरदकमलपुस्तककमण्डलुभूषितानेकपाणिसकलजनशान्तिकारिक शान्तिदेन्यै स्वाहा । ॐ नमो दिव्यरत्नात्मने नन्दावर्ताय स्वाहा । ॐनमः सर्वरचाविधायिने बजाय स्वाहा । ॐ नमो जयाभ्युदयात्मने यवाय स्वाहा । ॐ नमः समस्तविघ्न
॥३६॥
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॥३७॥
विनाशकाय अङ्कशाय स्वाहा । ॐनमो मङ्गलात्मने सुमनोदामाय स्वाहा । इति शक्रादीनां मन्त्राः।
ॐ नमो मरुदेव्यै सपुत्रिकायै स्वाहा । इत्यादिमातृकादिगणमन्त्राः।
ॐ नमः पूर्वोत्तरादिनिवासिभ्यः सारस्वतेभ्यः स्वाहा १ । ॐनमः पूर्व दिगनिवासिभ्य आदित्येभ्यः स्वाहा । ॐ नमः पूर्वदक्षिणदिगनिवासिम्यो वह्विभ्यः स्वाहा ३।ॐ नमः दक्षिणदिनिवासिम्यो वरुणेभ्यः स्वाहा ४ॐ नमो दक्षिणापरदिगनिवासिम्यो गर्दतोयेभ्यः स्वाहा ५। ॐ नमो अपरदिगनिवासिभ्यस्तुषितेभ्यः स्वाहा । ॐ नमो अपरोत्तरदिगनिवामिभ्योऽव्याबाधेभ्यः स्वाहा ७ । ॐनम उत्तरदिगनिवासिभ्योऽरिष्टेभ्यः स्वाहा ८। ॐ नमः सारस्वतादित्यान्तरनिवासिअग्न्यामह । सूर्याभेभ्यः स्वाहा १०। ॐ नमः आदित्यवह्वयन्तरनिवासिचन्द्राय स्वाहा ११ । सत्यामेभ्यः स्वाहा १२ । ॐ नमो वहिवरुणान्तरनिवासिश्रेयस्कर १३ । क्षेपकरेभ्यः स्वाहा १४ । ॐ नमो वरुणगदेतोयान्तरनिवासिवृषभाम १५ । कामचारेभ्यः स्वाहा १६ । ॐ नमो गर्दतोयतुषितान्तरनिवामिनिर्माणराजो १७ । दिशान्तरक्षितेभ्यः स्वाहा १८ । ॐ नमस्तुषिताच्यावाधान्तरनिवास्यात्मरक्षित १६ । सर्वरक्षितेभ्यः स्वाहा २० । ॐ नमो अव्यायाधारिष्टान्तरनिवासिमरु २१ । वसुभ्यः स्वाहा २२। ॐ नमो अरिष्टसारस्वतान्तरनिवास्यश्व २३ । विश्वेभ्यः स्वाहा २४ । एते चतुर्विशतिनिकाये लोकान्तिकदेवानां पूजामन्त्राः ।।
ॐ नमः पूर्वदिग्दलासीनइन्दुधवलविग्रहशङ्ककामु कादिप्रहरणानेकपाणिरोहिण्यै स्वाहा ।। ॐ नमः पूर्वदिग्दलान्तरासीनकुवलयातिदेहशक्त्यादिप्रहरणानेकपाणिप्रज्ञप्तिकायै स्वाहा ।। ॐ नमः पूर्वदक्षिण दिग्दलासीनहेमा
॥३७॥
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निर्वाणकलिका.
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वदाततनुलोहशृङ्खलाद्यायुधविविधकरवज्रशृङ्खलायै स्वाहा ३ | ॐ नमः पूर्वदक्षिण दिग्दलान्तरा सीन कनक कान्तिमूर्तिवज्राङ्कुशकुन्तादिशस्त्र बहु भुजभीम महावज्राङ्कुशायै स्वाहा ४ । ॐ नमः दक्षिणदिग्दलासीनजाम्बूनदाभविशुद्धशरीरवच्चञ्श्चच्चक्रवज्जाद्य लङ्कृतानेककराप्रतिचक्रायै स्वाहा ५ । ॐ नमः दक्षिणदिग्देलान्तरासीनसुवर्णवर्णमृर्ति-सितनिवसना
कतिप्रायवा हु पुरुषदतायै स्वाहा ६ । ॐ नमो दक्षिणापर दिग्दलासीन स्निग्धाञ्जननिभतनुगदाद्यायुधाद्य ने ककरकलिकालिकायै स्वाहा ७ । ॐ नमो दक्षिणापर दिग्दला सीनात सीकुसुमकान्तिमूर्तिवज्राद्यायुधानेककर्म महाकालिकायै स्वाहा । ॐ नमो अपरदिग्दासीन कनक कान्तिका पद्मायुवरबाहुगौर्यै स्वाहा । ॐ नमो अपर दिग्दलान्तरासीशुककान्तिमूर्तये वज्रमुशलाद्यायुधसमृद्धानेककरगन्धायै स्वाहा १० | ॐ नमो अपरोत्तरदिग्दला सीना मृतफेनपिण्डपाण्डुरशरीराकारज्वलन्महाज्वालादिमहाभयङ्करकरप्रहरणाने क भीमभुजज्वालामात्रे' स्वाहा ११ । ॐ नमः अपरोत्तरदिग्दान्तरा सीनमरकनश्यामाङ्गोन्मूलिततरुवरादिप्रहरणानेक भीम करमानव्यै स्वाहा १२ । ॐ नमः उत्तरदिग्दलासीनप्रियङ्गु पुष्पद्युतितनुभीमभुज गाद्यने का युधानेककर वै रोटयायै स्वाहा १३ । ॐ नमः उत्तरदिग्दान्तगसीनकनककान्तिनुकामुकाकायुधानेककराच्छुप्तायै स्वाहा १४ । ॐ नमः उत्तरपूर्वदिग्दलासीन पद्मरागाङ्गयुतिशक्त्यादिशस्त्राने कर मानस्यै स्वाहा १५ । ॐ नमः उत्तरपूर्वदिग्दलान्तरा सीन विद्युद्विलास भास्वरशरी वाला (बाण) द्यायुधानेककरमदानस्यै स्वाहा १६ ।। इति विद्यादेवीनां पूजामन्त्राः ||
१ ज्वालायै इति पाठान्तरम् ।
विवप्रतिष्ठा
विधिः
॥३८॥
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॥३९॥
ॐ नमः पूर्वदिग्व्यवस्थितसौधर्मेन्द्रादिभ्यः स्वाहा १। ॐ नमः पूर्वदक्षिणदिग्व्यवस्थिततद्देवीभ्यः स्वाहा २। ॐनमो दक्षिणदिग्व्यवस्थितचमरेन्द्रादिभ्यः स्वाहा । ॐनमो दक्षिणापरदिग्व्यवस्थिततद्देवीभ्यः स्वाहा ४ॐनमो अपरदिग्व्यवस्थितचन्द्रेन्द्रादिभ्यः स्वाहा ।। ॐ नमो अपरोत्तरदिग्व्यवस्थिततद्देवीभ्यः स्वाहा । ॐनमः उत्तरदिग्व्यवस्थितकिन्नरेन्द्रादिभ्यः स्वाहा । ॐ नमो उत्तरपूर्वदिग्व्यवस्थिततद्देवीभ्यः स्वाहा ॥ इति वैमानिकादिदेवानां देवीना मन्त्राः ॥
ॐनमः पूर्व दिगन्तराध्यासिने तदधीशाय बाण कामुकन्याकराय इन्द्राय स्वाहा ।। ॐ नमः पूर्वदक्षिणदिगन्तराध्यासिने तत्स्वामिने बलन्महाज्वालाधरायग्नये स्वाहा २ । ॐनमो दक्षिणदिगन्तराध्यासिने तदधिष्ठात्रे महादण्डधारिणे यमाय स्वाहा । ॐ नमो दक्षिणापरदिगन्तराध्यासिने तन्नाथाय खड्गहस्ताय नैऋतये स्वाहा । ॐ नमोऽपरदिगन्तराध्यासिने तन्निवासिने पाशहस्ताय वरुणाय स्वाहा ५। ॐ नमो अपरोत्तरदिगन्तगध्यासिने तत्प्रभवे वज्रप्रहरणाय वायवे स्वाहा ६ । ॐ नमः उत्तरदिगन्तराध्यासिने तत्पालकाय गदायुधाय कुबेराय स्वाहा ।
ॐ नमः उत्तरपूर्वदिगन्तराध्यासिने तन्नाथाय शूलपाणये ईशानाय स्वाहा । ॐ नमो अधोदिगन्तराध्यासिने शिखामणिप्रभाभासुरभीषणफणासहस्राय पद्मावतीसहिताय सपरिकराय धरणेन्द्राय स्वाहा।। ॐ नमः ऊर्ध्वदिगन्तराध्यासिने अच्युतोत्तरस्थितये अप्रतिहतपरमानन्दाय ब्रह्मणे स्वाहा १० ॥ इति दिग्देवतानां पूजामन्त्राः॥
ॐ नमः पूर्वदिग्दलासीनरक्तद्युतिअक्षसूत्रकमण्डलुपाणिसकलजनकर्मसाक्षिणे आदित्याय स्वाहा ।। ॐ नमो
K|॥३९॥
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निर्वाणकलिका.
विवप्र.. विधि.
॥४०॥
॥४०॥
अपगेत्तरदिग्दल.सीनधवलद्युतिअक्षमालाकमण्डलुपाणिअमृतात्मने सोपाय स्वाहा २ । ॐ नमो दक्षिणदिग्दलासीनरक्तप्रमाक्षवलयकुण्डिकालस्कृतपाणितेजोमृतये मङ्गलाय स्वाहा । ॐ नमः उत्तरदिग्दलासीनहेमप्रमाक्षसूत्रकमण्डलुव्यग्रपाणये बोधात्मने बुधाय स्वाहा ४। ॐ नमः उत्तरपूर्व दिग्दलासीनहरितालतिअक्षमूत्रकुण्डिकायुतपाणित्रिदशमन्त्रिणे बृहस्पतये स्वाहा ५। ॐ नमः पूर्वदक्षिणदिग्दलासीनधवलवर्णाक्षश्त्रकमण्डलुपाणि असुरमन्त्रिणे शुक्राय स्वाहा ६ । K ॐ नमो अपरदिग्दलासीनासितद्युतिअक्षवलय कृण्डिकालङ्कृतपाणिलम्बकूर्चभासुरमूर्तये शनैश्चराय स्वाहा ७। ॐ नमो दक्षिणापरदिग्दलासीनातिकृष्णवर्णपाणिद्वयविहिताघमुद्रमहातमःस्वभावाय राहवे स्वाहा । ॐ नमः पूर्वेदिग्दलासीनधूम्रवर्णद्यतिअक्षमूत्र कुण्डिकालङकृतपाणिद्वयानेकस्वभावात्मने केतवे स्वाहा ॥ इति ग्रहदेवतानां पूजामन्त्राः ।। . ॐ नमो दक्षिणदिग्भागासीनस्निग्वाञ्जनधुनिमुद्गरपाशडमहकायनेक रास्त्रालाकृतानेकपाणिकामचारिणे क्षेत्रपालाय स्वाहा ।
ॐ नमः पूर्वदक्षिणदिग्व्यवस्थितगणधरादित्रिकाय स्वाहा । ॐ नमो दक्षिणापरदिग्भागावस्थितभवनपत्यादिदेवीत्रिकाय स्वाहा ३ । ॐ नमो अपरोत्तरदिग्व्यवस्थितभवनपत्यादिदेवत्रिकाय स्वाहा ४ । ॐ नमः उत्तरपूर्वदिग्व्यवस्थितवैमानिकादित्रिकाय स्वाहा ।। इति द्वादशगणपूजामन्त्राः॥ ___ॐ नमः प्रथमप्राकारपूर्वद्वाराभ्यन्तरतोरणोभयपाचव्यवस्थितकनकावदातद्युतिवैमानिकयुगलकाभ्यां स्वाहा ।। ॐ नमः प्रथमप्राकारदक्षिणद्वागभ्यन्तरतोरणोभयपार्श्वव्यवस्थितधवलद्युतिव्यन्तरयुगलकाभ्यां स्वाहा २। ॐ नमः
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॥४
॥
प्रथमप्राकारपश्चिमद्वाराभ्यन्तरतोरणोमयपाश्वव्यवस्थितरक्तद्युतिज्योतिष्कयुगलकाभ्यां स्वाहा ३ | ॐ नमः प्रथमप्राकारोत्तरद्वाराभ्यन्तरतोरणोभयपाश्रितकृष्णद्युतिभवनपतियुगलकाम्या स्वाहा ४ ॥ इति वैमानिकादियुगलानां मन्त्राः ।
ॐनमः पूर्वदिग्लोकाधिपतिकामुकव्यग्रपाणिपूर्वद्वारे तिष्ठ २ सोमाय स्वाहा । ॐ नमो दक्षिणदिग्लोकेशदण्डव्यग्रपाणि दक्षिणद्वारे तिष्ठ २ यमाय स्वाहा २। ॐ नमो अपर दिग्लोकाधिरक्षपाशहस्तापरद्वारि तिष्ठ २ वरुणाय स्वाहा ३ । ॐ नमः उत्तरदिग्लोकपालमहागदाव्यग्रहस्तोत्तरद्वारि तिष्ठ २ वैश्रवणाय स्वाहा ४॥ इति प्रथमप्राकारद्वारपालपूजामन्त्राः।
ॐनमः पूर्वदिग्द्वाराधिदेवते सितद्युतिअभयपाशाङ्कुशमुद्गरव्यग्रपाणि पूर्वद्वारे तिष्ठ २ जये स्वाहा ।। ॐनमो दक्षिण दिग्द्वाराधिदेवते रक्तद्युतिअभयपाशाशमुद्गरालङ्कृतपाणि दक्षिणद्वारे तिष्ठ २ विजये स्वाहा २। ॐ नमो अपरदिग्द्वाराधिदेवते कनकप्रमे अभयपाशाङ्कुशमुद्गरव्यापाणि पश्चिमद्वारे तिष्ठ २ अजिते स्वाहा । ॐ नमः उत्तरदिग्द्वाराधिदेवते श्यामद्युतिअभयपाशाङ्कुशमुद्गरालङ्कृतपाणि उत्तरद्वारे तिष्ठ २ अपराजिते स्वाहा ।। इति द्वितीयप्राकारद्वारपालानां पूजामन्त्राः ।
ॐ नमो भगवदई प्रतिपन्नप्रतिहारमावत्वेनाधिष्ठितद्वाराभ्यन्तराय जटामुकुटधारिणे नरशिरःकपालमालाभूषितशिरोधराय खट्वाङ्गपाणये तुम्बरवे स्वाहा ।। इति तुम्वरुपूजामन्त्रः।
॥४१॥
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निर्वाण- कलिका.
