Book Title: Aendra Stuti Chaturvinshika Sah Swo Vivaran
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका.. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द - जैनप्रन्थरत्नमालाया एकोनाशीतितमं (७९) रत्नम् । महोपाध्याय श्रीयशोविजयविरचिता ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिक्रा (स्वोपज्ञविवरणयुता) छाणिग्रामवास्तव्य -श्रेष्ठिगरबडदासतनूजनगीनदासस्य किश्चिदूनद्रव्य साहाय्येन भावनगरस्था श्रीजैन - आत्मानन्दसभा । वीरसंवत् २४५४. आत्मसंवत् ३३ संपादक: मुनिपुण्यविजयः प्रकाशयित्री मूल्यम् - चत्वार आणकाः { विक्रमसंवत् १९८४ शाकाब्दः १८४९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Vallabhadas Tribhuvandas Gandhi, Sooretary Jain Atmanand Sabba, Bhavnagar, Kathiawar, Printed by Ramchandra Yesa Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbbat Lane, Bombay, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. __ आजे विद्वानो समक्ष स्खोपज्ञटीकासहित ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका धरीए छीए । जेना कर्ता न्यायविशारद न्यायाचार्य श्रीमान् यशोविजयोपाध्याय छे । तेओश्रीमाटे आज सुधीमां घणुं लखायुं छे, छतां हजु घणुं लखवु शेष रहे छ । परन्तु अत्यारे तेने लगती तैयारी न होवाथी ते बाबतथी विरमी मात्र स्तुतिओने अंगे ज अहीं कांइ लखवानो इरादो छ । __ अत्यारे आपणा समक्ष ९६ काव्यप्रमाण यमकालंकारमयी जे स्तुतिचतुर्विंशतिकाओ विद्यमान छे ते सौमां रचनासमयनी दृष्टिए आचार्यबप्पभट्टिकृत स्तुतिचतुर्विंशतिका प्रथम छे अने यशोविजयोपाध्यायकृत अंतिम छे । अत्यारे नीचे प्रमाणेनी स्तुतिचतुर्विंशतिकाओ जोवामां आवे छे १ स्तुतिचतुर्विशतिका आचार्यबप्पभट्टि मुद्रित . १ आचार्य बप्पट्टि पांचाल (पंजाब) देशनिवासी हता। तेमना पितार्नु नाम बप्पि, मातानुं नाम भट्टि अने पोतार्नु नाम सुरपाल हतुं । तेमणे सातमे वर्षे दीक्षा लीधी हती। माता-पितानी प्रसन्नताने माटे तेमनुं नाम बप्प-भट्टि राखवामां आव्यु हतुं । तेमनुं मुख्य नाम भद्रकीर्ति हतुं । गुरु आचार्य सिद्धसेन हता। कन्नोजना राजा आमराजे तेओने यावज्जीव मित्ररूपे अने मरणसमये गुरुतरीके स्वीकार्या हता। 'गउडवहो' महाकाव्यना कर्ता महाकवि श्रीवाक्पतिराजने पाछली अवस्थामां प्रतिबोध कर्यानुं पण कहेवामां आवे छे। तेमनो जन्म संवत् ८०० भाद्रपद तृतीया रविवार हस्तनक्षत्र, दीक्षा ८०७ वैशाख शुक्ल तृतीया, आचार्यपद ८११ चैत्र वदि ६, स्वर्गवास ८९५ श्रावण शुदि ८ स्वातिनक्षत्र । एमणे तारागणनामनो ग्रंथ रच्यो छे जे अत्यारे मळतो नथी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. शोभनमुनि मेरुविजयगणि यशोविजयोपाध्याय ५ (अपूर्ण) अज्ञात * - २७ थी ३९ काव्य अगर श्लोकप्रमाण यमकालंकारमयी स्तुतिचतुर्विंशतिकाओ नीचे प्रमाणेनी मळे छे. "भद्रकीर्तेर्धमत्माशाः कीर्तिस्तारागणाध्वना । प्रभा ताराधिपस्येव श्वेताम्बरशिरोमणेः ॥ ३२ ॥" तिलकमारी पृ. ४ : आमनुं विशेष चरित्र जाणवानी इच्छावाळाए प्रभावकचरित्र उपदेशरत्नाकर आदि ग्रंथो जोवा। १ शोभनमुनि महाकवि धनपालना लघुभाइ थाय । २ मेरुविजयगणि विजयसेनसूरिना राज्यमां थया छे। तेमना गुरुनुं नाम आनन्दविजयगणि हतुं। ___३ आ चतुर्विशतिकानी प्रारंभनी सात न स्तुतिओ (२८ कान्य ) "दाशसाहे. बनी पूजा" आदि बुकोमा छपाई छ । पाछळनी मळती नहीं होय एस लागे छ । * आ पांच स्तुतिचतुर्विशतिका सिवायनी ९६ काव्यप्रमाण आमलिक कल्याणसागरसूरिकृत पण एक मळे के. परन्तु ते यमकालंकारमयी त होवाकी देनी अही नोंच लीधी नबी ४ आ स्तुतिओमा २४ पद्य प्रत्येक तीर्थकरनी स्तुतिरूप होक के, अने त्रण पत्र अनुक्रमे सर्व जिनस्तुति ज्ञानस्तुति तथा शासनाधिष्ठातृदेवतानी स्तुतिरूप होक छे, जे दरेक तीर्थकरनी स्तुतिना पद्य साथे जोडीने बोलवानां होय छ । केटलीका चतुर्विशतिकामा २७ करतां वधारे पद्य छे तेनुं कारण मात्र एटलू ज छ के-तेमा मंगलाचरण के कर्टनामगर्म कान्य अथवा बन्ने सामेल होय छे । जेमा २९ करता धारे पथ छे तेमां शाश्वतजिन, सीमंधर आदि जिनोनी स्तुतिनां पच पण साभेल छे एम जाणवू। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ स्तुतिचतुर्विंशतिका २ ૪ ५ 22 ६ " " "" "> "" प्रस्तावना : २९ श्रो० केविचक्रवर्ती श्रीपाल २७ का० सोमप्रभाचार्य ३९ श्लो० धैर्मघोषसूरि मुद्रित 1 १ कविचक्रवर्ती श्रीपाल प्राग्वाटज्ञातीय ( पोरवाड) हता । तेमना पितानुं नाम लक्ष्मण हतुं । तेओ गुर्जरेश्वर सिद्धराजना बाळमित्र हता । तेमने सिद्धेराज 'कवीन्द्र' तथा ' भ्रातः ' ए शब्दोयी ज संबोधता । तेओ प्रशाचक्षु हता । वडनगरना किल्लानी प्रशस्तिमां पोते अने नामेयनेमिद्विसन्धान काव्यमा आचार्य. हेमचन्द्रे आपेल " एकाइनिष्पन्नमहाप्रबन्धः " ए विशेषणथी तेमणे कोई महान् ग्रन्थनी : रचना अवश्य करी छे । परन्तु अत्यारे तो आपणने तेमनी कृतिना नमुना तरीके प्रस्तुत चतुर्विंशतिका अने वडनगरमा किल्लानी प्रशस्ति ज जोवा मळे छे। नामैय नेमिद्विसन्धानकाव्यने आ कविचक्रवतींए ज शोषेल छे । सिद्धराजना अध्यक्षपण नीचे थes वादिदेवसूरि अने कुमुदचंद्राचार्यना वादसमये तेओ सभामा हाजर हता । तेमना पुत्र सिद्धपाल तथा पौत्र विजयपाल पण महाकवि हता । आ सौनों विस्तृत परिचय मेळवावा इच्छनारे श्रीमान् जिनविजयजी संपादित द्रौपदीस्वयं वरनाटकनी प्रस्तावना जोवी । २८ का० 33 ३० श्लो० जिर्नप्रभसूरि २८ का० " मुद्रित २ सोमप्रभाचार्य महाराजा कुमारपालदेवना समयमां अने ते पछी पण विद्यमान हता । तेमणे सूक्तमुक्तावली सुमतिनाथचरित्र कुमारपालप्रतिबोध भंगारवैराग्यतरंगिणी शतार्थीवृत्ति आदि ग्रन्थो रच्या छे। ३ धर्मघोषसूरि कर्मग्रन्थादि प्रसिद्ध समर्थ ग्रन्थोना प्रणेता तपा केंद्रसूरिना शिष्य हता । तेमणे चैत्यवन्दनभाष्यनी संघाचारनाम्नी टीका वीतकल्प समवसरण योनिस्तव कालसप्तरि आदि ग्रन्थो रच्या छे । ४ आचार्य जिनप्रम खरतरगच्छीय हता । तेभोभीए संदेहविचापनि विप्रण विविषतीर्थकल्प आदि अनेक ग्रन्थो रच्या के। सब खुतिकातरी तो वेभोनुं स्थान सौ कस्ता उंचुं छे । तेमणे तथा श्रीसोमतिला Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. २९ श्लो. चारित्रस्नगणि २९ का.. २९ का० धर्मसागरोपाध्याय २७ का. ११ ,(यमकरहित प्राकृत) २७ आर्या १२ शाश्वतजिनयुत विहर. मानजिनचतुर्विशतिका २७ का. मुद्रित उपर नोंध लीधी ते सिवायनी अन्य स्तुतिचतुर्विंशतिकाओ होवी जोइए, पण अत्यार सुधीमा जे जे दृष्टिपथमा आवी छे तेनी ज नोंध मात्र आ स्थळे करी छे । अहीं आपेल सूचीमांनी लगभग घणी खरी ऋषभादि वीरपर्यन्त जिननी तेम ज यमकालंकारमयी छे । भणाववामाटे एकीसाथे सात सो स्तोत्र भेट आप्या हता। प्रत्यहं नवीन स्तोत्रनी रचना कर्या पछी ज भोजन लेवु एवी तेमने प्रतिज्ञा हती "पुरा श्रीजिनप्रभसूरिभिः प्रतिदिननवस्तवनिर्माणपुरःसरनिरवधाहारग्रहणाभिअहवद्भिः प्रत्यक्षपद्मावतीदेवीवचसाऽभ्युदयिनं श्रीतपागच्छं विभाव्य भगवतां श्रीसोमतिलकसूरीणां स्वशैक्षशिष्यादिपठनविलोकनाद्यर्थ यमक-श्लेष-चित्र-च्छन्दोविशेषादिनवनवभङ्गीसुभगाः सप्तशतीमिताः स्तवा उपदीकृता निजनामाकिताः॥" सिद्धान्तागमस्तवावचूरिप्रारम्मे ॥ १ चारित्ररलगणि तपा सोमसुन्दरसूरिना शिष्य हता । तेमणे दानप्रदीप चित्र कूटविहारप्रशस्ति आदिनी रचना करी छे । तेओ विक्रमनी पंदरमी-सोळमी सदीमां विधमान हता। धर्मसागरोपाध्याय विजयदानसूरिना शिष्य अने प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिना गुरुभाइ हता। तेओश्रीए गच्छान्तरीओने परास्तकरवामाटे अनेक समर्थ अने प्रमाणभूत ग्रन्थोनी रचना करी छे । तेमनी कृतिओमां जंबूद्वीपप्रशप्तिदीका पाल्पकिरणावली इरियावहीपटूनिशिकासटीक पर्युषणादशशतक प्रवचनपरीक्षा षोडशकीवृत्ति औष्टिकमतोत्सूत्रदीपिका तपागच्छीयपट्टावली आदि मुख्य छ। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. आथी इतर अल्प प्रमाणमा ज जोवामां आवे छे, जेनी नोंध पण उपर लीधी छे । भिन्न भिन्न आचार्यादिकृत पर्वतिथिमाहात्म्यगर्भित तीर्थमाहात्म्यगर्मित तेम ज तीर्थकरोनी छुटक स्तुतिओ यमक पादपूर्तिरूप तथा सामान्यछन्दरूप घणा ज विस्तीर्ण प्रमाणमा उपलब्ध थाय छे। ___ आ सर्व चतुर्विंशतिकाओमांनी अगर छुटक कोइ पण चार पद्यनी स्तुति देववन्दनमा कायोत्सर्ग कर्या पछी अवश्य बोलवानी होय छे । तेमां नीचे प्रमाणेना अर्थाधिकारो-विषयो होय छे अथवा होवा जोइए अहिगयजिण पढम थुई, बीआ सबाण तइअ नाणस्स। वेयावच्चगराणं, उवओगत्थं चउत्थ थुई ॥५२॥ देववन्दनभाष्य ॥ * अर्थात्-प्रथम स्तुतिमां विवक्षित कोई एक तीर्थकरनी स्तुति, बीजीमां सर्व जिनोनी स्तुति, त्रीजीमां जिनप्रवचननी अने चोथीमां वैयावृत्यकर देवताओ, स्मरण । ___ उपर जे स्तुतिचतुर्विंशतिकाओनी सूची आपवामां आवी छे ते पैकी शोभनमुनिकृत चतुर्विंशतिकाना अनुकरणरूप आपणी प्रस्तुत चतुर्विंशतिका छे एम तेनी साथे सरखावतां स्पष्ट रीते तरी आवे छे । आ अनुकरण छन्द अलंकार विशेषण भावार्थ आदि अनेक रीते करवामां आव्युं छे, एटलं ज नहि पण केटलेक स्थळे तो वाक्यनां वाक्यो अने पदनां पदो पण नहि जेवो फेरफार करीने जेमनी तेस उपाध्यायजीए आहरी लीधा छ । जो आपणे बराबर तारवण Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना.. वाढीए