विवप्रतिष्ठा विधिः
॥४२॥
ॐ नमो न्यग्रोधात्मकेभ्यः सुराधिपतोरणेभ्यः स्वाहा ।। ॐ नम उदुम्बरात्मकेभ्यः धर्मराजतोरणेभ्यः स्वाहा २ । ॐ नमः अश्वत्थात्मकेभ्यः सुरा(सलिला)धिपतोरणेभ्यः स्वाहा ३। ॐ नमः प्लक्षात्मकेभ्यः यक्षाधिपतोरणेभ्यः स्वाहा ४॥ इति तोरणपूजामन्त्राः।
ॐ नमः पूर्वद्वारव्यवस्थितेभ्यो धर्मध्वजेभ्यः स्वाहा १ । ॐ नमो दक्षिणद्वारव्यवस्थितेभ्यो मानध्वजेभ्यः स्वाहा २॥ ॐ नमः पश्चिमद्वारव्यवस्थितेभ्यो गजध्वजेभ्यः स्वाहा ३। ॐ नमः उत्तरद्वारव्यवस्थितेभ्यः सिंहध्वजेभ्यः स्वाहा ४ ।। इति ध्वजानां पूजामन्त्राः ।
ॐ नमः पीतद्युतिवज्रलाञ्छितकठिनात्मने पृथिवीमण्डलाय स्वाहा ।। ॐ नमः कृष्णातिषड्विन्दुलाञ्छितवृत्तात्मने वायुमण्डलाय स्वाहा २॥ इति मण्डलपूजामन्त्रः।
एवमुक्तानुक्तमपि प्रणवादिस्वाहान्तैः स्वस्वनाममिः पूज्यम् ॥ इति नन्दावर्तपूजा ॥
ततो धृपमुत्क्षिप्य नानाकन्दमूलफलपक्काब्रहृयो बलिः प्रदेयः। सदशेन सितवाससा नूतनेन पट्टमाच्छाद्य पुष्पाक्षतचन्दनादिना वस्त्रोपरि सम्पूज्य स्थिरप्रतिमा तत्कर्णिकायां परिकल्प्य चलप्रतिमा तत्रैव स्थापयेदिति ।
ततः पुष्पाक्षतचन्दनवासयवालिकाकङ्कणसदशवस्त्रोपरि सम्पूज्य मदनफलानि सौभाग्यमन्त्रेणाधिवासनामन्त्रेण वा मुद्राभिश्चाभिमन्य प्रतिमासमीपं गत्वा चन्दनेन प्रतिमा सर्वाङ्गा विलेपयेत् । ततः पुष्पाण्यारोप्य वासक्षेपं कृत्वा तदनु कपाटजिनचक्रमुद्राभ्यां शक्ति तेजस्विनी कृत्वा पञ्चस्वष्टसु चाङ्गेष्वाचार्यमन्त्रेण द्वितीयेन मन्त्रन्यासं विधाय
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॥४३॥
IN
पश्चात्सौभाग्यमुद्रया सौभाग्यमन्त्रं न्यसेत् ।
तत्राङ्गानि शिरउभयांसकुक्षिद्वयपर्यवसानानि पञ्च तथा शिरोहृदयनामिपृष्ठिवाहुद्वयोरुयुगलसंज्ञकान्यष्टाविति ।
ॐ नमो भगवओ उसमसामिस्स पढमतित्थयरस्स सिज्झउमे भगवई महाविजा जेण सव्वेण इंदेण सव्वदेवसमुदयेण मेरुम्मि सम्वोसहीहिं सब्वे जिणा अहिसित्ता तेण सव्वेण अहिवासयामि सुव्वयं दढव्वयं सिहं बुद्ध सम्म दंसणमणपत्तं हिरि हिरि सिरि सिरि मिरि मिरि गुरु गुरु (+कुरु कुरु) अमले अमले विमले विमले सुविमले सुविमले मोक्खमग्गमणुपत्ते स्वाहा । अहवा ॐ नमो खीरासवलहीणं ॐ नमा महुभासवलहीणं ॐ नमो संभिण्णसोईणं ॐ नमो पयाणुसारीणं ॐ नमो कुट्ठबुद्धोणं जमियं विज्जं पउजामि सा मे विज्जा पसिझ(सीय)उ ॐ कंक्षः स्वाहा । अधिवासने विद्ये ॥
ॐ नमो वग्गु २ निवग्गु २ सुमिणे सोमणसे (सुमणे) महु महुरे जयंते अपराजिए स्वाहा ।। सौभाग्यविद्या ॥ अनन्तरमाचार्यः सौभाग्यमन्त्रेण सप्तवारान् परिजप्य कङ्कणं मदनफलं यवमालिकां च निवन्धयेत् ॥
तदनु क्षमाप्तेजोवाय्वाकाशपादपाणिपायुउपस्थवाघ्राणजिह्वाचस्त्वक्श्रोत्रमनःप्रभृतीनि तत्वानि संस्थाप्य अनन्तरमारोग्यकान्तिसौरभ्यप्रस्वेदरहिततत्वमसृक्मांसयोःशुभ्रत्वं आहारनीहारयोरदृश्यत्वं निश्वाससुगन्धतेति सहजगुणकदम्बकं विन्यसेत् ।
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निर्वाण कलिका.
॥ ४४ ॥
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ॐ नमो विश्वरूपाय अहंते केवलज्ञानदर्शनधराय ह्रीं ह्रौं सः सहजगुणान् जिनेश स्थापयामि स्वाहा || सहजगुणस्थापनमन्त्रः ॥ ततो मन्त्रजप्तवाससाच्छादयेत् । तथा चागमः । 'सदसनवधवलवत्थेण छाइउं वासपुष्फधूपेणं । अहिवासिज्ज तिनि वाराओ सूरिणो सूरिमन्तेण ॥ १ ॥ ततच पुष्पा क्षतचन्दनादिकमुपरि प्रक्षिप्य रत्नफल मिश्रेण सप्तधान्येनाभिषिञ्चेत् । ततो नववस्त्राच्छादितायाः प्रतिमायाः चतुर्दिक्षु श्वेतकलशान् यवशरावयवार कान्त्रितान् स्थापयेत् ॥ तथा चागमः ।
तर पुरो(ण) कटसा सलिलक्खयकणयरूप्पमणिगग्भा । वरकुसुमदामकण्ठोव सोहिया चन्दणवलित्ता || २ || जववारय सयवत्ताइघट्टिया रयणमालियाक लिया । मु (सु) ह पुण्णचत्तचउतंतुगोया हाँति पासेसु ॥ ३ ॥ ततो घृतगुडपूर्णान् मङ्गलप्रदीपान् प्रज्वालयेत् ॥ तथाचोक्तम्- मंगलदाचा य तहा घयगुलपुण्णा तखुर (रु)खा य ॥ वरवन्नअक्स्त्वयविश्वित्तसोहिया तह य कायव्वा ॥ ४ ॥
तदनु कन्दमूलफल सम्मिश्र विचित्र पक्वान्नमनोहर सप्तमराविका युतः - तासां च द्रव्याणि पायसं गुडपिण्डाः कृसरा दध्योदनं सुकुमारिका शाल्योदनं सिद्धपिण्डकाश्चेति मनोहरो बलिर्देयः । उक्तं च
१ सदशनवधवलवस्त्रेण छादयित्वा वासपुष्पधूपेन । अधिवासयेयुः त्रीणि वाराणि सूरयः सूरिमन्त्रेण ।। १ ।। २ चत्वारः पुरः कलशाः सलिलाक्षतकनकरूप्यमणिगर्भाः । वरकुसुमदामकण्ठोपशोभिताश्चन्दनावलिप्ताः ॥ २ ॥ वारकशतपत्रादिघट्टिता रत्नमालिकाकलिताः । मुखपूर्णचत्र ( ? ) चतुस्तन्तुकावस्तृता भवन्ति पार्श्वषु ॥ ३ ॥
विवप्रतिष्ठा विधि
॥४४॥
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भोसहिफलवत्यमदसणाई दवाबत्तपासाई
॥४५॥
'मोसहिफलवत्थमुवण्णरयणसुत्ताइयाई विविहाई । अन्नाइवि गरुयसुदंसणाई दवाई विमलाई ॥१॥ चित्तपलिगन्धमल्लविचित्तकुसुमाई चित्तवासाई ।
विविहाई' धन्नाह सुहाई रुवाई' उवणेह ॥२॥ ततो यववारकवेदिकादीन्यष्टमङ्गलकानि चतुरिकायां स्थापयेत् । चतुरिकावेद्यौ रक्तसूत्रेण वेष्टयेत् । चतुःकोणेषु रक्षार्थ कुलिशरूपानस्त्राभिपन्त्रितान् काण्डान् निवेशयेत् । तदनु रूपयौवनलावण्यवत्यो रचितोदारवेषा अविधवाः सुकुमारिकाः गुडपिण्डपिहितमुखान् चतुरः कुम्भान् कोणेषु संस्थाप्य कांस्यपात्रीविनिहितदूर्वादध्यक्षततर्कुका(कुकुमा)उपकरणसमन्विताः सुवर्णादिदानपुरस्सरमष्टौ चतस्रो वा नार्यो रक्तसूत्रेण स्पृशेयुः। शेषाश्च मङ्गलानि दयः॥ तथाचागमः। 'चउ नारीओमिणणं नियमा अहियासु नस्थि विरोहो । नेवत्थं व इमासिं पवरं तं इह सेयं ॥२॥
॥४
॥
१ मङ्गलदीपाश्च तथा घृतगुडपूर्णास्तथेक्षुरकाश्च । वरवर्णाक्षतविचित्रशोभितास्तथा च कर्तव्याः ।। ४ ।। २ ओषधिफलवस्त्रसुवर्णरत्नसूत्रादिकानि विविधानि । अन्यान्यपि गुरुकसुदर्शनानि द्रव्याणि विमलानि ॥२॥
चित्रबलिगन्धमाल्यविचित्रकुसुमानि चित्रवासांसि । विविधानि धन्यानि शुभानि रूपाणि उपनयत ।। ३ ।। १ चतुर्नार्यवमानं नियमात् अधिकासु नास्ति तु विरोधः । नेपथ्यं च आसां यत् प्रवरं तत इह श्रेयः ॥ १ ॥
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निर्वाण
कलिका.
॥४६॥
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'दिक्खिय जिणओमिणणा दाणाउ ससतिओ तहेयंमि । वेहव्वं दालिद्दं न होइ कहयाचि नारीणं ॥ २॥ तासां चलवणगुडादि दत्वा लवणारात्रिकपुच्चारयेत् । तथा चोक्तम् ।
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'आरत्तिय मवयारणमङ्गलदोवं च निम्मिउ पच्छा । चउनारोहिं निम्मच्छ्रणं च विहिणा उ कायन्वं ॥३॥ ततो वर्धमानस्तुतिभिः संघसहितश्चैत्यवन्दनमधिवासनादि देवतानां कायोत्सर्गाणि कुर्यात् । उक्तं च । 'वंदितु' चेहयाई' उस्सग्गो तह य होड कायच्यो । आराहणानिमित्तं पवयणदेवीए संघेण ॥ ४ ॥ विश्वशेषसु वस्तुषु मन्त्रैर्याजस्रमधिवसति वसतौ । सास्यामवतरतु श्रीजिनतनुमधिवासनादेवी ||५ प्रोत्फुल्ल कमलहस्ता जिनेन्द्रवर भवनसंस्थिता देवी । कुन्देन्दुशङ्खवर्णा देवी अधिवासना जयति ॥६॥ एवमनेन विधिना श्रीमद्भगवन्तमधिवास्य गन्धधूपपुष्पाद्यधिवासितायां स्वास्तीर्णायां विद्रुमशय्यायां शाययेत् । (घ) मजप्ता रक्तवाससा चाच्छादयेत् । तदनु सप्तगीतवाद्यमङ्गलादिना चतुविधभ्रमण सङ्घेन सह । ततः प्रभातायां ये प्राप्ते वासरे सूरिः प्रतिष्ठां कुर्यात् ॥ उक्तं च ।
१ दीक्षित जिनानां अवमानात् दानात् स्वशक्तितः तथा अस्मिन् । वैधव्यं दारिद्र्य न भवति कदापि नारीणाम् ॥ २ ॥ २ आरातिकावतारणं मङ्गलदीपं च निर्मीय पश्चात् । चतुर्नारीभिर्निर्ग्रक्षणं विधिना तु कर्तव्यम् ।। ३ ।। ३ वन्दित्वा चैत्यानि उत्सर्गस्तथा च भवति कर्तव्यः । आराधनानिमित्तं प्रवचन देव्याः सङ घेन ॥ ४ ॥
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चिंवप्रतिष्ठा
विधिः
॥४६॥
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॥४७॥
पाव
'इस विहिणा अहिवासेन्ज देवबिम्ब निसाए सुडमणो । तो उग्गयम्मि सूरे होइ पइट्ठासमारम्भो ॥२॥
॥ इति अधिवासनाविधिः ॥ ततः काश्चित कालकलां विलम्ब्य पूर्ववच्छान्तिवलिं प्रक्षिप्य चैत्यवन्दनादिकं कर्म कृत्वा वस्त्रमपनीयाऽविधवनायिकायाः समर्पयेत् । ततो रजतमयवर्तिकानिहितमधुदिव्यया सुवर्णशलाकया अर्हन्मन्त्रमुच्चार्य ज्ञानचक्षुरुन्मीलयेत् ।। तथा चागमः।
कल्लाणसलायाए मघयपुण्णाए अच्छि 'उग्घाडे ।
अण्णण वा हिरण्णण निययनहसत्तिविहवेण ॥२॥ दृष्टिन्यासे च दृष्टेराप्यायननिमित्तं घृतादर्शदधीनि संदर्शयेत् । तदनु योजनेऽषि कोटिसहस्रावस्थानं वचनस्य स्वस्वभाषया परिणमनं रुग्वैरमारिदुर्भिक्षडमरादीनामभावः। अतिवृष्टयनावृष्टी न भवतः। इति कर्मक्षयोत्पन्नगुणान जिनेन्द्राणां स्थापयेत् ।
ॐ नमो भगवते अहंते घातिक्षयकारिणे घातिक्षयोत्पन्नगुणान् जिने संस्थापयामि स्वाहा । घातिकर्मक्षयोत्पन्नैकादशातिशयस्थापनामन्त्रः ।।
१ इति विधिना अधिवासयेत् देवबिम्ब निशायां शुद्धमनाः। तत उद्गते सूर्ये भवति प्रतिष्ठासमारम्भः ।।१।। २ कल्याणशलाकया मधुघुतपूर्णया अक्षी उद्घाटयेत् । अन्येन वा इरण्येन नियतयथाशक्तिविभवेन ॥२॥ ३ उधारे ।
॥४७॥
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निर्वाण
कलिका.
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पश्चादाचार्यः स्वमन्त्रोच्चारपुरस्सरं प्रासादं गत्वा विघ्नानुत्साद्य रत्नादिपञ्चकं विन्यसेत् । तत्र पूर्वस्यां वज्र, आग्नेय्यां सूर्यकान्तं दक्षिणस्यां नीलं नैऋत्यां महानीलं, पश्चिमस्य मौक्तिकं, वायव्यां पुष्परागं, उत्तरस्यां पद्मरागं, ईशान्यां वैडूर्यमिति पूर्वादिगर्तासु विन्यस्थ । मध्यगतयां समस्तानीति । ततो हेमताम्रकृष्ण लोहत्र पुरौप्य - रीतिका कांस्यसीसकाद्यपि पूर्वादिगर्तासु मध्ये समग्राणि देशशक्तिमनुस्मरन् न्यस्येत् । तदनु हरितालीं मनःशिलां afri सुवर्णमाक्षिक पारदं हैमगैरिकं गन्धकां अभ्रकामिति धातून स्मृतिवीजात्मकान् पूर्वादिगर्तासु । मध्ये समस्तानि । अथोशीर विष्णुक्रान्ता रक्तचन्दनकृष्णा गुरुश्रीखण्डं उत्पलसारिकं कुष्टं शङ्खपुष्पिकाद्यौषधीरारोग्यशक्तिमनुसंधाय यथासंख्यं पूर्वादिगर्तासु मध्य गर्तायामखिलान्न्यसेदिति । यद्वा सर्वरत्नाभावे वज्र' लोहाना सुवर्ण धातूनां हरितालं औषधीनां सहदेवी बीजानां यवाः एकं वा पारदं सर्गगर्तासु विन्यस्य । मध्यमगर्तायां सिंहासन पाण्डुकम्बलशिलालङ्कृतं हेममयं ताम्रमयं मृन्मयं मेरु स्थापयेदिति ।
स्थिरप्रतिष्ठायामयं विधिरितरायां रत्तगर्भकुलालचक्रमृत्तिकां दर्भाश्च स्थापयेदिति । ततो धर्मजप्तवाससा प्रच्छाय लोकपालानां बलिं दत्वा जयशब्दादिमङ्गलैः सतूर्यनिर्घोषै रत्नकरम्बकं संक्षिप्य अधिवासनामण्डपात् भगवन्तं भद्रपीठे सत्ता स्थिरो भवेत्युक्त्वा छादिकाभिः सूत्रान्तरेण प्रगुणं विधाय लग्नकालमवलोकयेत् ।
अनन्तरमाचार्यो मध्यमया चन्दनं अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां वासान् मुष्टौ पुष्पाक्षतान् संगृद्य स्व(स) मन्त्रेण कुम्भकविधिना सृष्टिमार्गमनुस्म (स) रन् सूत्रधारोपनीतछदिकं प्राणेन सह प्रतिष्ठाप्य । ॐ अहं इति मन्त्रेणोत्तमाङ्गादिषु
विवप्रतिष्ठा
विधि.
||१८||
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॥४६॥
वासादिक्षेपं कुर्यात् । तत आचार्यमन्त्रेण । ॐ नमो अरिहंताणं | ॐ नमो सिडाणं। ॐ नमो आयरियाणं । ॐ नमो उवज्झायाणं । ॐ नमो लोए सवसाहणं । ॐ नमो ओहिजिणाणं । ॐ नमो परमोहिजिणाणं । ॐ नमो सवोहिजिणाणं । ॐ नमो अणन्तोहिजिणाणं । ॐ नमो केवलिजिणाणं । ॐ नमो भवत्यकेचलिजिणाणं । ॐ नमो भगवओ अरहओ महई महावोरवडमाणसामिस्स सिंज्झउमे भगवई (इमा) महई महाविजा वीरे २ महावीरे जयवोरे सेणवारे वडमाणवीरे जये विजये जयन्ते अपराजिए अणिहए माचल २ वृद्धिदे २ है २ ह्रीं २ सः(सा) २ ओहि अरिणि मोहिणि स्वाहेत्यादिना प्रतिष्ठामन्त्रेणाचार्यमन्त्रेण वा चक्रमुद्रया प्रतिमायां त्रिपञ्च पप्तवारान् मन्त्रन्यासं विधाय ॐ ह्रीं अर्हन्मूर्तये नमः इति पुन: प्रवचनमुद्रया मृति प्रनियोध्य स्थावरे तिष्ठ स्वाहा इति जिनमुद्रया स्थिरीकरणं कृत्वा आचार्यः धेनुमुद्रयाऽमृतीकृत्याऽस्त्रमन्त्रेण गरुडमुद्रया दुःखविघ्नादीनुत्माद्य सौभाग्यमन्त्रण योनिमदया सौभाग्यमारोप्य ऋपभाधकतमं जिने नाम कृत्वा गन्धपुष्पधूपादिभिः सम्पूज्य नमस्कारमुद्रया नमस्कृति विदध्यात् ।
तदनु कनककमलपातश्चतुरङ्गताकण्टकानामधोमुखीभावो रोमनखानामवस्थितत्वमिन्द्रियार्थानुकूलता सर्वना प्रादुर्भावो गन्धोदकवृष्टिः शकुनानां प्रदक्षिणगतयो द्रुमाणामवनतिः प्रभञ्जनानुकूलता भवनपतिप्रभृतीनां जघन्येन कोटिमात्रावस्थानमित्येवं सुस्कृतातिशयप्रातिहार्ययक्षयक्षेश्वरीधर्मचक्रमृगद्वन्द्वरत्नध्वजप्राकारत्रयादीन् प्रत्येक स्वस्वमन्त्रः
॥४६॥
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निर्वाण
कलिका.
॥ ५० ॥
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संस्थापयेत् ॥ तत्रातिशयादीनां स्थापनमन्त्राः ।
ॐ नमो भगवते अर्हते सुरकृतातिशयान् जिनस्य शरीरे स्थापयामि स्वाहा । ॐ नमो भगवते अर्हते असिआउसा जिनस्य प्रातिहार्याष्टकं स्थापयामि स्वाहा । ॐ यक्षेश्वराय स्वाहा । ॐ ह्रीं (क्ष) ह्रीं ह्रीं शासनदेव्यै स्वाहा । ॐ धर्मचक्राय (वत्साय स्वाहा । ॐ मृगद्वन्द्वाय स्वाहा । ॐ रत्नध्वजाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते अर्हते जिनप्रकारादित्रयं स्थापयामि स्वाहा ।। इति अतिशयादीनां स्थापना मन्त्राः ॥
ततोऽविधवानारीभिः प्राग्वत् स्पर्शनादिकं कर्म कृत्वा लवणारात्रिकमुत्तार्य चतुविधभ्रमण सङ्घ महितो देववन्दनं प्रतिष्ठादिदेवतानां कायोत्सर्गाणि कुर्यात् । तथा चागमः ॥
'तो चेहयाई' विहिणो वन्दिजा सयलसङ्घसंजुत्तो । परिवडमाणभावो जिणदेवे दिन्नविडीओ || १ || ततोचिय पत्रयणदेवयाए पुणरवि करेल उस्सग्गो । आराहणथिरकरणठपाए परमार भत्तीए ॥ २ ॥ यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सर्वाः सर्वास्पदेषु नन्दन्ति । श्रीजिनबिम्बं सा विशतु देवता सुप्रतिष्ठमिदम् ||३|| जइ सग्गे पायाले श्रहवा खोरोदहिम्मि कमलवणे । भयवह करेहि सत्तिं सन्निज्झं सयलसङ्घस्स ||४||
१ ततश्चैत्यानि विधिना वन्देत सकल सङ्घसंयुक्तः । परिवर्धमानभावो जिनदेवे दत्तदृष्टिकः ||१|| ततश्चैव प्रवचनदेवतायाः पुनरपि कुर्यादुत्सर्गः । आराधन स्थिरीकरणार्थकया परमया भक्त्या ।। २ ।। यदि स्वर्गे पाताले अथवा क्षीरोदधौ कमलवने ।
विवप्रतिष्ठा विधिः
॥५०॥
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॥५१॥
अविहकम्मरहियं जा वन्देह जिगवरं पथत्तेण । सङ्घस्स हरउ दुरियं सिहा सिद्धाइया देवी ।।६।।
ततोऽञ्जलिमुद्रया सिद्धादिमङ्गलोद्घोषणपूर्वकमुत्तरोत्तरपूजाभिवृद्धये सधेन सह पुष्पगन्धादिमिश्रस्य सप्तधान्यकस्य प्रक्षेपं कुर्यात् । उक्तं च ।
'वन्दित चेहयाई इमाई तो सरभसं पढेज्जा । सुमङ्गलसाराई तहा थिरत्तसारेण सिद्धाह ॥१॥ तद्यथा । जह सिद्धाण पइट्ठा तिलोयचूडामणिम्मि सिद्धिपए । आचन्दमूरियं तह होइ इमा सुप्पइट्टनि ॥२॥ गेविज्जगकप्पाणं सुपट्टा वणिया जहा समए । आचन्दसूरियं तह होई इमा सुप्पइट्टत्ति ॥ ३ ॥ जह मेरुस्स पइट्ठा असेससेलाणमज्भयारम्मि । आचन्दमूरियं तह होइ इमा सुप्पइति ॥ ४ ॥
कुलपब्धयाणवक्खारवट्टवेयट्टदीहियाणं च । कूडाण जमगकंचणवित्तविचित्ताइयाणं च ॥ ५॥ भगवती करोति शक्ति सान्निध्यं सकलसङ्घस्य ॥ ४ ॥ अष्टविधकर्मरहितं या वन्दते जिनवरं प्रयत्नेन । सङ्घस्य हरतु दुरितं सिद्धा सिद्धायिका देवी ।। ५।।
वन्दित्वा चैत्यानि इमानि ततः सरभसं पठेत् । सुमङ्गलसाराणि तथा स्थिरत्वसारेण सिद्धानि ।। १ ।। यथा सिद्धानां प्रतिष्ठा त्रिलोकचूडामणी सिद्धिपदे । आचन्द्रसूर्य तथा भवति इमा मुप्रतिष्ठा इति ।। २।। अवेयककल्पानां सुप्रतिष्ठा वर्णिता यथा समये । आचन्द्रसूर्य तथा भवति इमा सुप्रतिष्ठा इति ॥ ३॥ यथा मेरोः प्रतिष्ठा अशेषशैलानां मध्ये (मध्यकारे)। आचन्द्रसूर्यं तथा भवति इमा सुप्रतिष्ठा इति ।। ४।। कुलपर्वतानां वक्षस्कारवृत्तवैताब्यदीपिकाणां च । कूटानां यमलकांचनवित्तविचित्रादिकानां च ।। ५ ।। अञ्जनरुचककुण्डलमानुषोत्तरइषुकारआदिकानाम् । शैलानां यथा प्रतिष्ठा तथा एषा भवति
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निर्वाणकलिका.
॥ ५२ ॥
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अगर कुण्डल माणुसइसुयारमाइयाणं च । सेलाण जह पड्ड्ट्ठा तह एसा होइ सुपट्टा ॥ ६ ॥ जह लवणस्स पड्ड्डा असेसजलहीण मज्झयारम्मि आचन्दसूरियं तह होइ इमा सुप्पट्टुत्ति ॥ ७ ॥ कुण्डाण दहाणं तह महानईणं व जह य सुपडा । आकालगीत हेसा वि होउ निश्चन्तु सुपड्डा ॥ ८॥ जम्बुद्दीवाईणं दीवसमुद्दाणं सव्वकालंमि । जह एयाण पट्टा सुपरट्ठा होउ तह एसा ।। ९ ॥ धम्मम्मागास थकायमहयस्य सव्वलोयस्स । जह सासया पट्टा एसावि तहेत्र सुपट्टा || १० ॥ पञ्चदवि सुपट्टा परमेट्ठिीणं जहा सुए भणिया । नियया अणाइगिद्दण तह एसा होउ सुपट्टा ||११ । । तह पवयणस्स गमभंग हेउनयनीडकालकलियस्स । जह एयस्स पट्ठा निचा तह होउ एसावि ।। १२ ।। तह संघ राहिवजणवयाण रजस्म तहय ठाणस्स । गोट्ठीए सव्वकालंपि सासया होउ सुपट्टा ।। १३ ॥
सुप्रतिष्ठा ।। ६ ।। यथा लवणस्य प्रतिष्ठा अशेषजलधीनां मध्ये ( मध्यकारे) । आचन्द्रसूर्य तथा भवति इमा सुप्रतिष्ठा इति || ७ || कुण्डानां द्रहाणां तथा महानदोनां च यथा सुप्रतिष्ठा । आकालगीतहेषापि भवतु नित्यं तु सुप्रतिष्ठा ॥ ८ ॥ जम्बूदीपादीनां द्वीपसमुद्राणां सर्वकाले । यथा एषां प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा भवतु तथा एषा ।। ९ ।। धर्माधर्माकाशास्तिकायमयस्यास्य सर्वलोकस्य । यथा शाश्वता प्रतिष्ठा एषापि तथैव सुप्रतिष्ठा ॥ १० ॥ पञ्चानामपि सुप्रतिष्ठा परमेष्ठीनां यथा श्रुते भणिता । नियता अनादिनिधना तथा एषा भवतु सुप्रतिष्ठा ।। ११ ।। तथा प्रवचनस्य गमभङ्गहेतुनय नीतिकालकलितस्य । यथा एतस्य प्रतिष्ठा नित्या तथा भवतु एषापि ।। १२ ।। तथा सङ्घनराधिपजनपदानां राज्यस्य तथैव स्थानस्य । गोष्ठ्याः ( १ सव्वट्टविमाणाणं उड्ड लोयंमि जहय सुपइट्टा । आचन्दसूरियं तह होइ इमा सुपट्टत्ति इत्यधिकम् । )
चिंचप्रतिष्ठा
विधि
॥५२॥
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॥५३॥
इय एसा सुपट्ठा गुरुदेवजईहिं तह य भविएहिं । निउणं पुट्ठा सङ्घण चेव कप्पट्टिा होई ॥१४ ।। सोउं मङ्गलसई सउणं ति जहेव इट्ट सिद्ध(द्धि)त्ति । एत्थंपि तहा सम्मं नायव्वं बुद्धिमन्तेहिं ॥१५॥ राया बलेण वडइ जसेण धवलेइ सयलदिसिभाए । पुण्णं वइ विउलं सुपइट्टा जस्स देसंमि ॥ १६ ॥ उवहणइ रोगमारी दुब्भिक्खं हणइ कुणइ सुहभावे । भावेण कीरमाणा सुपइट्ठा सयललोयस्स ।। १७ ॥ जिणविंबपइट्ठ जे करिति तह कारविति भत्तीए । अणुमण्णन्ति पइदिणं सव्वे सुहभाइणो होति ॥ १८ ।। दव्वं तमेव भणई जिणबिम्बपइगुणमि धण्णाणं । जंलग्गइ तं सयलं दोग्गइजणणं हवइ सेसं ॥१९॥
एवं नाऊण सया जिणवरबिम्बस्स कुणह सुपट्ट। पावेह जेण जरमरणवज्जियं सासयं ठाणं ॥२०॥ सर्वकालमपि शाश्वता भवतु सुप्रतिष्ठा ।। १३ ।। इति एषा सुप्रतिष्ठा गुरुदेवय तिभिः तथाच भविकैः । निपुणं पुष्टा सङ्कन चैव कल्पस्थिता भवति ॥ १४ ।। श्रुत्वा मङ्गलशब्दं शकुनं इति यथैव इष्टं सिध्यति । अत्रापि तथा सम ज्ञातव्यं बुद्धिमद्भिः ।।१५।। राजा बलेन वर्धते यशसा धवलयति सकलदिशिभागे । पुण्यं वर्धते विपुलं सुप्रतिष्ठा यस्य देशे।१६।। उपहन्ति रोगमारी दुभिक्षं हन्ति करोति सुखभावे । भावेन क्रियमाणा सुप्रतिष्ठा सकललोकस्य ।। १७ ।। जिनबिम्ब प्रतिष्ठितं ये कुर्वन्ति कारयन्ति भत्तया । अनुमन्यन्ते प्रतिदिनं सर्वे सुखभागिनो भवन्ति ।। १८ ।। द्रव्यं तदेव भणति जिनबिम्बप्रतिष्ठाने धन्यानाम् । यद् लगति तत् सकलं दुर्गतिजनकं भवति शेषम् ।। १९ ॥ एवं ज्ञात्वा सदा जिनवरबिम्बस्य कुरुत सुप्रतिष्ठाम् । प्रान्पुथ येन जरामरणजितं शाश्वतं स्थानम् ।। २०।।
॥५३॥
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निर्वाणकलिका.