तो लगभग चोथा भाग जेटली स्तुतिमओ एवी ज नजरे पडे के जेमा सोभनस्तुतिमा आवतो केटला एक विशेषणों मात्र शाब्दिक फेरफार करीने लीधेलां छे । जो के छन्द अने अलंकारमाटे कोइनो दावो न ज होई सके छतां शोभनमुनिए जे स्तुतिमाटे जे छन्द अने यमकालंकारनो जे भेद पसंद कर्यो छे तेने ज उपाध्यायजी पसंद करे ए उपरथी एटलं तो कही शकाय के-तेओश्री समक्ष शोभनमुनिकृत स्तुतिओ ज मुखतया आदर्शरूप छे । आ प्रकारनी पसंदगीथी उपाध्यायजीने यमकालंकारमयी स्तुतिना निर्माणमा तेम ज शोभनस्तुतिनां पद-वाक्य-विशेषणोना आहरणमां केवी सुगमता थइ छे ए नीचेनां उदाहरणोपरची समजी शकाशेकाव्य पाद ८३ १ जलव्यालव्याघ्रज्वलनगजरुग्बन्धनयुधो ८४ १ गजव्यालव्याघ्रानलजलसमिद्वन्धनरुजो ४ ३ पायावः श्रुतदेवता विवधती तत्राब्जकान्ती क्रमौ ४ २-४ सौभाग्याश्रयतां हिता निदधती पुण्यप्रभाविक्रमौ ७२ १ याऽत्र विचित्रवर्णविनतात्मजपृष्ठमधिष्ठिता ७२ १-२ चक्रधरा करालपरघातबलिष्ठमधिष्ठिता प्रमा सुरबिनतातनुभवपृष्ठमनुदितापदरं गतारवाक् १. सुमते सुमते १८-४ विभवा विभवाः १७ १सुमतिं सुमतिं १७-४ विभवं विभवं २४ १ गान्धारि वज्रमुसले जयतः समीर २४ ३ गान्धारि वज्रमुसले जगती तवास्याः ३७ १जयति शीतलतीर्थकृतः सदा ३५ १जयति शीतलतीर्थपतिजने ५३ १ नुदंस्तन प्रवितर मल्लिनाथ में ७३ महोदयं प्रषितनुमल्लिनाथ में शो. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य पाद ६९ ६९ เก ७१ ८८ ८८ प्रस्तावना. १ व्यमुखचक्रवर्त्तिलक्ष्मीं० ३ विगणितचक्रवर्त्तिवैभवं० १ भीममहाभवान्धि० १ भीमभवोदघे० १ हस्तालम्बितचूत लुम्बिलतिका यस्या जनोऽभ्यागमत् शो० ३ दद्यान्नित्यमिताम्रलुम्बिलतिकाविभ्राजिहस्ताऽहितम् ऐ० अहीं जे वाक्योनी नोंध आपी छे ते उपाध्यायजीए पद - वाक्यादिनुं. आहरण केवुं कर्तुं छे ते जाणवा माटे । विशेषणो अने भावार्थनं आहरण तो आखी स्तुतिमां स्थळे स्थळे जोवामां आवे छे। तेनां उदाहरणो आ स्थळे न आपतां जिज्ञासुओने ते स्तुति साथै सरखाक्वा भलामण छे । शौंο उपर कहेवामां आव्युं के - ' प्रस्तुत चतुर्विंशतिका शोभनस्तुतिना अनुकरणरूप छे' ए उपरथी कोइए एम न मानी लेबुं के आ चतुविंशतिकामां कशी नवीनता ज नथी । उपाध्यायजीनी एवी कोइ कृति ज नथी के जेमां नवीनता तेम ज गांभीर्य न होय । ते मंभीस्ताने तेओश्रीए स्वयं टीकामां स्थळे स्थळे प्रकट करेल छे । अमे तें पंक्तिओने स्थूलाक्षरमां छपानी छे । आ पंक्तिओ शास्त्रीय गंभीर विद्यारोथी भरपूर छे । आ ठेकाणे एक वात कहेवी जोइए के-जेम अन्य प्रतिभासंपन्न विद्वान् कविओनी यमकालंकारमय कृतिभो विष्टार्थत्व] दूरान्वयत्क आदि दोषोथी वंचित नथी रही शकी, ते ज प्रमाणे उपाध्यायजीनी प्रस्तुत कृति पण ते दोषोषी वंचित नथी ज रही की । जो के Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतावना. केटलांक पयो एवां पण तारवी शकीए तेम छ के-जेमा आवा दोषो न पण होय, तथापि तेटला उपरथी आखी कृतिने निर्दोष तो न ज कही शकाय । नाने मोढे कहेवायली आ वातने विद्वानो क्षमानी दृष्टिथी जुए एम इच्छु छु । ' प्रस्तुत स्तुतिना संपादनसमये तेनी खोपज्ञटीकायुक्त मात्र एक ज प्रति पूज्य श्रीमान् सागरानन्दसूरि महाराज पासेथी मळी छे । ते २४ पानानी अने नवीन लखेली छे । आ प्रतिनो उतारोजेना उपरथी करवामां आव्योछे ते प्रति चोंटी गयेल हती। तेने उखाडतां तेमां जे स्थळे अक्षरो उखडी गया ते स्थान नवीन प्रतिमां खाली छे । लेखके प्रमादथी अनेक स्थळे पाठो छोडी दीघा छे एटलं ज नहि पण ते लिपिनो अज्ञ होवाथी तेणे पण अशुद्धिओमा मोटो उमेरो कर्यो छे । आ रीते प्रस्तुत चतुर्विंशतिकानी प्रति अयंत अशुद्ध होवा छतां तेने शुद्ध करवामाटे तेम ज तूटी गयेला पाठोने उपाध्यायजीना शब्दोमां ज सांधवामाटे यथाशक्य यत्न को । प्रतिमां ज्या ज्यां अशुद्धिओ हती ते दरेक स्थळे सुधारेला पाठो गोळ कोष्ठकमां आप्या नथी, परन्तु लगभग अंदर ज सुधारी दीधा छ । आ प्रमाणे करवामां कोइ स्थळे प्रमादथी स्खलना थवा पामी होय तो ते माटे विद्वानो समक्ष क्षमा याचना छ । : उपरोक्त प्रति सिवाय एक अवचूरिनी प्रति प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजना छाणीना ज्ञानभंडारमाथी मळी छ । आ अवचूरि खोपज्ञ टीकाने आधारे करेल टांचणरूप होइ स्वोपज्ञ टीकाना ज शब्दोमां होवाथी टीकाना संशोधनमां कचित् कचित् सहायक थइ छ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. प्रस्तुत चतुर्विशतिकानी प्रेसकॉपीने वळानिवासी न्याय-व्याकरणतीर्थ पं० श्रीबेचरभाइए तपासी तेमांनी अशुद्धिओमां घटाडोको छ । उपरना सजनोनी सहायथी आ चतुर्विशतिकाने ध्यानपूर्वक सुधारखा छतां स्खलना थइ होय अथवा अशुद्धि रही होय तो विद्वानो तेनुं परिमार्जन करे एम इच्छी विरमुं । पुण्यविजय. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका .. .., 'अन्यनाम. ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका .... परमज्योतिष्पश्चविंशतिका . .... परमात्मपञ्चविंशतिका .... विजयप्रभसूरेः स्वाध्यायः .... शत्रुञ्जयमण्डनश्रीऋषभदेवस्तवनम् पत्रम्. -८६ ८७ ___ .... - सूचना ८ पृष्ठे १२ पडौ "सुअ [ अज्झावणा]" स्थाने "सुअसमाही" इति ज्ञेयम् ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञविवरणयुता ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ॥ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिपादपझेभ्यो नमः॥ श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविरचिता ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका। खोपज्ञविवरणयुता। cooooooo ऐन्द्रवृन्दनतं पूर्ण-ज्ञानं सत्यगिरं जिनम् । नत्वा विवरणं कुर्वे, स्तुतीनामर्हतामहम् ॥ १ ॥ ऐन्द्रवातनतो यथार्थवचनः प्रध्वस्तदोषो जगत्, सद्यो गीतमहोदयः शमवतां राज्याऽधिकाराजितः। आद्यस्तीर्थकृतां करोत्विह गुणश्रेणीर्दधन्नाभिभूः, सद्योगीतमहोदयः शमऽवतां राज्याऽधिका राजितः॥१॥ ऐन्द्रेति ॥ 'इह' जगति 'जगत्' विशिष्टभव्यलोकम् 'अववीम्' उपदेशद्वारा रक्षतां तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ-प्रवचनं तदाधारत्वात् चतुर्विधः श्रमणसङ्घः तं कुर्वन्तीति तीर्थकृतः-अर्हन्तः तेषां मध्ये 'आद्यः प्रथमः 'नाभिभूः' श्रीनाभिनृपनन्दन ऋषभदेवः सद्यः' तत्कालं 'शं' सुखं करोतु इत्यन्वयः । कथम्भूतः ? ऐन्द्रेणइन्द्रसम्बन्धिना बातेन-समूहन नतः-नमस्कृतः। पुनः किंविशिष्टः १ यथार्थम्-अबाधितं वचनम्-उपदेशो यस्य सः। पुनः किं०१ प्रकर्षण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ऋषभअपुनर्भावलक्षणेन ध्वस्ता:-नाशिताः दोषाः-रागादयो येन सः। पुनः किं. १ 'शमवताम्' उपशमिनां 'राज्या' श्रेण्या गीतो महान उदयः-सानातिशयः महानाम्-उत्सवानाम् उदयो वा यस्य, गीते महोदये-कान्तिकरुणे वा यस्य सः। पुनः किं ? राज्याधिकारैःराज्यकार्यैः अजितः, अजित इति राज्येण मधियामारमरिय(?)तस्याजित इति वा अनापादितसंश्लेशा, राज्ये आधिकारा:-मानसव्यथाकारिणः शत्रवः तैः अजित इति वा, राज्याधिरेव कारा दुःखहे. तुत्वात् तया *अजित इति वा । पुनः किं कुर्वन् ? 'अधिकाः' प्रत्यहं प्रवर्द्धमानाः अधिकं कं-सुखं याभ्य इति वा, 'गुणश्रेणीः' [प्रशमादि ] गुणपरम्पराः 'धत् बिभ्रत् । पुनः किं० ? 'सद्योगी' सकलातिशायितया उत्तमो योगी-चरणचिसम्पन्नः । पुनः किं० ? इत:-प्राप्तो महोदयः-मोक्षो येन अत एव 'राजितः शोभितः,न पात्र करणापेक्षा तददितविवक्षायामनियमात् (?), अधिकेन केन-सुखेन आ-समन्ताद् राजितः-शोभित इत्येकमेव वा विशेषणं व्याख्येयम् । अनच भगक्सश्चत्वारः पूजाद्यतिशयाः प्रतिपादिता, तद्यथा"ऐन्द्रबासनतः"] इति विशेषणेन सकलसुरासुरनिकायनायकाणाममतिपादनात् पूजाविशयः, "यथार्थवधनः" इत्यनेन विद्वजनीनोपदेशपेशलपरमाप्तभावप्रतिपादनाद् वचनातिशयः, “प्रध्वस्तदोषा! १“ज्ञानम् अतिशयो वा” इत्यवचूर्याम् ॥ २ अत्र "अजित इति, राज्ये भाषिक भारः अरिसमूहस्तेन अजितः-अनापादितसंक्लेश इति वा इति पाए स्यादा प्रत्येऽस्मिन् सर्वत्र फुलयन्तर्मतः पाठः लेखकारमदमतितवादमामिः नव्या स्थापितः कल्पनयेति ज्ञेयम् ॥ ४ एतारक [ ].कोटान्तर्गतः पाठोऽस्मत्समीपं. स्मादर्शगतशून्यस्थाने लिखितो यः॥ - . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि] केन्द्रलुवित्रतुर्विशविका । इत्यनेन च संस्कारखीत(संसारखीज)रागद्वेषोच्छेदप्रतिपादनाद अपाकारणमातिया "गीतमहोदयः" इत्यनेन च निखिलयोगिजनवर्णनीय इत्य................केवलज्ञानमाहात्म्यप्रतिपादनाद सानातिशय उपदर्शित इति ॥ १ ॥ उभूताप्रतिरोधबोधकलितत्रैलोक्यभाववजास्तीर्थे शस्तरसा महोदितभयाऽकान्ताः सदा शापदम् । पुष्णन्तु स्मरनिर्जयप्रसमरप्रौढप्रतापप्रथा... स्तीर्थेशस्तरसा महोदितभया[:] कान्ताः सदाशापदम्।।२।। उद्भूतेति ॥[तीर्थेशः' तीर्थङ्कराः] 'तीर्थे सङ्घ सत्यः-निदामाधकलङ्कितत्वेन से.........सेतार्थप्राप्तोपचितं कुर्वन्तु, भवति हि उपाये प्रवृत्तानां............स्तत्राभिलाषः । तदुक्तम्-' भवतु.....................