॥ ५४ ॥
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ततो मुखोद्घाटनकं कृत्वा शान्त्यर्थं शान्तिवलिं क्षिपेत् ।
ॐ नमो भगवते अर्हते शान्तिनाथस्वामिने सकलकलातिशेषमहा सम्पत्समन्विताय त्रैलोक्य' पूजिताय नमोनमः शान्तिदेवाय सर्वामरसुसमुहस्वामिसम्पूजिताय भुवनपालनोचनाय सर्वदुरित विनाशनाय सर्वाशिवप्रशमनाय सर्वदुष्ठग्रह भूतपिशाचमा रिशाकिनो प्रमथनाय नमो भगवति जये विजये जिते अपराजिते जयन्ति जयावहे सर्वसङ्घस्य भद्रकल्याणमङ्गलप्रदे साधूनां श्रोशान्तितुष्टिपुष्ट स्वस्तिदे भन्यानां सिद्धिवृद्धिनिवृत्तिनिर्वाणजनने सत्वानामभयप्रदानरते भक्तानां शुभाव सम्ष्टीनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानोद्यते जिनशासनरतानां श्रीसम्पत्कोश रोगजलज्वलन विषविषधर दुष्टज्वरव्यन्तरराक्षस रिपुमारि चौरईतिश्वापदोपसर्गादिभयेभ्यो रक्ष २ शिवं कुरु २ शान्ति कुरु २ तुष्टिं कुरु २ पुष्टिं कुरु २ ॐ नमो नमः ह हः क्षः ह्रीं फट् २ स्वाहा ॥ ॥ शान्तिवलिमन्त्रः ॥
तदनु सङ्घाद्विपूजा दीनानाथादिदानं बन्धमोक्ष इति प्रवचनोद्भासनानिमित्तमवश्यं कर्तव्यमिति । उक्तं च'सत्तीए सङ्घपूया विसेसपूया य बहुगुणा एसा । जं एस सुए भणिओ तित्ययरानंतरो सङ्घ ॥ १ ॥ यण तित्थन्ति होइ एगठ्ठा । तित्थयरोवि य एयं नमए गुरुभावओ चेव ।। २ ।। १ शक्त्या सङ्घपूजा विशेषपूजा च बहुगुणा एषा । यत् एषः श्रुते भणितः तीर्थंकरानन्तरः सङ्घः ॥ १ ॥ गुणसमुदयश्व सङ्घः प्रवचनं तीर्थमिति भवन्ति एकार्थाः । तीर्थकरोपि च एनं नमति गुरुभावतश्चैव ।। २ ।। तत्पूर्विका अर्हता पूजितपूजा
विप्रतिष्ठा विधिः
॥५४॥
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॥५५॥
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तवया अरया पूयपूया य त्रिणयकम्मं य । कर्याचिट्टो (किचो) वि जह कह कहेइ नमए तहा तित्थं ॥ ३ ॥ एमि पूयंमि नत्थि तयं जं न पूइयं होइ । भुवणेवि पुर्याणज्जं न पृ ( गुणट्ठाणं जओ अन्नं ॥ ४ ॥ तपूयापरिणामो हंदि महाविसयमो मुणेयब्यो । तदेसपूयणम्म वि देवयपूयाह नाएण ॥ ५ ॥ आसन्न सिद्धियाणं लिंगमिणं जिणवरेहिं पन्नत्तं । सङ्घमि चैव पूया सामन्नेणं गुण निहिम्मि || ६ || एमा य महादाणं एसच्चिय होड़ भावजन्नति । एसो गिहत्यसागे एसबिय सम्पयामूलम् ॥ ७ ॥ एईए फलं एयं परमं निशणमेव नियमेण । सुरनरसुहाई अणुसंगियाई इह किसिपलालं व ।। ८ ।। कयमत्थपसंगणं उत्तरकालोइयं इयहिम्मि । अणुरूपं कायव्वं तित्थुन्नकारगं नियमा ॥ ६॥ जओ जणवा विसेपओवरसयणवग्गम्पि | साहम्मियवग्गम्मि य एयं खलु परमवच्छल्लम् ||१०|| तदनन्तरमष्टाहिका देशकालकार्यवशव्यहिका वा नियमतः कर्तव्येति ॥ तथाचोक्तम् ॥
च विनयकर्म च । कृतचेष्टो ( कृतकृत्यो ) पि यथा कथं कथयति नमति तथा तीर्थम् ॥ ३ ॥ एतस्मिन् पूजिते नास्ति ( तकत् ) तत् यत् न पूजितं भवति । भुवनेपि पूजनीय न पुनः स्थानं यतः अन्यत् ॥ ४ ॥ तत्पूजापरिणामो हन्त महाविषयो मन्तव्यः । तद्देशपूजनेपि देवतापूजादि ज्ञातेन ।। ५ ।। आसन्न सिद्धिकानां लिङ्गमिदं जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । सङ्ग चैव पूजा सामान्येन गुणनिध ।। ६ ।। एषा च महादान एषा चैव भवति भावयज्ञ इति । एष गृहस्थसारः एषापि च सम्पदामूलम् ।। ७ ।। अस्याः फलं एतत् परमं निर्वाणमेव नियमेन । सुरनरसुखानि आनुषङ्गिकाणि इह कृषिपलालमिव ||5|| कृतमर्थप्रसङ्गेण उत्तरकालीदित इदानीमपि । अनुरूपं कर्तव्यं तीर्थोन्नतिकारकं नियमात् ||९|| जनितो जनोपकारः विशेषतः नवरं स्वजनवर्गे । साधर्मिक
॥५५॥
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निर्वाणकलिका.
विवप्रतिष्ठा विधि.
॥५६॥
||५६।।
अट्टाहिया य महिमा सम्मं अणुबन्धसाहिया केइ । अहवा तिन्नि य दियहे निओगयो चेव कायव्वा ॥११॥
तदनु तथाविधकार्यवशात् प्रथमदिने तृतीयदिने वा विशेषपूजां विधाय लोकपालान् सम्पूज्य सुवासिनीमङ्गलपूर्वकं । ॐ 'भ्र (क्ष) क्ष्वों सः इत्यनेन मन्त्रेण प्रतिसरोन्मोचनकं कृत्वा नन्दावर्तसंनिधौ गत्वा विसर्जनार्थमर्घ दत्वा भोगाङ्गानि पूर्वोक्तन्यायेन संहृत्य देवे संयोज्य संहारमुद्रया स्वस्थानं गच्छ गच्छ इत्यनेन मन्त्रेण पूजा द्वादशान्तमानीय शिरस्यारोप्य पूरकेण सापेक्षं क्षमस्वेति हत्कमले विसर्जयेत् ।। उक्तं च ।।।
'अट्ठाहियावसाणे पडिस्सरोमुयणमेव कायव्वं । भूयबलिदीणदाणं एत्थंपि ससत्तिओ कुजा ॥ १॥
ततो घृतदुग्धदध्यादिभिः स्नानं विधाय अष्टोत्तरशतेन वारकाणां स्नापयेत् । ततो मासं प्रति द्वादश स्नपनानि कृत्वा पूर्ण संवत्सरे अष्टाहिकापूविका विशेषपूजा विधाय दीर्घायुग्रन्थि निवन्धयेदित्येवमुत्तरोत्तरं विशेषपूजाटिक निःश्रेयसार्थिना सर्वदैवाव हितेन कर्तव्यमिति ।
इय सत्तिविहवसत्ताणुसारओ वणिया पइट्टाउ। विहवाभावासत्तीए असहभावो इयं कुज्जा ॥१॥ वर्गे च एतत् खलु परमवात्सल्यम् ।।१०॥ अष्टाहिका च महिमा सम्यग् अनुबन्धसाधिका केचित् । अथवा बीन् च दिवसान् नियोगतश्चैव कर्तव्या ॥ ११ ॥
१ अष्टाहिकावसाने प्रतिसरोन्मोचनमेव कर्तव्यं भूतबलिदीनदानं अत्रापि स्वशक्तितः कुर्यात् ।। २ इति शक्तिविभवसत्त्वानुसारतो वणिता प्रतिष्ठा तु । विभवाभावाशक्यत्या अशठभाव इमां कुर्यात् ।। १ ।।
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॥५७॥
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yesai पि अङ्गुमेयं तणकुडाए विसुओ य । सुहभूओ जिणत्रिंवं ठविज्ज इमिणा विहारोण ॥ २ ॥ संसारविरागमणो गरहानिंदा जुगुच्छियप्पाणो । काऊण भावमंगलं पंचनमुकाररुवं तु ॥ ३ ॥ कासरस य कुसुमेहिं पुण्उ (ॐ) (सुरहि) सुरहिकुसुमविरहमि । कारिज पठ्ठे परमभत्तित्र माणसंजुत्तो ॥ ४ ॥ कलसाईणमभावे विरहे तह सेसमङ्गलाणं । च पञ्चमुकारो चिय भावोत्तममंगलं नियमा ॥ ५ ॥ पञ्जरामिणे नियमा मायालो हेहिं विमुकस्स । पश्ञ्चनमोक्कारेण जं कीरह मंगलाईयं ॥ ६ ॥ सव्त्रत्थ भावमङ्गल - पञ्चनमोक रपुब्विया किरिया । कायव्वा जिणविवाण सव्वभावेण सुपट्टा ॥ ७ ॥ मणिक सुवन्नरीरीपडिमं पाहाणणिम्मिए भुवणे । जो ठवह भत्तिजुत्तो तस्स दुहं नैव कड्यावि ॥ ८ ॥ पृथ्वीमयं पृथु अङगुष्ठमात्रकं तृणकुट्यां विश्रुतश्च । शुचिभूतो जिनबिम्बं स्थापयेत् अनेन विधानेन ॥ २ ॥ संसारविरागमना गर्हानिन्दा जुगुप्सितात्मा । कृत्वा भावमङ्गलं पञ्चनमस्काररूपं तु ।। ३ ।। काशस्य च कुसुमैः पुण्यस्तु सुरभि सुरमिकुसुमविरहे । कारयेत् प्रतिष्ठां परमभक्तिबहुमानसंयुक्तः ॥ ४ ॥ कलशादीनामभावे विरहे तथा शेषमङ्गलानां च । पञ्चनमस्कारश्चैव भावोत्तममङ्गलं नियमात् ।। ५ ।। पर्याप्तमस्मिन् नियमात् मायालोभविप्रमुक्तस्य । पञ्चनमस्कारेण यत् करोति मङ्गलादिकम् ।। ६ ॥ सर्वत्र भावमङ्गलपञ्चनमस्कारपूर्विका क्रिया । कर्तव्या जिनबिम्बानां सर्वभावेण सुप्रतिष्ठा ॥ ७ ॥ मणिकट (काष्ट) सुवर्णरीतिप्रतिमां पाषाणनिर्मिते भुवने । यः स्थापयति भक्तियुक्तस्तस्य दुःखं नैव कदापि ॥ ८ ॥
॥ ५७ ॥
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विवप्रतिष्ठा
निर्वाणकलिका.
विधि
॥५८॥
॥५
॥
इय सामन्नपट्टा विहाण मेयं समासो भणियं । इण्हि भणिमो लिप्पाइयाण अचलाण पडिमाणं ॥४॥
तत्र पूर्ववत् भृतवलिं दत्वा चैत्यवन्दनादिकं कर्म निवर्तयित्वा शुद्धदर्पणमानीय प्रतिमाभिमुखं स्नानमण्डपपीठिकायां प्रतिमावदादर्शप्रतिविम्बितां शान्ताकृतिमभिषिच्य शेषं पूर्वविधिना निखिलमपि कर्म कर्तव्यमिति । एवमनेन विधिना यथावत् विज्ञायाभ्यस्य चाभिमानादिरहितेना(नाचा)येण प्रतिष्ठादिकं कर्तव्यमन्यथाकरणे भवपातः । तथाचोक्तम् । 'अवियाणी उणियविहिं जिणविंचं जो ठवेइ मृढमणो । अहिमाणलोहजुत्तो निवडइ संसारजलहिम्मि ॥१॥
॥ सरस्वत्यादि प्रतिष्ठा । सरस्वत्यादिप्रतिमानां च पूर्ववत मण्डलादिकं कर्म कृत्वा स्वेन स्वेन मन्त्रेण प्रतिष्ठा कर्तव्येति । तत्र तासां प्रतिष्ठादिमन्त्राः । ॐ शं नमः । ॐ ह्रीं हूँ ह्रीं नमः । ॐ जये श्रीं हूँ सुभद्रेई स्वाहा (ॐ ह्रीं क्ष ह्रीं नमः। ॐ जये श्रीं ह्रीं सुभद्रे ई स्वाहा इत्यन्यत्र)। समस्तवैयावृत्यादीनामधिवासनाप्रतिष्ठासौभाग्यमन्त्रः।
इदानी विवरणे ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं इसरस्वति अवतर २ तिष्ठ २ स्वाहा । ॐ ह्री माणिभद्रयक्ष इति सामान्यप्रतिष्ठाविधानमेतत् समासतो भणितम् । इदानी भणामो लेपादिकानां अचलानां प्रतिमानाम् ॥९॥ १ अविज्ञानी न्यूनविधि जिनबिम्ब यः स्थापयति मूढमनाः । अभिमानलोभयुक्तो निपतति संसारजलधौ ।।
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॥५६॥
अवतर २ तिष्ठा २ स्वाहा । ॐहीं वं ब्रह्मणे शान्ति अवतर २ तिष्टा २ स्वाहा । ॐहीं अं अम्बिके तिष्ट २ स्वाहा ॥ इति विम्वप्रतिष्ठा तृतीया ।
अथ हृत्प्रतिष्ठाविधिः ॥
तत्र पूर्ववत मण्डपप्रवेशं विधायोत्तरवेदिकायां यथाविभवतो हेममयं पुरुष संनिधाय पूर्ववत् संस्नाप्य चन्दनादिना विलिप्य वस्त्रैः संछाद्य निवासमण्डपं ममानीय वेदिकाय संस्थाप्य जिनाज्ञया यदवाधितं द्वादशान्तात् समानीय तदनु । ॐ ह्रां आत्मन् स्वया जिनाज्ञया अत्र शरीरे संस्थातव्यमिति रेचकेन विन्यस्य कलाविद्यारागप्रभृतिबुद्धिअहङ्कारमनःश्रोत्रत्वचक्षुजिह्वाघ्राणवाक्पाणिपादपायपस्थशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाकाशवायुतेजोजलपृथ्वीलक्षणं साधिपानधिवाहिकं देहं विन्यस्य ।। तद्यथा ॐ हां कलायै ननः । ॐ ह्रां कलाधिपतये नमः। ॐ कलाधिपास्य कतत्वव्यक्ति रु २ । ॐ हां विद्यायै नमः। ॐ हां विद्याधिपतये नमः । विद्याधिपास्य ज्ञानाभिव्यक्ति कुरु २ । ॐ हा रागाय नमः । ॐ हां रागाधिपतये नमः । रागाधिपास्य विषयेषु रागं कुरु २ । ॐ हाँ बुद्धर्थ नमः । ॐ हा बुद्धयधिपतये नमः । बुद्धयधिपास्य चोधं कुरु २ | ॐ हां अहङ्काराय नमः । ॐ हा अहङ्काराधिपतये नमः । अहङ्काराधिपास्याभिमानं कुरु २ । ॐ ह्रां मनसे नमः । ॐ हा मनोधिपतये चन्द्राय नमः । मनोधिपास्य संकल्पविकल्पं कुरु २। ॐ हां श्रोत्राभ्यां नमः । ॐ हां श्रोत्राधिपतये आदित्याय नमः । श्रोत्राधिपास्य शब्दग्राहकत्वं कुरु २। ॐ हा त्वचे नमः । ॐ हां त्वमधिपतये वायवे
॥
६॥
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निर्वाण
कलिका.
॥६०॥
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नमः | त्वगधिपास्य स्पर्शग्राहकत्वं कुरु २ । ॐ ह्रां चक्षुषे नमः । ॐ ह्रां चक्षुरधिपतये रक्ताय नमः । चक्षुरधिपास्य रूपग्राहकत्वं कुरु २ । ॐ ह्रां घ्राणाय नमः । ॐ ह्रां घ्राणाधिपतये अश्विभ्यां नमः । घ्राणाधिपास्य गन्धग्राहकत्वं कुरु २ । ॐ ह्रां वाचे नमः । ॐ हां वाचाधिपतये अग्नये नमः । वाचाधिपास्य वाचं कुरु २ । ॐ ह्रां पाणिभ्यां नमः । ॐ ह्रां पाण्यधिपतये इन्द्राय नमः । पाण्यधिपास्य पदार्थग्राहकत्वं कुरु २ । ॐ ह्रीं पादाभ्यां नमः । ॐ ह्रां पादाधिपतये विष्णवे नमः । पादाधिपास्य गमनोत्साहं कुरु २ । ॐ ह्रां पायवे नमः । ॐ ह्रां पाय्वधिपतये मित्राय नमः | पाय्वधिपास्य वायुत्सर्ग कुरु २ । ॐ ह्रां उपस्थाय नमः । ॐ ह्रां उपस्थाधिपतये ब्रह्मणे नमः । उपस्थाधिपास्यानन्दं कुरु २ । ॐ ह्रां शब्दाय नमः । ॐ ह्रां स्पर्शाय नमः । ॐ ह्रां रूपाय नमः । ॐ ह्रां रसाय नमः । ॐ ह्रीं गन्धाय नमः । ॐ ह्रीं आकाशाय नमः । ॐ ह्रां वायवे नमः । ॐ ह्रां तेजसे नमः । ॐ हां अब्भ्यो नमः । ॐ ह्रां पृथिव्यै नमः ।
एवं शेषतस्त्रजातं विन्यस्व पुनरिडा पिङ्गला सुष्मना ( सुषुम्ना ) सावित्री शङ्खिनी कूष्माण्डी यशोवती हस्तिजिह्वा पूषा अलम्बुषाख्यं नाडीदशकं प्राणापान समानो दानव्याननागपवृक देवदत्त धनञ्जयाख्यवायुदशकं विन्यसेत् ।
ॐ ह्रां इडायै नमः एवं सर्वा अपि धनञ्जयान्ता विन्यसेत् । तदन्वाचार्य गन्धपुष्पाक्षतादिभिः सम्पूज्य मुद्राभिरालभ्याईदाज्ञया प्रासादस्थितिपर्यन्तं त्वया स्थातव्यमित्यनेन मार्गेण घरान्तं निरोधयेत् । ववः
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'विवप्रतिष्ठा विधिः
॥६०॥
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I
॥६॥
शुकनासोध्व गर्भगृहे खट्वायां हेमाद्येकतमं कुम्भं मूर्तिभूतं विन्यस्य मधुघृताभ्यामापूर्य रत्नादिपञ्चकं विन्यस्य चन्दनादिना आलिप्य शुक्ले वाससी परिधाप्य रत्रपुरुषं विन्यसेत् । ततो भगवन्तं संपूज्याचार्याणां यथाशक्त्या पूजां विधाय भगवन्तं क्षामयेत् ।। ।। इति हृत्प्रतिष्ठा चतुर्थी ॥
अथ चूलिकादिप्रतिष्ठाविधिः । तत्र पूर्ववत मण्डपवेदिकादिकं विधाय प्रतिष्ठोपयोगिद्रव्यजातमानीय भतवलिं विधाय चैत्यवन्दनं कुर्यात् । तदनु चोत्तरवेदिकायां चूलकं कलशं व धर्मचक्रं द्रव्यजातं चानीय रत्नौषधिकषायाष्टवर्गमृञ्चन्दनसर्वोषध्यादिजलकलशैः संस्थाप्य श्वेते वाससी परिधाप्य अधिवासनामण्डपं प्रदक्षिणीकृत्य पूर्वद्वारेणान्तः प्रविश्य मूलवेदिकायां पर्यङ्क निवेश्य प्रतिमावत् सर्वेषां विधायात्ममन्त्रेण गन्धधूपपुष्पादतादिभिरधिवास्य बलिं निवेदयेत् ।
तदनु प्रासादं गत्वा कुम्भकजङ्घाशिखरकण्ठामल सारकेषु ब्रह्मपश्चकं पृथिव्यादीनि च तत्वानि विन्यस्य पुष्पाक्षतादिभिर्मलमन्त्रेण प्रासादमधिवासयेत् ।
ततो ध्वजं खमनेत्रपट्टांशुकादिनिर्मितं कनकपण्टिकापर्धरिकोपशोभितं विचित्र पुष्पकटकालते वृषभादिचिहिते दण्डे संयोज्य ईशान्यां मण्डलके कुम्भ विन्यस्य तस्योपरि तलिकायां महाध्वजं प्रासादायतिमानं लग्नसमये कृत्या देशिकः शिल्पी वाऽन्यतमो वा प्रासादं प्रदक्षिणीकृत्य शुभाशयः प्रासादमधिरोहयेत् ।।
ततश्चारुशक्ति चूलकाधारे रत्नपञ्चक विन्यस्य वाममार्गानुगामिना प्राणन चूलकं कलशं व धर्मचक्र च
॥६
॥
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निर्वाणकलिका.
विप्रतिष्ठा विधिः
॥६२॥
॥६२॥
यथाक्रम स्थापयेत् । ततश्च लग्नसमये ध्वजाधारे रत्नपञ्चकं निक्षिप्य प्रणवासनं दत्वा वामनाडीप्राणेन सहोभृतं दण्ड मूलमन्त्रेण निवेशयेत् । ततो मुद्रासहिताभिमन्त्रितकलशेन तत्कालोचितफलैर्धान्यैश्च घटमापूर्य कलशस्याभिषेकं कृत्वा श्वेतवाससी परिधापयेत् । तदनु मङ्गलशहतूर्यादिनिषों महाध्वज प्रसार्य चतुर्विधश्रीश्रमणसधेन स्ववान्धवयुतेन यजमानेन सह प्रदक्षिणात्रयं विधाय आचार्यों ध्वजाग्रं श्रीमद्देवपादमूले संनिरोध्य शान्तिवलि प्रक्षिप्य देवं सम्पूज्य क्षमापयेत् । तदनु कारापकायध्वजचटापनफलं श्रावयेत् । तद्यथा ॥
देवस्यायतने भक्त्या ध्वजमारोपयन्ति ये । त्रैलोक्यश्रीस्तनोत्सङ्गे 'स्वं समारोपयन्ति ते ॥१॥ धत्ते ध्वजोत्र धन्यानां सुरस शिरःस्थितः । तरङ्गिततनुः साक्षात् स्वर्गनिःश्रेणिरूपताम् ॥ २ ॥ यावन्तः प्राणिनस्तत्र लग्नाः कुयुः प्रदक्षिणाः। तावन्तः प्राप्नुवन्त्यत्र शिवस्थानकमुत्तमम् ॥ ३॥
सच श्रुत्वा कृतकृत्यमात्मानं मन्यमानो देवगुरुसङ्घपूजा विधाय दीनानाथानां चानुकम्पया स्वविभावानुरूप मन्नदानादिकं दद्यादिति ॥
दण्डं च नूतनं वेणुमयं अव्यड्गं सत्वचं सरलं शुभदेश प्रवर्धमानपर्व सर्वलक्षणसंयुतमाचार्यो गृहीत्वा देवप्रासादमानेन प्रमाण परिकल्पयेत् । तच्च हस्तात्प्रभृति नवहस्तपर्यन्तेषु प्रतिमाप्रासादेषु चतुष्करादारभ्य द्विवृद्ध्या
१ स्वामिति पाठान्तम् ।
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॥६३॥
दण्डप्रमाणमवसेयम् । ध्वजं चायापतो जङ्घार्धलम्बिजङ्घान्तं दण्डप्रमाणं च कर्तव्यम् । विस्तरतस्तु दशद्वादशषोडशाङ्गुल इति ।
मुक्ते हस्तोच्छिते कलशात्कर्ता रोगातङ्कवर्जितः स्यात् । द्विहस्तोच्छिते बहुप्रजो भवति । त्रिहस्तोच्छिते धनधान्यैर्वर्धते । चतुर्हस्तोच्छिते नृपवृद्धिः । पञ्चहस्तोच्छिते सुभिक्षं राष्ट्रवृद्धिश्चेति । तथा प्राच्या गते कर्ता सर्वकामावाप्ति आग्नेय्यां तापं याभ्यां व्याधिभयं नैऋत्यां रोगातकं वारुण्या मित्रभावं वायव्यं धान्यसम्पदं उदीच्यां धनलाभं ऐशान्यामायुवृद्धि प्राप्नोतीति ।। तत्राशुभाशागते केतौ नमस्कारसहस्र जपित्वा विशेषपूजां विधाय शान्ति कुर्यात् ॥ इति शङकुप्रतिष्ठा पञ्चमी ।।
अथ वेदिकालक्षणम् ।। तत्र नन्दा सुनन्दा प्रबुद्धा सुप्रभा सुमङ्गला कुमुदमाला विमला पुण्डरीकिण्याख्या अष्टवेदिकाः । तत्रायापविस्ताराभ्यां हस्तप्रमाणा चतुरङ्गुलोच्छ्या नन्दा । शेषास्तु विष्कम्भायामयोर्यथोत्तरं ह्रासवृद्धया पिण्डे चतुरङगुलाधिक्येनोत्तरोत्तरप्रवृद्धाः स्युः। तासां च मध्ये पूर्ववच्चतुरस्त्र क्षेत्रं संसाध्य नन्दाद्येकतमां विचित्रमणिमयेन रजसा वेदिका निष्पाद्य तत्कोणेषु ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां यथाक्रमं पलाशन्यग्रोधोदम्बरशमीमयान कीलकान्निवेशयेत् । यद्वा सर्वेषां वर्णानां वंशमयाः शस्तास्ते सर्वेऽप्येकदारुमया निणा ऊर्ध्वशाखाश्रिता राजकोटरवर्जिता निर्ग्रन्थयो द्वादशाङ्गुलप्रमाणाः कर्तव्याः ते च काष्ठलोष्ठलोहाश्मभिर्न हन्तव्याः । वेधश्च त्याज्यः ।।
॥ इति वेदिकालक्षणम् ॥
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||१|| अथ जाणोद्धारविधिः ॥ तत्र खण्डितस्फुटितभग्नवलितपतित जीर्णं दग्धसगर्भत्रण दूषितन्यूनाधिकवक्रविकराल भीषणदोषदुष्टं मन्त्रासन्निधानात् पिशाचादीनामधिष्ठानभूतं विम्बमुद्धृत्य बिम्बान्तरं प्रतिष्ठापयेत् ।
मन्त्र (तत्रा)चार्यः प्रातरुत्थाय कृतशौचस्नानविधिर्विहितसकलीकरणः खण्डितस्फुटित भग्नादिकारण विम्यान्तरं तु कामः शान्त्यर्थं दिक्पालानां बलिं दद्यात् ।
ततः ॐ इन्द्राय प्रतिगृह स्वाहा । ॐअग्नये प्रतिगृह स्वाहा । ॐ यमाय प्रतिगृह स्वाहा । ॐ नैर्ऋतये प्रतिगृह्ण स्वाहा । ॐ वरुणाय प्रतिगृह स्वाहा । ॐ वायवे प्रतिगृह स्वाहा । ॐ कुबेराय प्रतिगृह स्वाहा । ॐ ईशानाय प्रतिगृह स्वाहा । ॐ ब्रह्मणे प्रतिगृह्ण स्वाहा । ॐ नागाय प्रतिगृह्ण स्वाहा | इति स्वस्वदितु यथाक्रमं बहिर्बलिं प्रक्षिप्य वायव्यां ॐ क्षं क्षेत्रपालाय स्वाहेति क्षेत्रपालाय बलिं दत्वा । ॐ सर्वभूतेभ्यो वषट् स्वाहेति भृतादीन् संतर्प्य चैत्यादिवन्दनं कृत्वा मण्डलसमीपमागत्य स्वासनं प्रणवेन संपूज्य समुपविश्य भूतशुद्धिं कलीकरणं विशेषार्धपात्रद्रव्यशुद्धिं कृत्वा आसनपूजाप्रभृत्यावाहनान्तं कर्म कृत्वाऽर्घपाद्याचमनीयानि दत्वा निन्यविधिना साङ्गं भगवन्तं सम्पूज्य । ततः प्राच्यां । ॐ इन्द्राय स्वाहा । ॐ वज्राय स्वाहा | आग्नेय्यां ॐ अग्नये स्वाहा । ॐ शक्तये स्वाहा । याम्यायां ॐ यमाय स्वाहा । ॐ दण्डाय स्वाहा । नैऋत्यां ॐ नैऋ तये स्वाहा । ॐ खड्गाय स्वाहा । वारुण्यां ॐ वरुणाय स्वाहा । ॐ पाशाय
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विधि.