प्रवृत्तमुपेयमाधुर्यमधैर्यकारि।" इति। कथम्भूतम् ? सदा 'शापदं' शापम्-उपालम्भं द्यतीति शापदम्, अगहणीयमित्यर्थः। तीर्थेशः [किम्भूताः ? उद्भूतः-] ज्ञानावरणविलये: ने प्रकटीभूतोऽप्रतिरोधः-क्षयोपशमावस्थाविरहादनिरुद्धप्रसरो यो बोधः केवलज्ञानं तेन [कलित:-] साक्षात्कृतः त्रैलोक्यभावव्रजःत्रिजगतिपदार्थसार्थो यैस्ते । पुनः किं० १ शस्तः-सकलरसाभ्यहिंततया प्रशस्तो रसः-शान्ताख्यो येषां ते, शस्ते-कल्याणे रसो येषां त इति वा। पुनः किं० १ महती-विपुला सती उदिता-उद्गता महै:. १ "सताम्-उत्तमानाम, आशायाः-इच्छायाः पदं-स्थानं 'पुष्णन्तु' इष्टदाने फालवत् कुर्वन्तु ।" इत्सवचूर्याम् ॥ २ मत्र त्रुटितः पाठः “समीचीना या मायाः-इच्छाः तासां पद-स्थामं 'पुष्णन्तु'......"इत्यादिर्भवेत् ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ ऋषभ - उत्सवैरुदिता वा या भा-कान्तिः तया 'कान्ताः' मनोहराः । पुनः किं० १ स्मरस्य - कन्दर्पस्य निर्जयेन - विजयेन प्रसृमरा - प्रसरणशीला प्रौढप्रतापस्य प्रथा - ख्यातिः येषां ते । पुनः किं० ? ' तरसा' वेगेन महसा - तेजसा दिवं खण्डितं भयं यैस्ते । पुनः किं० ? 'अकान्ताः नास्ति कान्ता येषां ते, अकस्य - दुःखस्य अन्तो येभ्यस्ते इति वा ॥२॥ जैनेन्द्रं स्मरतातिविस्तरनयं निर्माय मिथ्यादृशां, सङ्गत्यागमऽभङ्गमानसहितं हृद्यप्रभावि श्रुतम् । मिथ्यात्वं हरदूर्जितं शुचिकथं पूर्ण पदानां मिथः, सङ्गत्या गमभङ्गमानसहितं हृद्यप्रभाः ! विश्रुतम् ॥ ३ ॥ जैनेन्द्रमिति ॥ भोः 'हृयप्रभाः !' हृद्या - मनोज्ञा प्रभाकान्तिः येषां ते यूयं 'जैनेन्द्र' पारमर्षं 'श्रुतं' सिद्धान्तमाचाराङ्गादिकं 'हृदि' हृदये 'स्मरत' स्मृतिविषयं कुरुत । किं कृत्वा ? 'मिथ्यादृशां'मिथ्यादृष्टीनां ‘सङ्गत्यागं' सम्बन्धपरित्यागं 'निर्माय' विधाय मिथ्यादृष्टिसङ्गो हि क्षयोपशमभावं लब्धमपि निहत्य औदयिकभावसाम्राज्यमेव सम्पादयति, अत एव तत्संस्तवः सम्यत्वातिचार उक्तः परमर्षिभिरिति तत्परित्यागेनैव श्रुतस्मरणं श्रेयस्करमित्यूह्यम् । श्रुतं किं० ? अतिविस्तराः - बहुप्रपञ्चा : - नैगम संग्रह व्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूतलक्षणा यत्र तत् । पुनः किं० ? अभङ्गम् - अश्रद्धारहितं मानसं येषां तेषां हितंप्रियावहम् । पुनः किं० ? 'ऊर्जितं ' स्फूर्जितं मिध्यात्वं हरत् । पुनः किम्भूतम् ? शुचयः - पवित्राः कथाश्च - धर्मकथितानि यत्र तत् । पुनः किं० १ पदानां मिथः ' परस्परं 'सङ्गत्या' प्रसङ्गादिलक्षणया नया: Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । (पूर्णम्' अन्यूनम् । यद्यपि सङ्गतिकर्म धर्म एव, तथापि पदानां परम्परया सङ्गतिमत्त्वं नानुपपन्नम् । पुनः किं० ? गमा:-सदृशपाठाः भङ्गाश्च-विकल्पविशेषाः मानानि च-प्रत्यक्षादिप्रमाणानि तैः सहितम् । [पुनः किं० ? 'विश्रुतं' प्रथितम् । ] मिथ्यात्वं कीदृशम् ? 'अप्रभावि' प्रभावरहितम् ॥ ३ ॥ या जाड्यं हरते स्मृताऽपि भगवत्यऽम्भोरुहे विस्फुर. सौभाग्या श्रयतां हिता निदधती पुण्यप्रभाविक्रमौ । वाग्देवी वितनोतु वो जिनमतं प्रोल्लासयन्ती सदाऽसौभाग्याश्रयतां हितानि दधती पुण्यप्रभावि क्रमौ॥४॥ ॥ इति श्रीऋषभजिनस्तुतिः॥१॥ येति ॥ असो वाग्देवी 'वः' युष्माकं 'सदा' नित्यं हितानि वितनोतु । किं कुर्वती ? 'जिनमतम्' आहेतशासनं 'प्रोल्लासयन्ती' प्रभावयन्ती। पुनः किं कुर्वती ? भाग्यस्य-शुभादृष्टस्य आश्रयतां-स्थानतां दधती' बिभ्रती। जिनमतं कीदृशम् ? पुण्यं प्रकर्षेण भावयति तत् पुण्यप्रभावि । वाग्देवी पुनः किं कुर्वती ? 'अम्भोरुहे' कमले 'क्रमौ' चरणौ निदधती' स्थापयन्ती। कीदृशौ क्रमौ ? * पुण्यौ-पवित्री प्रभाविक्रमो-कान्तिपराक्रमौ ययोः याभ्यां वा, प्रकृष्टौ भाविक्रमौ ययोस्तो प्रभाविक्रमौ, ततः * पुण्यौ च तो प्रभाविक्रमौ चेति वा समासः । असौ का ? या भगवती 'स्मृताऽपि' चिन्तिताऽपि किं पुनर्विशिष्य आराद्धेत्यपिशब्दार्थः, 'जाड्यम्' अज्ञानं हते, न च 'देवताप्रसादादज्ञानोच्छेदासिद्धिः, तस्य कर्मविशेषविनाशाधीनत्वात्' इति वाच्यम्, देवताप्रसादस्यापि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ अजित क्षयोपशमाधायकत्वेन तथात्वाद्, द्रव्यादिकं प्रतीत्य क्षयीपशमप्रसिद्धेः, तदुक्तम्उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दवाइँ पंच कप्पs" इति किमतिविस्तरेण ? । किम्भूता ? विस्फुरत्-विभ्राजमानं सौभाग्यं - सुभगत्वं यस्याः सा । पुनः किं० ? 'श्रयतां भजतां 'हिता' हितकारिणी ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीप्रथमजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १ ॥ मुनिततिरपि यं न रुद्धमोहा, शमजितमारमदं भवन्दिताऽऽपत् । भज तमिह जयन्तमाऽऽतुमीशं, शमऽजितमाऽऽरमऽदम्भवन् । दितापत् ॥ १ ॥ मुनिततिरिति ॥ हे 'अदम्भवन् !' अकपटवन् ! त्वं दिया-खण्डिता आपद् येन तादृशाऽप्युरस्खलेनाऽप्युक्तं लङ्कितमित्यर्थः (?), – 'शं' सुखम् 'आप्तुं' लब्धुम् 'आरम्' अन्तरङ्गारिसमूहं 'जयन्तम्' अभिभवन्तम् 'इ' जगति तम् अजितं भज । तं कमू १ यं 'मुनिततिरपि' योगिपतिरपि 'न आपत्' न साक्षाचक्रे, तथा चावशितशान्ताद्गोचरत्वस्य (?) वार्त्ताऽपि दूर इति भावः । कीदृशी मुनिततिः १ रुद्ध:-वशीकृतो मोहों यया सा । पुनः कीदृशी ? भेन- नक्षत्राख्येन ज्योतिष्कदेवभेदेन वन्दिता - स्तुता अभिवादिता वा । यं कीदृशम् ? शमेन जितौ मारमदौ-कन्दर्पा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। प्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । हकारौ येन तम् । यद्यपि शमस्य क्रोधोपशामकत्वमेव, मारमयोस्तु ब्रह्मचर्यमार्दवाभ्यामेव जयोपपत्तिः, तथापि शमसम्पती ब्रह्मचर्यमार्दवसम्पत्तिरपि प्रायो नियतैवेत्येवमुक्तिः । पुनः किं. १ 'ईशं' सामर्थ्यवन्तं................................मपि दुराराबवमुक्तं तत् कथमतिकृच्छ्रसाध्ये भगवद्भजनेऽस्ता(स्मा)दृशां प्रवृत्तिरिति चेत्, न, अतिकृच्छ्रसाध्येऽप्यर्थे उ................ ............निधिलाभाशाज्ञातेन प्रवृत्त्यप्रतिबन्धादिति विभावनीयम् ॥ १॥ नियतमुपगता भवे लभन्ते, परमतमोहर ! यं भयाऽनिदानम् । ....हर रुधिर । ददद् जिनौघ ! तं द्राक्, . . पस्मतमोहरयं भयानि दानम् ॥२॥ . नियतमिति ॥ हे 'परमतमोहर!' अनन्तभवप्रचितकर्मनाशक !, परमतमान-उत्कृष्टतमान ऊहान्-शुभोदकतर्कान राति-ददाति तत्सम्बोधनं हे परमलमोहर ! इति वा; हे 'रुचिर !' मनोज्ञ!, कया ? मिया' कान्त्या; हे 'जिनौष !' भगवत्कदम्बक ! त्वं 'द्राक्' शीघ्र *तम्*. परेषां-शाक्यादीनां मते-दर्शने मोहः-यो दृष्टिरागा तय रयं-वेगं हर । त्वं किं कुर्वन् ? 'अनिदान' निदानरहितं 'दानम् अभयदानादिकं ददत् । तं कम् ? यम् 'उपगताः' आश्रिताः प्राणिनः भने' संसारे 'नियतं' निश्चितं 'भयानि' - "इहपरलोगादाणमकम्हाआजीवमरणमसिलोआ। . सत्त भयहाणाई, जिणेहि. भदंतभणिआई ॥" . .१ परदर्शनमोहनगमित्यर्थः । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A .. . ८ यशोविजयोपाध्यायविरचिता अजित ' इति तथाप्रसिद्धान् आतङ्कान् 'लभन्ते' प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥ नयगहनमऽतिस्फुटानुयोग, - जिनमतमुद्यतमानसा ! धुतारम् । जननभयजिहासया निरस्ता ऽऽजि नमत मुद्यतमानसाधुतारम् ॥३॥ नयगहनमिति ॥ भोः 'उद्यतमानसाः ! निरन्तरम् उद्यतंचरणकरणोपादानप्रणिधानप्रवणं मानसम्-अन्तःकरणं येषां ते तथा यूयं 'जननभयजि[हासया' संसारभयप्रहाणेच्छया 'जिनमतं' जिनागमं ] 'नमत' नमस्कुरुत, इत्थमेव विध्याराधनं कृतं भवति,....................परमार्थतो भवत्यागार्थनिजेरार्थमेव श्रुताध्ययनोपदेशात् । तथा चाऽऽगमः-"चउबिहा खलु सुअ [अज्झावणा] पण्णत्ता, तं जहा-सुअंमे भविस्सइत्ति अज्झाइयवं भवति १, एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइ. यवं भवतिर, अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयवं भवति ३, ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयवं भवति ४।" इति । कीदृशम् ? नयैः-नैगमादिमिः गहनं-गम्भीरम् । पुनः किं. ? सूत्रार्थनियुक्त्यर्थनिरवशेषार्थप्रतिपादनक्रमाद् अतिस्फुटा:-अतिप्रकटा अनुयोगा यस्य तत् । पुनः किं० ? धुत:-कम्पित आर:अरिसमूहो येन तत् । पुनः किं० ? निरस्त:-निराकृत आजि:संप्रामो येन यत्र वा तत् । पुनः किं० १ मुदा-शमसुखसाम्राज्यलक्षणहर्षेण यतमाना:-ध्यानादौ प्रवर्त्तमाना ये साधवः-श्रमणाः वान् तारयति-भीमभवजलधिपारं प्रापयतीति तत्।न चात्र 'प्रवृत्त्युत्तरं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । शमसम्पत्तिः, तत्सम्पत्तौ च प्रवृत्तिः' इत्यन्योन्याश्रयः शङ्करनीयः, विशिष्टशमवतः प्रवृत्त्युत्तरं विशिष्टशमसम्पत्त्या दोषाभावात् । अत एवोक्तम् "न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद्, द्वयमन्योक्तकारणात् ॥” • इति ॥ ३॥ पविमपि दधतीह मानसीन्द्र महितमऽदम्भवतां महाधिकारम् । दलयतु निवहे सुराङ्गनानामऽहितमदं भवतां महाधिकाऽरम् ॥ ४॥ ॥ इति श्रीअजितजिनस्तुतिः॥२॥. . : पविमपीति ॥ 'इह' जगति 'मानसी' 'भवता' युष्माकम् 'अहितमदं' शत्रुस्मयं 'दलयतु' निराकरोतु । किं कुर्वती ? 'इन्द्रैः' शः 'महितं' पूजितं 'पविं' वनम् 'अपि' पुनः 'सुराङ्गनानां' देवाङ्गनानां 'निवहे' समूहे 'महाधिकार' प्रौढाधिपत्यं 'दधती' बिभ्रती। महाधिं कारयतीति 'महाधिकारम्' इति अहितमदविशेषणत्वपक्षे 'पवि' वजं शत्रुहननसावधानतया 'अपिदधती' अनाच्छादयन्ती इति व्याख्येयम् । भवतां कथम्भूतानाम् ? 'अदम्भवताम्' अकपटवताम् । मानसी कीदृशी ? 'अरम्' अत्यर्थ महै:-उत्सवैः अधिका ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीअजितजिनस्तुतिविवरणम् ॥ २ ॥ १ एतदभिधाना शासनाधिष्ठात्री देवता । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + amu n .. सम्भका सुखं ददत् स्वं, समापिनि भावारवारवारण विश्वम् । वासवसमूहमहिता'भाविनिभाउबाऽरवारवाऽरण! विश्वम् ॥ १॥ शम्भवेति । अभावि-अभविष्यत् निभं-कपटं यस्म, वीत. च्छद्मतया कर्मबन्धहेत्वभावात् ,-तस्य सम्बोधनं हे अभाविनिम!, भावार:-सम्यक्त्वच्छेदिमिथ्यात्वरूपभाक्चक्रस्यावयवविशेषः,-शब्दनयोपग्रहादामिग्रहिकत्वादिह्यते, तस्य वार:-समूहस्तं वारयतिनिराकरोति यस्तस्यामत्रणं हे भाषारवारवारण !, हे 'वासवसमूहमहित ! इन्द्रबजाति !, हे अरवारव ! अरवाणां-शब्दरहितानाम् अर्थात् मूकानाम् आरवः-शब्दो यस्माद्धेतुभूतात् “मूको जल्पति" इत्यादि स्तुतेः तस्य सम्बोधनम् , हे 'अरण!' असंग्राम ! *हे शम्भव !* त्वं 'विश्वं सकलं 'विश्वं जगत् 'अव' रक्ष । त्वं किं कुर्वन् ? 'भाविनि' शुभप्रणिधाने पुंसि 'सुखं' सातं 'ददत् यच्छम् ॥ १ ॥ . यद्धर्मः शं भविना, - सन्ततमुदितोदितोऽदितोदारकरः। १. स जयतु सार्वगणः शुचि१... सन्ततमुदितोऽदितोदितोऽदारकरः ॥२॥ यद्धर्म इति ॥ सः 'सार्वगणः' तीर्थकरसमूहो जयतु । किम्भूतः ? शुचिः-निर्मला सन्तता-अच्छिन्नधारा मुदिता-परसुखतुष्ट्रियस्य सः, शुचिना-भाग्येन सन्तता-अविरलप्रवाहापात्रता Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः ।] स्तुविधानुर्विशक्षिका ३ ११ मुद्-आनन्दः ताम् इतः प्राप्तः इति वा । पुनः कि० अदितम्अखण्डितं प्रमाणैरमाकाधितत्वात उदित बयान यस सः पुनः किं. ? न दारा:-स्त्रिया कर:-दण्डश्च यस्य स -सुखं राताति वा करः, अदारश्चासौ कर इति वा । पुनः किं दार वार्षिकदाने प्रवणत्वात् निखिलयाचकप्रार्थितपूरणप्रत्यलः करा-हलो यस्य सः, उदाराः करा:--किरणा यस्य स इति वा । स कः ? 'यद्धर्मः' यदुपज्ञः श्रुतधर्मः भविनां संसारिणां 'शं' :सुखम् 'अदित'* ददौ *, लभन्ते हि सुखमवश्यं श्रुताद् विदिततत्वार प्राणिनः, ततः शुभमाने प्रवृत्तिभावात्। अत एवोका.. "पावाबो विणिवित्ती, पयत्तणा- सह प्य कुसलपक्सम्मिर विणयस्स य पडिवत्ती, तिपिण वि नाणे समपन्ति मा. इति । कीदृशो यद्धर्मः ? 'सन्ततं' निरन्तरं सरमन्तरास्तमाऽभावेन (?) उदितोदितः' उत्पत्तिकालादारभ्य यावदक्स्थान लन्धोक्य इति भावः ॥२॥ जैनी मीः सा जयता न यया शमितामिता मिताक्षररच्या । किंसन्तः समवतर नयया शमितामितामिताक्षररुच्या ॥३॥ जैनी गीरिति ॥ सा 'जैनी' आईसी गी' वाणी जपतात् । कीडशी ? मितैः खल्पैः अक्षरैः-वर्णै रुच्या-मनोहरा बहन- साक्षरमेव हि सूत्रमामनन्ति, अत एवोकम्-. : “सवणईणं जइ हुज. वालुया सबउदहिजं तोयं ।।.. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [अभिनन्दन.... इत्तो अणंतगुणिओ, अत्थो इकस्स सुत्तस्स ॥" । इति, तदेवमत्रार्थापेक्षमक्षराणां मितत्वम्, अन्यथा तु बहुहस्तिप्रमाणमषीपुञ्जलेख्यत्वामिधानान्न तदुपपत्तिः, अथवा त्रिपदीरूपैव जैनी गीाह्या, तस्याश्चोभयथाऽपि मिताक्षरत्वमेव । सा का? 'यया' हेतुभूतया 'सन्तः' संविमगीतार्थाः शमिता-क्षपिताऽमिवामिता-अपरिमितरोगिता यत्र,- वेदनीयकमेविटपिनः समूलमुन्मूलनाद् ,- एतादृशं यद् अक्षरं-मोक्षस्तस्य रुचिः-अभिलाषस्तया कि 'शमिताम्' उपशमसम्पन्नतां 'न इता' न प्राप्ताः ? अपि तु प्राप्ता एवेत्यर्थः । कीदृश्या यया ? समवतरन्तः-अनुयोगापृथक्त्वदशायां प्रतिप्रतीकं समापतन्तो नया:नैगमादयो यस्याः सा, तदुक्तम् "अपुहत्ते समुआरों" इति। समवतरन्तः-समुद्भवन्तो नयाः-नीतयो यस्याः तयेति वा ॥३॥ दलयतु काश्चनकान्ति जनतामहिता हिता हि ताराऽऽगमदा । इह वज्रशृङ्खला दु जनतामऽहिताहिताहितारागमदा ॥४॥ ॥ इति श्रीशम्भवजिनस्तुतिः ॥३॥ दलयत्विति ॥ 'इह' जगति वनशृङ्खला 'हि' निश्चितं 'दुर्जनता' खलभावं दलयतु । कीदृशी ? काञ्चनवत्-सुवर्णवत् कान्ति:धुतिर्यस्याः सा।पुनः किं० ? जनतया-जनसमूहेन महिता-पूजिता। पुनः किं. ? हिता' हितकारिणी । पुनः किं ? तारम्-उज्ज्वलम् Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । आगमं ददाति वरदानेन सा, 'तारा' उज्ज्वला 'आगमदा' श्रुतदायिनी इति च पदद्वयं वा व्याख्येयम्, तारायाः-सुगतदेवताया आगमं द्यति-खण्डयतीति वा, तारागे-सुरशाखिनि खक्रीडापर्वते वा मदः-स्मयो यस्याः सेति वा, तां-लक्ष्मी राति-ददातीति तारस्तादृशो य आगमः-सज्जनसमागमस्तं ददाति सेति वा। पुनः किं०? अहितेषु-वैरिषु आहितौ स्थापितौ अहितारागमदौ-अप्रियस्नेहाहङ्काराभावी यया सा ॥४॥ ॥ इति श्रीशम्भवजिनस्तुतिविवरणम् ॥ ३॥ त्वमभिनन्दन! दिव्यगिरा निरा कृतसभाजनसाध्वस ! हारिभिः । अहतधैर्य ! गुणैर्जय राजितः, कृतसभाजन ! साध्वसहारिभिः॥