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East arrari ॐ वायवे स्वाहा । ॐ ध्वजाय स्वाहा । उत्तरस्यां ॐ कुबेराय स्वाहा । ॐ गदायै स्वाहा । ऐशान्यां ॐ ईशानाय स्वाहा । ॐ शूलाय स्वाहा । अत्रैव ॐ ब्रह्मणे स्वाहा । ॐ पद्माय स्वाहा । नैऋत्यां ॐ नागाय स्वाहा । ॐ उत्तराय (चक्राय) स्वाहा ।
एवं सास्त्राँल्लोकपालान् संपूज्य तदनु भो भोः शक्र त्वया स्वस्यां दिशि विघ्नप्रशान्तये सावधानेन शान्तिकर्मान्तं यावद्भगवदाज्ञया स्थातव्यमित्यनेन क्रमेण सर्वलोकपालान् भगवदाज्ञां श्रावयन्नस्त्रदुर्गमनुस्मरन् मण्डपस्याभ्यन्तरे समन्तादर्घाम्भसां (सा) सेचनेन विघ्नोवा (घा)टनं विधाय देवसन्निधिं गत्वा सम्पूज्य प्रातिलोम्येन सिर्जनार्थम दत्वा भगवन्तं विम्वमिदमशेषदोषावहमस्य चोद्वारे सति शान्तिः स्यादिति भगवतोक्तं । अतोऽस्य समुद्धारा समुद्यतं मामधितिष्ठैवं कुर्विति लब्धानुज्ञो हेमाद्येकतमं युम्भमानीय गालिताम्भा प्रपूर्य चन्दनपुष्पाञ्च तैः सम्पूज्य मूलमन्त्रैणाभिमन्त्रय मुद्राभिरालभ्य देवं स्नपयेत् ।
तदनु विम्बसंचालनार्थं साहस्रिकं जपं कृत्वा सुवर्णपुष्पाणा मष्टोत्तरशतेन विम्बस्य पूजां विधाय प्रतिमासमीप - मागत्य प्रतिमाङ्गस्थितं सत्वं श्रावयेत् ।।
प्रतिमारूपमास्थाय येनादौ समधिष्ठिता । स शीघ्र प्रतिमां त्यक्त्वा यातु स्थानं समीहितम् ॥ १ ॥
इति एवमुक्त्वा ॐ विसर २ स्वस्थानं गच्छेत्यनेन मन्त्रेणाधं दत्वा प्रतिमाधिष्ठायकं देवविशेषं विसर्जयेत् ।
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निर्वाण
कलिका.
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ततो हैमेन खनित्रेणास्त्राभिमन्त्रितेनोत्थाप्य हेमपाशया रज्ज्जा शिखायां प्रतिमां सन्ना 'गजादिस्कन्धं संयोज्य लोकैः सह शान्तिर्भवत्विति बहिर्देवं नीत्वा शैलपयं विम्बमगाधेऽम्भसि शिखरिणि वा क्षिपेत् । तथा मृन्मयं रत्नमयं वा अग्न्यादिदग्धमपि रत्नजं स्वतेजःस्थानवियुक्तं पूर्ववत् प्रतिष्ठापयेत् । सुवर्णादिलोहमयं तदेव समं विधाय तत्रैव स्थापयेत् ।
अनेनैव विधिना चूलकध्वजप्रासादिकं वा दोषयुक्तं विसर्जयेत् || प्रासादे चायं विशेषः || प्रासादे मन्त्रानगे समायोज्य विम्बं संरक्ष्य प्रासादनिष्पत्तिपर्यन्तं षडङ्गं संपूजयेत् । निष्पन्ने च प्रासादे षडङ्गमन्त्रान् संहृत्य समुदायेन यथास्थानं मन्त्रन्यासः कार्य इति जीर्णोद्धारं विधाय प्रायश्चित्तजपं कुर्यात् । तदनु आचार्याणां दक्षिणां दत्वा क्षमस्वेति विसर्जयेत् । एवं जीर्णबिम्वादिकमुद्धृत्य तन्मयं तत्प्रमाणं तदाकारं अन्यत् विम्यादिकं यथोक्तविधिना प्रतिष्ठापयेत् । ॥ इति जीर्णोद्धारविधिः ॥ ||१०|| अथ मुद्राविधिः ॥
तत्र दक्षिणाङ्गुष्ठेन तर्जनीमध्यमे समाक्रम्य पुनर्मध्यमा मोक्षणेन नाराचमुद्रा ॥ किञ्चिदाकुञ्चिताङ्गुलीकस्य वामहस्तोपरि शिथिलमुष्टिदक्षिणकरस्थापनेन क्कुम्भमुद्रा ॥ ॥ इति शुद्धिमुद्रादयं ॥
१ गजादेः स्कन्धमिति पाठान्तरम् ।
१ ॥ १ ॥ २ ॥ २ ॥
विवप्रतिष्ठा
विधि.
॥६६॥
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॥६७॥
बद्धमुष्टयोः करयोः संलग्न सन्मुखागुष्ठयोः हृदयमुद्रा ॥ १ ॥ ३ ॥ तावेव मुष्टी समीकृतोर्चाङ्गुष्ठौ शिरसि विन्यसेदिति शिरोमुद्रा ।। २ ॥ ४ ॥ पूर्ववत् मुष्टी बघा तर्जन्यौ प्रसारयेदिति शिखामुद्रा ।। ३ ॥ ५ ।। पुनमुष्टिवन्धं विधाय कनीयस्यङगुष्ठौ प्रसारयेदिति कवचमुद्रा ॥ ४ ॥ ६ ॥ कनिष्ठिकामगुष्ठेन संपीडय शेषाङ्गुलीः प्रसारयेदिति क्षरणमुद्रा ।। ५ ।। ७ ।। दक्षिणकरेण मुष्टिं वध्या तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति अस्त्रमुद्रा ॥६॥८॥
॥एता हृदयादीनां विन्यसनमुद्रा ॥ प्रसारिताधोमुखाभ्यां हस्ताभ्यां पादागुलीतलामस्तकस्पर्शान्महामुद्रा ॥१॥ह ।। अन्योन्यग्रन्धितागुलीषु कनिष्ठिकानामियोमध्यमातर्जन्यश्च संयोजनेन गोस्तनाकारा धेनुमुद्रा ॥२॥१०॥ हस्ताभ्यामञ्जलि कृत्वा प्रकाममूलपाङ्गुष्ठसंयोजनेनावाहनोमुद्रा ॥ ३ ॥ ११ ।। इयमेवाधोमुखी स्थापनी ॥४॥१२॥ संलग्नमुष्ट्युच्छितागुष्ठौ करौ संनिधानी ॥॥१३॥ तावेव गर्भगाङ्गुष्ठौ निष्ठुग ॥ ६ ॥ १४ ॥
एता आवाहनादिमुद्राः। बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमातर्जन्योविस्फारितप्रसारणेन गोवृषमुद्रा ॥१॥१५ ।।
11६७॥
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निर्वाणकलिका.
विप्रतिष्ठा विधि:
॥६६॥
11६८॥
पद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य प्रसारिततर्जन्या वामहस्ततलताडनेन त्रासनोमुद्रा ॥ २ ॥ १६ ॥
एते नेत्रास्त्रयोः पूजामुद्रे॥ । अङगुष्ठे तर्जनी संयोज्य शेषाङ्लीप्रसारणेन पाशमुद्रा ॥१॥१७॥ बद्धमुष्टेवामहस्तस्य तर्जनों प्रसार्य किंचिदाकुश्चयेदित्यङकुशमुद्रा॥२॥१८ ।। संहतो गुलियामहस्तमले चाङ्गुष्ठं तिर्यविधाय तजेनीचालनेन ध्वजमुद्रा ॥३॥१६॥ दक्षिणहस्तमुत्तानं विधायाधःकरशाखां प्रभारयेदिति वरदमुद्रा ॥ ४ ॥२०॥
एता जयादिदेवतानां पूजामुद्राः॥ वाहस्तेन मुष्टि वधा कनिष्ठिका प्रसार्य शेयाङगुली कराङ्गुष्टेन पीडयेदिति शमुद्रा॥१॥२१।। परस्पराभिमुखहस्ताभ्यां वेणीवन्धं विधाय मध्यमे प्रसार्य संयोज्य च शेषाङ्गुलीभिर्मुष्टी बन्धयेदिति शक्तिमुद्रा ॥२॥२२ हस्तद्वयेनाङ्गुष्ठतर्जनीभ्या बलके विधाय परस्परान्तःप्रवेशनेन शृङ्खलामदा ॥ ३ ॥ २३ ॥ वामहस्तस्योपरि दक्षिणकरं कृत्वा कनिष्ठिकाङ्गुष्ठाभ्यां मणिबन्धं संवेष्ट्य शेषाङ्गुलीना विस्फारितप्रसारणेन
वज्रमुद्रा ॥ ४ ॥२४॥ वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं संनिवेश्य कर शाखा विरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा ।। ५ । २५ ।। पद्माकारी कगै कृत्वा मध्येऽङ्गुष्ठौ कर्णिक कारौ विन्यसेदिति पद्ममद्रा ।। ६ ॥ २६ ।।
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॥६६॥
वामहस्तमुष्टरुपरि दक्षिण मुष्टिं कृत्वा गात्रेण सह किश्चिदुनामयेदिति गदामुद्रा ॥७॥ २७॥
अधोमुखवामहस्ताङगुलीघण्टाकाराः प्रसार्य दक्षिणेन मुष्टिं बधा तर्जनीमध्वा कृत्वा वामहस्ततले नियोज्य घण्टावञ्चालनेन घण्टामुद्रा ॥ ८ ॥ २८ ॥
उन्नतपृष्ठहस्ताभ्यां संपुटं कृत्वा कनिष्ठिके निष्कास्य योजयेदिति कमण्डलुमुद्रा ॥ 8 ॥ २६ ॥ पताकावत् हस्तं प्रसार्य अङ्गुष्ठयोजनेन परशुमुद्रा ॥ १० ॥ ३०॥ यद्वा पताकाकारं दक्षिणकरं संहताङ्गुलि कृत्वा तर्जन्यमुष्ठाक्रमणेन परशुमुद्रा द्वितीया॥११॥ ३१ ॥ ऊर्ध्वदण्डौ कगै कृत्वा पद्मवत् करशाखाः प्रसारयेदिति वक्षमद्रा॥ १२ ॥ ३२॥ दक्षिणहस्तं संहतालिमुन्नमय्य सर्पफणावत् किश्चिदाकुश्चयेदिति समद्रा ॥ १३ ॥ ३३ । दक्षिणकरेण मुष्टि बद्ध वा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति खड्गमद्र
हस्ताभ्यां संपुटं विधायागुलीः पनवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयो तन्मूललग्नाङ्गुष्ठी कारयेदिति ज्वलनमुद्रा॥१५॥३५॥ बद्धमुष्टेर्दक्षिणकरस्य मध्यमाङ्गुष्ठतर्जन्योम लात्क्रमेण प्रसारयेदिति श्रीमणिमुद्रा ॥ १६ ॥ ३६ ॥
एताः षोडशविद्यादेवीनां मुद्राः॥ १ दक्षिणमुष्टि इति पाठः ।
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निर्वाणकलिका.
विवप्रतिष्ठा
विधिः
॥७
॥
॥७
॥
दक्षिणहस्तेन मुष्टिं बद्ध वा तर्जनी प्रसारयेदिति दण्डमद्रा॥१॥३७॥
परस्परोन्मुखौ मणिवन्धाभिमुखकरशाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणाङ्गुष्ठकनिष्ठिकाभ्यां वाममध्यमानामिके तर्जनी च तथा वामाङ्गुष्टकनिष्ठिकाभ्यामितरस्य मध्यमानामिके तर्जनी समाक्रमयेदिति पाशमुद्रा ॥२॥३८ ।।
परस्पराभिमुखमाङ गुल्यौ करौ कृत्वा तर्जनीमध्यमानामिका विरलीकृत्य परस्परं संयोज्य कनिष्ठिकाङ गुष्ठौ पातयेदिति शूलमद्रा ॥ ३ ॥ ३६॥ यद्वा पताकाकारं करं कृत्वा कनिष्ठिकामङ गुष्ठेनाक्रम्य शेषाङ गुलीः प्रसारयेदिति शलमुद्रा द्वितीया ॥४॥
॥४०॥ एताः पूर्वोक्ताभिः सह दिक्पालानां मुद्राः॥ ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसायं कनिष्ठिकादितर्जन्यन्तानामगुलीनां क्रमसङ्कोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहारमुद्रा ।
॥१॥४१॥ विसर्जनमुद्रेयम् ॥ उत्तानहस्तद्वयेन वेणीवन्धं विधायागुष्ठाभ्यां कनिष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे संगृह्यानामिके समीकुर्यादिति परमेष्ठिमुद्रा ॥ १ ॥ ४२ ॥
यद्वा वामकराङ गुलीरूर्वीकृत्य मध्यमा मध्यमे कुर्यादिति द्वितीया ॥२॥ ४३ ।।
पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीवन्धं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यौ संश्लेष्य शेषाङगुलिमध्ये अङ्गुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पाश्र्वमुद्रा ॥ ३ ॥ ४४ ॥
एता देवदर्शनमुद्राः॥
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॥७१॥
इदानीं प्रतिष्ठोपयोगिमुद्राः । उत्तानो किञ्चिदाकुञ्चितकरशाखी पाणी विधारयेदिति अञ्जलिमुद्रा || १ || ४५॥ अभयाकारौ समश्रेणिस्थिताङ्गुलीको करौ विधायाङ्गुष्ठयोः परस्पग्ग्रथनेन कपाटमुद्रा || २ || ४६ ।। चतुरङ्गुलमग्रतः पादयोरन्तरं किञ्चिन्न्यूनं च पृष्ठतः कृत्वा समपादकायोत्सर्गेण जिनमुद्रा ॥ ३ ॥ ४७ ॥ परस्पराभिमुखौ ग्रथिताङ्गुलीको करौ कृत्वा तर्जनीभ्यामनामिके गृहीत्वा मध्यमे प्रसार्य तन्मध्येऽङ्गुष्ठद्वयं निक्षिपेदिति सौभाग्यमुद्रा ॥ ४ ॥ ४८ ॥
वामहस्वाङ्गुलितर्जन्या कनिष्ठिकामाक्रम्य वर्जन्यग्रं मध्यमया कनिष्ठिकाग्रं पुनरनामिकया आकुञ्न्य मध्येऽङ्गुष्ठं निक्षिपेदिति योनिमुद्रा ।। ५ ।। ४६ ।।
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आत्मनोऽभिमुख दक्षिणहस्तकनिष्ठिकया वामकनिष्ठिकां संगृह्याधः परावर्तितहस्ताभ्यां गरुडमुद्रा ।। ६ ।। ५० ।। संलग्नौ दक्षिणाङ्गुष्ठाक्रान्तामाद्गुष्ठपाणीति नमस्कृतिमुद्रा ॥ ७ ॥ ५१ ॥ किञ्चित् गर्भित हस्तौ समौ विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा ॥ ८ ॥ ५२ ॥ जानुहस्तोत्तमाङ्गादिसंप्रणिपातेन प्रणिपातमुद्रा ॥ ६ ।। ५३ ।।
संमुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमाङ्गुष्ठकनिष्टिकानां परस्परयोजनेन त्रिशिखमुद्रा ॥ १० ॥ ५४ ॥ पराङ्मुखहस्ताभ्यामङ्गुली र्विदर्म्य मुष्टिं बध्वा तर्जंन्यौ समीकृत्य प्रसारयेदिति भृङ्गारमुद्रा ।। ११ ।। ५५ ।। वामहस्तमणिबन्धोपरि पराङ्मुखं दक्षिणकरं कृत्वा करशाखा विदर्भ्य किश्चिद्वामवलनेनाधोमुखाङ्गुष्ठाभ्यां मुष्टि
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निर्वाणकलिका.
विवप्रतिष्ठा विधि
॥७२॥
॥७२॥
बना समुत्क्षिपेदिति योगिनीमद्रा॥ १२ ॥ ५६॥
ऊर्ध्वशाखं वामपाणिं कृत्वाऽङ्गुष्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमयेदिति क्षेत्रपालमुद्रा ॥ १३ ॥ ५७ ॥ दक्षिणकरेण मुष्टिं बधा कनिष्ठिकाङ्गुष्ठौ प्रसार्य डमरुकवच्चालयेदिति उमरुकमुद्रा ॥ १४ ।। ५८ ॥ दक्षिण हस्तेनोर्धाङ्गुलिना पताकाकारेणाभयमुद्रा ।। १५ । ५६ ॥ तेनैवाधोमुखेन वरदा ॥ १६ ॥६०॥ वामहस्तस्य मध्यमाङ्गुष्ठयोजनेन अक्षसूत्रमुद्रा ।। १७ ।। ६१ ॥ बद्धमुष्टेदक्षिण हस्तस्य प्रलारिततर्जन्या वामहस्ततलाताडनेन वासनी ॥ १८ ॥ ६२ ।। पद्ममुद्रेव प्रसारिताङ्गुष्ठसंलग्नमध्यमामुल्यमा बिम्प(विश्व मद्रा ।। १६ ।। ६३ ॥
॥ एताः सामान्य मुद्राः ॥ इति मुद्राविधिः॥
॥११॥ श्रथ प्रायश्चित्तविधिः॥ तत्र श्रेष्ठविम्बे नष्टे दग्धे तस्करादिहते मूलमन्त्रस्य लक्षं जपित्वा विम्बान्तरप्रतिष्ठापनेन शुद्धयति । हस्तात्पतिते व्यङ्गे दशसहस्र जपित्वा पुनः पूजां कुर्यात् । द्विहस्तात्पतिते व्यङ्गे लक्षमेकं जपित्वा पुनः संस्कारेण शुद्धयति । पुरुषमात्रात्पतिते प्रयत्नपूर्व सशलाके सर्वतो विशीर्णे प्रायश्चित्तं नास्तीति । अस्य यमर्थः-शलाकाभेदधातस्यातिगुरुत्वान्न प्रतिमादिना भवितव्यम् । स्थण्डिलेऽप्यावाहनादिषु समाप्ते पूजाकर्मण्यविसर्जित एव देवेशे (देवेन) प्रमादादुपधाते जाते अर्चापुष्पादिभ्यो मन्त्रान् संहृत्य सहस्रपञ्चकं जपित्वा साधून् भोजयेत् ।
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॥७३॥
देवोपकरणं पादेन स्पृष्ठा शतपश्चकं जपेत् । सन्ध्यालोपे नीरुजः सोपवासं शतं जपेत् । सरुजः शतं जपेदेव । एकाहं देवस्थानचैने त्रिरात्रमुपोषितः प्रत्यहं त्रिशतं जपेत् । निर्माल्य भक्षणे त्वकामानमस्कारायुतं (दशसहस्र) जपेत् । ततो विशेषपूजया तपस्विदानेन शुद्धयति । कामतो लक्षं नमस्कारस्यावत्योपवासपञ्चकं कुर्यात् ।
निर्माल्यभेदाः कथ्यन्ते ।। देवस्वं देवद्रव्यं नैवेद्यम् निवेदितं निर्माल्यं वेति । देवसम्बन्धिग्रामादि देवस्वं । अलंकारादि देवद्रव्यम् । देवार्थमुपकल्पितं नैवेद्यम् । तदेवोत्सृष्टं निवेदितं । बहिनिक्षिप्तं निर्माल्यम् । पञ्चविधमपि निर्माल्यं न जि नावलङ्घयेत् न च दद्यान्न विक्रीणीत । दत्वा क्रव्यादो भवति भुक्त्वा मातङ्गो लङ्घने सिद्धिहानिः आघ्राणे वृक्षः स्पर्शने स्त्रीत्वं विक्रये शवरः । पूजायां दीपालोकनधूपान्नादिगन्धे न दोषः । नदीप्रवाहनिर्माल्येऽपि च ।
सूतकशावाशौचयोः परकीययोने भोक्तव्यम् । भुक्त्वा वा अकामतः समुपोष्य मन्त्रसहस्र जपेत् । कामतस्तूपवासनयं कृत्वा मूलमन्त्रं सहस्रनयमावतयेत्। आत्मसम्बन्धिनोः सूतकशावाशौचयोः सूतकिजनसंस्पर्श विधाय प्रथपाकेन भोक्तव्यमन्यथा नित्यहानिर्भवति । अथ सूतके शावाशौचे च सुधर्मस्थेन क्रियानुष्ठानपरेण ज्ञानवता वृत्तवता च न नित्यक्षतिः कार्या । यदि च नित्यानुष्ठानं न भवति प्रमादात् सूतकिसंसृष्टासाधारणपाकभोजनं वा तदा स उपोष्य सहस्र जपेत् । कामतस्त्रिगुणं तदेव । आह्निकदेवतार्चनादिलोपे मूलमन्त्रस्यायुतं जपेत् । सम्पोष्य शतं वा जपेत् ॥ इति प्रायश्चित्तविधिः।।
||७३॥
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निर्वाणकलिका.
अहंदादीनां वर्णादिक्रमः
11७४॥
॥१२॥ अथार्हदादीनां वर्णादिक्रमविधिः ॥ तत्राद्यं कनकावदातवृषलाञ्छनमुत्तराषाढाजातं धनराशि चेति । तथा तत्तीर्थोत्पन्नगोमुखयक्षं हेमवर्णगजवाहनं चतुभुजं वरदाक्षसूत्रयुतदक्षिणपाणिं मातुलिङ्गपाशान्वितवामपाणिं चेति । तथा तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामप्रतिचक्राभिधानां यक्षिणी हेमवां गरुडवाहनामष्टभुजां वरदवाणचकपाशयुक्तनक्षिणकरां धनुर्वेज्रचक्राङ्कुशवामहस्तां चेति ॥१॥
द्वितीयमजितस्वामिनं हेमाभं गजलाञ्छनं रोहिणीजातं वृषराशि चेति । तथा तत्तीर्थोत्पन्नं महायक्षाभिधानं यक्षेश्वरं चतुर्मखं श्यामवर्ण मातङ्गवाहनमष्टपाणि वरदमद्गराक्षसूत्रपाशान्वितदक्षिणपाणिं बीजपूरकामपाकुशशक्ति. युक्तवामपाणिपल्लवं चेति । तथा तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामजिताभिधानं यक्षिणीं गौरवर्णा लोहासनाधिरूढां चतुर्भजा वग्दपाशाधिष्ठितदक्षिणकगं वीजपूरकाङ्कुशयुक्तवामकरां चेति ॥ २ ॥
तथा तृतीयं सम्भवनाथं हेमाभं अश्वलाञ्छनं मृगशिरजातं मिथुनराशिं चेति । तस्मिस्तीर्थे समुत्पन्नं त्रिमुखयक्षेश्वरं त्रिमखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण मयूरवाहनं षट्भुज नकुलगदाभययुक्तदक्षिणपाणिं मातुलिङ्गनागाक्षसूत्रान्वितवामहस्तं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समत्पन्ना दुरितारिदेवी गौरवर्णा मेषवाहनां चतुर्भजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां फलाभयान्धितवामकरां चेति ॥३॥
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॥७५॥
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तथा चतुर्थमभिनन्दनजिनं कनकद्युतिं कपिलाञ्छनं श्रवणोत्पन्नं मकरराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नमीश्ररक्षं श्यामवर्णं गजवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गाचमूत्रयुतदक्षिणपाणि नकुलाङ्कुरान्वितवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां कालिकादेवीं श्यामत्रणां पद्मासनां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितः क्षिणभुजां नागाङ्कुशान्वितवामकरां चेति ॥४॥ तथा पञ्चमं सुमतिजिनं हेमवणं क्रौञ्चलाञ्छनं मघोत्पन्नं सिंहराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं तुम्बरुयक्षं गरुडवाहनं चतुर्भुजं वरदशक्तियुतदक्षिणपाणि नागपाशयुक्तवामहस्तं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां महाकालीं देवीं सुवण पद्मवाहनां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरां मातुलिङ्गाङ्कुशयुक्तवामभुजां चेति ॥ ५ ॥
तथा षष्ठं पद्मप्रभं रक्तवर्णं कमललाञ्छनं चित्रानक्षत्रजातं कन्याराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं कुसुमं यक्षं नीलवर्ण कुरङ्गवाहनं चतुर्भुजं फलाभययुक्तदक्षिणपाणि नकुलका क्षमूत्रयुक्त वामपाणि चेति तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामच्युत देवीं श्यामवर्णा नरवाहनां चतुर्भुजां वरदवी (बा) णान्वितदक्षिणकरां कामुकाभययुतवामहस्तां चेति ।। ६ ।।
तथा सप्तमं सुपार्श्व वर्ण स्वस्तिकलाञ्छनं विशाखोत्पन्नं तुलाराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं मातङ्गयक्षं नीलवर्णं गजवाहनं चतुर्भुजं वित्तपाशयुक्तदक्षिणपाणिं नकुल काङ्कुशान्वितवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां शान्तादेवीं सुवर्णवर्णां गजवाहनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां शूलाभययुतवामहस्तां चेति ॥ ७ ॥
तथाष्टमं चन्द्रप्रभजिनं धवलवर्णं चन्द्रलाञ्छनं अनुराधोत्पन्नं वृश्चिक राशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं विजययक्षं हरितवर्णं त्रिनेत्रं हंसवाहनं द्विभुजं दक्षिणहस्ते चक्रं वामे मुद्गरमिति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां भृकुटिदेवीं पीतवण
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॥७६॥
वराह(विडाल)वाहनां चतुभुजां खड्गमुद्गगरान्वितदक्षिणभुजा फलकपरशुयुतवामहस्तां चेति ॥८॥
तथा नवमं सुविधिजिनं धवलवर्ण मकरलाञ्छनं मूलनक्षत्रजातं धनूगशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नमजितयक्ष श्वेतवर्ण विवप्रतिष्ठा कूर्मवाहनं चतुभुजं मातु लिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्षिण पाणिं नकुल कुन्तान्वितवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना
विधि सुतारादेवी गौरवां वृषवाहनां चतुभुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणभुजा कलशाकुशान्वितबामपाणिं चेति ।।6।।
तथा दशमं शीतलनाथं हेमाभं श्रीवत्सलाञ्छनं पूर्वाषाढोत्पन्नं धनूगशि चेति । तस्मिस्तीर्थे समुत्पन्नं ब्रह्मयक्षं K७६॥ चतुमुखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण पद्मासनमष्टभुजं मातुलिङ्गमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलकगदाङ्कुशाक्षसूत्राविन्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां अशोका देवीं मुद्गवर्णा पद्मवाहनां चतुभुजां वरदपाशयुक्तदक्षिणकगं फलाङ्कुशयुक्तवामकरां चेति ॥१०॥
तथैकादशं श्रेयांसं हेमवर्ण गण्डकलाञ्छनं श्रवणोत्पन्नं मकरराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नमीश्वरयक्षं धवलवर्ण त्रिनेत्रं वृषभवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गगदान्वितदक्षिणपाणिं नकुलकाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां मानवी देवी गौरवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां वरदमुद्गरान्वितदक्षिणपाणिं कलशाकुशयुक्तवामकरां चेति ॥ ११ ॥
तथा द्वादशं वासुपूज्यं रक्तवर्ण महिपलाञ्छनं शतभिपजि जातं कुम्भराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं कुमारयक्षं श्वेतवर्ण हंसवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गवाणान्वितदक्षिणपाणिं नकुल कधनुयुक्तिवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे
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||७७||
समुत्पन्न प्रचण्डादेवी श्यामवर्णा अश्वारूढां चतुभुजा वरदशक्तियुक्तदक्षिणकगं पुष्पगदायुक्तवामपाणि चेति ॥१२॥
तथा त्रयोदशं विमलनाथं कनकवर्ण बराहलाञ्छनं उत्तरभाद्रपदाजातं मीनराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्न पण्मुखं यक्ष श्वेतवर्ण शिखिवाहनं द्वादशभुजं फलचक्रवाणखड़गपाशाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलचक्रधनुःफलकाकुशाभययुक्तवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां विदितां देवी हरितालवर्णां पद्मारूढां चतुभुजां बाणपाशयुक्तदक्षिणपाणि धनुर्नागयुक्तवामपाणिं चेति ॥ १३ ॥
तथा चतुर्दशं अनन्तं जिनं हेमवर्ण श्येनलाञ्छनं स्वातिनक्षत्रोत्पन्नं तुलाराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं पातालयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्ण मकरवाहनं षड्भुजं पद्मखड्गपाशयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलफलकाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां अङ्कुशां देवीं गौरवर्णां पद्मवाहनां चतुर्भुजा खड्गपाशयुक्तदक्षिणकरी चर्मफलकाङ्कुशयुतवामहस्ता चेति ॥ १४ ॥
तथा पञ्चदशं धर्मजिनं कनकवर्ण वज्रलाञ्छनं पुष्योत्पन्न कर्कराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं किंनरयझं त्रिमुख रक्तवर्ण कूर्मवाहनं षट्भुजं बीजपूरकगदाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलपद्माक्षमालायुक्तवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थ समुत्पन्नां कन्दर्पा देवीं गौरवां मत्स्यवाहनां चतुभुजा उत्पलाङ्कुशयुक्तदक्षिणकरां पद्माभययुक्तवामहस्तां चेति ॥१॥
तथा षोडशं शान्तिनाथं हेमवर्ण मृगलाञ्छनं भरण्यां जातं मेषराशि चेति । तत्तीथोत्पन्न गरुडयक्षं वराहवाहनं क्रोडवदनं श्यामवर्ण चतुभुजं बीजपूरकवद्मयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलकाक्षसूत्रवामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां
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K अहंदादीनां वर्णादिक्रमः
॥७८॥
॥७८॥
निर्वाणां देवी गौरवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजा पुस्तकोत्पलयुक्तदक्षिणकरां कमण्डलुकमलयुतवामहस्तां चेति ॥१६॥
तथा सप्तदशं कुन्थुनाथं कनकवणं छागलाञ्छनं कृत्तिकाजातं वृषभराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्न गन्धर्षयक्षं श्यामवणं हंसवाहनं चतुर्भुजं वरदपाशान्वितदक्षिणभुजं मातुलिङ्गाङ्कुशाधिष्ठितवामभुजं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां वला देवी गौरवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भजा वीजपूरकशूलान्वितदक्षिणभुजा भुषुण्ढिपद्मान्वितवामभुजां चेति ॥१७॥
तथा अष्टादशमं अरनाथं हेमा नन्दा(धा)वर्तलाञ्छनं रेवतीनक्षत्रजातं मीनराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं यक्षेन्द्रयक्ष षण्मुखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण शम्बर(शङ्ख)वाहनं द्वादशभुजं मातुलिङ्गवाणखड्गमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलधनुश्चफलकशूलाकुशाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्ना धारणी देवीं कृष्णवर्णा चतभुजा पद्मासना मातुलिङ्गोत्पलान्वितदक्षिणभुजां पाशाक्षसूत्रान्वितवामकरां चेति ॥१८॥
तथैकोनविंशतितमं मल्लिनाथं प्रियगुवर्ण कलशलाञ्छनं अश्विनीनक्षत्रजातं मेषराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्न कुबेरयक्षं चतुमुखमिन्द्रायुधवर्णं गरुडवदनं गजवाहनं अष्टभुजं वरदपाश(परशु)चापशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिं वीजपूरकशक्तिमुद्गराक्षमत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां वैरोटयां देवीं कृष्णवर्णा पद्मासनां चतुभुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां मातुलिङ्गशक्तियुक्तवामहस्तां चेति ॥ १६ ॥
तथा विंशतितम मुनिसुव्रतं कृष्णवर्ण कूर्मलाञ्छनं श्रवणजातं मकरराशिं चेति । तत्तीत्पिन्नं वरुणयक्षं चतुमुखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण वृषभवाहनं जटामुकुटमण्डितं अष्टभुजं मातुलिङ्गगदावाणशक्तियुतदक्षिणपाणिं नकुलकपद्म
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11७६।।
धनुःपरशुयुतवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां वरदत्ता देवीं गौरवणां भद्रासनारूढां चतुभुजां वरदाक्षसूत्रयुतदक्षिणकरां बीजपूरककुम्भ(मातुलिङ्गशूल)युतवामहस्तां चेति ।। २० ॥
तथेकविंशतितम नमिजिनं कनकवर्ण नीलोत्पललाञ्छनं अश्विनीजातं मेषराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं भृकुटियक्षं चतमुखं त्रिनेत्रं हेमवर्ण वृषभवाहनं अष्टभुजं मातुलिङ्गशक्तिमुद्गराभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलपरशुवत्राक्षभूत्रधामपाणि चेति । नर्गन्धारीदेवों श्वेतां हंसवाहनां चतुभुजा वरदखड़गयुक्तदक्षिणभुजद्वयां बीजपूरकुम्भयुतवामपाणिद्वयां चेति ।। २१ ॥
तथा द्वाविंशतितम नेमिनाथं कृष्णवर्ण शङ्कलाञ्छनं चित्राजातं कन्याराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं गोमेधयक्षं त्रिमुखं श्यामवर्ण पुरुषवाहनं पट्भुजं मातुलिङ्गपरशुचक्रान्वितदक्षिणपाणिं नकुलकशूलशक्तियुतवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां कूष्माण्डी देवी कनकवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजा मातुलिङ्गपाशयुक्तदक्षिणकरां पुत्रानुशन्वितवामकरी चेति ॥ २२॥
तथा त्रयोविंशतितमं पार्श्वनाथं प्रियङ्गुवर्णं फणिलाञ्छनं विशाखाजातं तुलाराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं पार्श्वयक्षं गजमुखमुरगफणामण्डितशिरसं श्यामवर्ण कूर्मवाहनं चतुर्भुज वीजपूरकोरगयुतदक्षिणपाणिं नकुलकाहियुतबामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां पद्मावती देवी कनकवर्ण कुकु (क)टवाहनां चतुर्भुजां पद्मपाशान्वितदक्षिणकरां फलानुशाधिष्ठितवामकरां चेति ।। २३ ।।
॥७३॥
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निर्वाण कलिका.
अहंदादीनां वर्णादिक्रमः
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तथा चतुर्विंशतितमं वर्धमानस्वामिनं कनकप्रभ सिंहालाञ्छनं उत्तराफाल्गुन्यां जातं कन्याराशिं चेति । तत्तीथोत्पन्नं मातङ्गयक्ष श्यामवर्ण गजवाहनं द्विभुजं दक्षिणे नकुलं वामे चीजपूरकमिति । तत्तीर्थोत्पन्नां सिद्धायिका हरितवर्णा सिंहवाहनां चतुभुजां पुस्तकाभययुक्तदक्षिणकरां मातुलिङ्गवाणान्वितवामहस्तां चेति ।। २४ ॥
तथा श्रुतदेवता शुक्लवर्णां हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदकमलान्वितदक्षिणकरां पुस्तकाक्षमालान्वितवामकर चेति ।
तथा शान्ति देवता धवलवां कमलासनां चतुभुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां कुण्डिका कमण्डलल्बन्वितवामकरां चेति ।। इति अर्हदादीनां वर्णादिक्रमकथनम् ॥
॥१३॥ अथ विद्यादेवीनां षोडशकम् ।। तत्राद्यां रोहिणी धवलवां सुरभिवाहनां चतुभुजामक्षसूत्रवाणान्वितदक्षिणपाणि शङ्खधनुयुक्तवामपाणि चेति ।। १ ।। तथा प्रज्ञप्ति श्वेतवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भुजां बरदशक्तियुक्तदक्षिणकरां मातुलिङ्गशक्तियुक्तवामहस्तां चेति ।। २ ।। तथा वज्रशृङ्खलां शङ्खावदाता पद्मवाहनां चतुर्भुजां वरदशृङ्खलान्वितदक्षिणकरां पद्मशृङ्खलाधिष्ठितबामकरी चेति ।। ३ ।। तथा वज्राङ्कुशां कनकवर्गां गजवाहनां चतुभुजा वरदवज्रयुतदक्षिणकरां मातुलिङ्गाङ्कुशयुक्तवामहस्तां चेति ।। ४ ।। तथा अप्रतिचक्रां तडिद्वर्णा गरुडवाहनां चतुभुजां चकचतुष्टयभूपितकरां चेति तथा पुरुषदत्ता कनकावदातां महिषीवाहनां चतुभुजां वरदासियुक्तदक्षिणकगं मातुलिङ्गखेटकयुतवामहस्तां चेति ॥ ६ ॥ तथा काली देवीं कृष्णवां पद्मासनां चतुभुजां अक्षसूत्रगदालङ्कृतदक्षिणकरा बछाभययुतवामहस्तां चेति ।। ७ ।।
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॥८१॥
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तथा महाकालीं देवीं तमालवण पुरुषवाहनां चतुर्भुजां अक्षमूत्रवज्रान्वितदक्षिण करामभयघण्टालङ्कृतवामभुजां चैति ॥ ८ ॥ तथा गौरीं देवीं कनक गौरीं गोधावाहनां चतुर्भुजां वरदमुसलयु तदक्षिण कर मक्षमाला कुवलयालङ्कृतवामहस्तां चेति ॥ ६ ॥ तथा गान्धारीं देवीं नीलवणां कमलासनां चतुर्भुजां वरदमुसलयुतदक्षिणकरां अभयकुलिशयुतवामहस्तां चेति ||१०| तथा सर्वास्त्रमहाज्वाला धवलवर्णां वराहवाहनां असंख्यप्रहरणयुत हस्तां चेति ॥११॥ तथा मानव श्याम कमलासनां चतुर्भुजां वरदपासालङ्कृतदक्षिणकरां अक्षसूत्र विटपालङ्कृतवामहस्तां चेति ॥ १२ ॥ तथा वै श्यामवर्णा अजगरवाहनां चतुर्भुजां खड्गोरगालङकृत दक्षिणकरां खेटकादियुतवामकरां चेति ॥ १३ ॥ तथा अछुप्तां तडिद्वर्णा तुरगवाहनां चतुर्भुज खड्गवाणयुतदक्षिणकरां खेटक्का हियुक्तवामकरां चेति ॥ १४ ॥ तथा मानव हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदवचालङ्कृतदक्षिण करो अक्षवलयाशनियुक्तवामकरां चेति ||१५|| तथा महामानस वर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां वरदासियुक्त दक्षिणकरां कुण्डिका फलकयुतवामहस्तां चेति ॥ १६ ॥ इति विद्यादेवीषोडशकम् ॥ || १४ || अथ लोकपालाः ॥
॥
तत्र शक्रं पीतवर्ण ऐगवतवाहनं वज्रपाणि चेति ॥ १ ॥ तथा अग्नि अग्निवर्ण मेषवाहनं सप्तशिखं शक्तिपाणि चेति ||२|| तथा यमराजं कृष्णवर्ण महिषवाहनं दण्डपाणि चेति || ३ || तथा नैर्ऋति हरितवर्ण शववाहनं खडगपाणि चेति ॥४॥ तथा वरुणं धवलवणं मकरवाहनं पाशपाणि चेति || ५|| तथा वायु सितवर्ण मृग वाहनं वज्रा (ध्वजा) लङकृत
॥८१॥
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निर्वाणकलिका.
अहंदादीन वर्णादिक्रम
॥८२॥
|८२॥
पाणि चेति ॥ ६ ॥ तथा कुबेरमनेकवर्ण निधिनवकाधिरूढं निचुलकहस्तं तुन्दिलं गदापाणिं चेति ॥ ७॥ तथेशानं धवलवर्ण वृषभवाहनं त्रिनेत्रं शूलपाणिं चेति ॥८॥ तथा नागं श्यामवर्ण पद्मवाहनमुरगपाणि चेति ॥४॥ तथा ब्रह्माणं धवलवर्ण हंसवाहनं कमण्डलुपाणिं चेति ॥१०॥ इति दिक्पालदशकम् ॥
॥१५॥ श्रथ ग्रहाः॥ तत्रादित्यं हिङगुलवर्णमूर्ध्व स्थितं द्विभुजं कमलपाणि चेति ॥१॥ तथा सोमं श्वेतवणं द्विभुजं दक्षिणे अक्षसूत्रं वामे कुण्डिका चेति ॥२॥ तथाङ्गारकं रक्तवर्ण द्विभुजं दक्षिणेऽक्षसूत्रं वामे कुण्डिका चेति ।। ३ ।। तथा बुधं पीतवर्ण द्विभुज अक्षसूत्रकुण्डिकापाणिं चेति ॥४॥ तथा सुरगुरुं पीतवर्ण द्विभुजं अक्षमत्रकुत्डिकापाणिं चेति ||| तथा शुक्र श्वेतवर्ण द्विभुज अक्षसूत्रकमण्डलुपाणि चेति ॥६॥ तथा शनैश्चरमीषत्कृष्णं द्विभुजं लम्बकूर्च किश्चित्पीतं द्विभुजमक्षमालाकमण्डलुयुक्तपाणि चेति ।।७॥ तथा राहुमतिकृष्णवर्ण अर्धेकायरहितं द्विभुजमर्घमुद्रान्वितपाणि चेति ।।८।। तथा केतु धूम्रवर्ण द्विभुजमक्षमत्रकुण्डिकान्वितपाणिं चेति ॥६॥ इति ग्रह नवकम् ।।
तथा ब्रह्मशान्ति पिङ्गवर्ण दंष्ट्राकरालं जटामुकुटमण्डितं पादुकारूदं भद्रासनस्थित मुपवीतालङ्कृतस्कन्धं चतुभुजं अक्षसूत्रदण्डकान्वितदक्षिणपाणिं कुण्डिकाछत्रालङ्कृतवामपाणि चेति ॥१॥ तथा क्षेत्रपालं क्षेत्रानुरूपनामानं श्यामवर्ण चर्बरकेशमावृत्तपिङ्गनयनं विकृतदंष्ट्र पादुकाधिरूढं नग्नं कामचारिणं षटभुजं मुद्गरपाशडमरुकान्वितदक्षिण
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॥३॥
पाणि श्वानानुशगेडिकायुक्तवामपाणि श्रीमद्भगवतोदक्षिणपाश्र्वे ईशानाश्रितं दक्षिणाशामुखमेव प्रतिष्ठाप्यमिति ॥२॥ ॥ इति श्री निर्वाणकालिकाभिधानयां प्रतिष्ठापद्धतौ श्रीमजिनादीनां वर्णादिविधिः॥
॥१६॥ अथ प्रशस्तिः ॥ श्री विद्याधरवंशभूषणमणिः प्रख्यातनामा भुवि,
श्रीमत्सङ्गमसिंह इत्यधिपतिः श्वेताम्बराणामभूत् ॥ शिष्यस्तस्य बभूव मण्डनगणिर्योवाचनाचार्य इ-त्युच्चैः पूज्यपदं गुणगुणवतामग्रेसरः प्राप्तवान् ॥१॥ क्षान्तेः क्षेत्रं गुणमणिनिधिस्तस्य पादलिप्तसूरिजर्जातः शिष्यो निरुपमयशःपूरिताशावकाशः ॥ विन्यस्तेयं निपुणमनसा तेन सिद्धान्तमन्त्राण्यालोच्यैषा विधिमविदुषां पडतिर्योधिहेतोः ॥२॥
॥ शुभमस्तु । XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX * इति निर्वाणकालका समाप्ताः Xxxxx****************
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निर्वाण कलिका
॥४॥
॥ श्री पार्श्वनाथाय नमः ।। पूज्य आचार्य विजय सुदर्शनसूरीश्वरजी महाराज ज्ञानमन्दिर
ज्ञानभराडार :: देवाली ( उदयपुर-मेवाड़)
श्री भुवन सुदर्शन सूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थरत्नोनी यादी १. स्तवन गहुंली संग्रह १२. गणिपद महोत्सव
२१. धर्मादा द्रव्यनी व्यवस्था (हिन्दी) २. प्रकरण स्तोत्रादि संग्रह १३. गुरु गुण गीत अंग्रह
२२. विहरमान पट (हिन्दी) ३. प्रकरणमाला (मोटा अक्षर) १४. संस्कार सोपान
२३. संवत्सरी क्षमापना (हिन्दी) ४. जिनेन्द्र स्तवनावली १५. बारव्रतनी टीप
२४. जीवन किरण (गुजराती) ५. कर्मग्रन्थ सार्थ (१ थी ४) १६. स्नात्रपूजा सार्थ (हिन्दी) २५. यशोधर चरित्र (संस्कृत) ६. विहार दर्शन दीपिका १७. जिनेन्द्र गुरु गुण सरिता
२६. शान्तिस्नात्र काड ७. प्रकरण माला (नाना अक्षर) १८. जोवन झरमर (गुजराती) २७. निर्वाण कलिका (संस्कृत) ८. कर्मग्रन्थ मूल (१ थी ६) १९. सातक्षेत्र अने धमद्रव्यनी व्यवस्था २८. पोरत्न महोदधि ९. कर्मप्रकृति मूल
(गुजराती) १०. जिनगुणरत्न मंजुषा
२०. जीवन ज्योति (हिन्दी) ११. जिनेन्द्र भक्ति कणिका
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