१॥ त्वमिति ॥ हे 'निराकृतसभाजनसाध्वस !' निराकृतं सभाजनानां-पार्षदलोकानां साध्वसम्-इहलोकादिभयं येन स तस्यामअणम् , कया ? 'दिव्यगिरा' सर्वभाषानुगामिन्या योजनगामिन्या सकलातिशयसम्पन्नया भाषया, सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः, हे 'अहतधैर्य !' * अहतम्-अविनष्टं धैर्य-धीरता यस्य स तस्यामत्रणम् , * कैः ? साधून-उत्तमान न सहन्तीति साध्वसहाः ते च तेऽरयः-शत्रवस्तैः; हे 'कृतं-विहितं "समाज प्रीतिदर्शनयोः" इति १ यद्यपि "वह मर्षणे" धातोरात्मनेपदत्वं प्रसिद्धम् तथापि कचिदात्मनेपदस्थानित्यत्वमपि वैयाकरणैरिष्टमित्यदोषोऽत्र । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " यशोवियोमानवरपिता [ अभिनन्दन पायो समाज संतोपो येन तस्थामश्रणम् । हे अभिनन्दन ! त्वं अनि सजिव" शोभितः, के ? गुणैः, कीदृशैः। भमवावां जननस्य जयनिहा-. ऽऽशु भवतां तनुतां परमुत्करः। त्रिजगतीदुरितोपशमे पटुः, . शुभवतां तनुतां परमुत्करः ॥२॥ भगवतामिति । 'इह' जगति 'भगवतां' तीर्थकृतां 'उत्करः' समूहः 'शुभवतां' कल्याणिनां भवतां युष्माकम् 'आशु' शीघ्र 'जननस्य' संसारख्या 'तमुत्ता' कृशतां 'तनुतां' कुरुताम् । किं कुर्वन् ? 'परं शत्रु 'जयन्' अभिभवन् । किंलक्षणः ? त्रिजगतीदुरितस्य-त्रिभुवनपातकस्य उपशमे 'पटुः' समर्थः । पुनः किं ? परां-प्रकृष्टां सकलसांसारिकसुखातिशायित्वात् मुदं-मोक्षसुखं करोति यः स तथा । न त्वत्र संसारस्य कालस्थितिरूपस्य तदभाषः कर्तुं न शक्यते' इति शङ्कनीयम् , कर्मस्थितिनाशेन तसनूभावसम्भवात् सूत्रप्रामाण्यात्, अन्यथा तदनुपफ्ते नव भगवतो............................संसारख यथावस्थितत्वात् नाशानुपपत्तिः' इत्यपि कुचोचं नाशङ्कनौवम्, भगवता मिहासभोग्यस्थ हास्ययोग्यतां यथा.. ........................ऽन्यत्र विस्तरः ।। २ ।। .. त्रिदिवमिति यश्वद्धरः स्फुर... त्सुरसमूहमऽयं मत्माऽर्हताम् । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुकि द्रविषतुविधानिक .. सस्तु चार ददत् पदमुश्चक,.. सुरसमूहमयंः मतमहताम् ॥ ३॥ त्रिदिवमिति ॥ 'अयं' जनः 'अर्हता' भगवता: 'यतम् आगमे 'स्मरतु' ध्यायतु, कथम् ? उच्चकैः । कीदृशम् ? सुटु-[शोभनो] रस:-शान्ताख्यो यत्र यस्माद् वा तत्। पुनः किं० ? 'ऊहमयं' प्रकष्टविचारम् । पुनः किं ? 'चार' मनोहरम् । किं कुर्वत् ? 'अर्हता' पूजयतां 'मतम्' इष्टं 'पदं' मोक्षलक्षणं ददत् , प्रवचनपूजाया मोक्षहेतुत्वात् , 'अर्हतां' योग्यतां ददत् 'मतम्' अभीष्टं 'पदं' स्थानम् इति व्यस्तं वा व्याख्येयम् । अयं कः ? यः 'चतुरः' विदुरः 'त्रिदिवं' वर्गम् इच्छति'] समीहते। कीदृशं त्रिदिवस् ? स्फुरन्-दीप्यमानः सुरसमूहः-देवगणो यत्र तत् ॥३॥ धृतसकाण्डधनुर्यतु तेजसा, न रहिता सदया रुचिराजिता । मदहितानि परैरिह रोहिणी, नरहिता सदया रुचिराजिता ॥४॥ ॥ इति श्रीअभिनन्दनजिनस्तुतिः॥४॥ धृतेति ॥ इह' जगति रोहिणी 'मदहितानि ममाऽप्रियाणि 'तु' खण्डयतु । कीदृशी ? धृतं सकाण्डं-सबाणं धनुर्यया सा । पुनः किं ? 'तेजसा' प्रतापेन 'न रहिता' [न वियुक्ता] । पुनः कि० १ सत्-शोभ[नम् अयम्-इष्टदेवं यस्याः सा । पुनः किं० १ रुच्या-कान्या राजिप्ता-शोभिता । पुनः किं० १ 'परैः शवमिा अजिता-अनमिभूता। पुनः किं० १ नराणाममुख्यायां हिना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [सुमतिहितकारिणी । पुनः किं. १ 'सदया' सकरुणा, प्रभाविक........ ........ । पुनः किं. ? ['रुचिरा'] रुचि-सत्सङ्गतिं राति-ददातीति भावः॥४॥ ॥ इति श्रीअभिनन्दनजिनस्तुतिविवरणम् ॥ ४ ॥ नम नमदमरसदमरस सुमतिं सुमति सदसदरमुदारमुदा । जनिताजनितापदपद विभवं विभवं नर ! नरकान्तं कान्तम् ॥१॥ - नम नमेति ॥ हे नर ! त्वं सुमतिम् 'उदारमुदा' प्रकृष्टहर्षेण 'नाम'नमस्कु]रु । कीदृशम् ? नमन्तः अमरा:-देवाः यस्य च्यवन................भवन वर्त्तते यः स सदमरसः, सुष्टु-शोभना म[तिर्यस्य सः] सुमतिः, ततो भोग भगवन् म................तः। पुनः किं० १ सङ्गतया सदरोऽणस्य यश्चया........................ ................ [अजनिता] पदस्य-संसारतापाप्रदस्य......... ...........................[भव:-] संसारो येन । पुनः किं. ? 'विभवं' संसाररहितं................................॥ १ ॥ अवचूरिः-'नम' प्रणम, नमदमरः-नमत्सुरः, सदमरस:दमरसेन सहितश्चासौ सुमतिः-शोभनमतिश्च तम् , सत्सु मध्येsसदर:-निर्भयः, संश्वासावसदरश्चेति वा तम् , हे उदार ! 'मुदा' हर्षेण जनित:-कृतः अजनितापदस्य-अभवतापदायकस्य पदस्य ... १वीकायाः खण्डितत्वादवचूर्या उपन्यासः।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स]ि मुलिचतुशितिका विमवो येन तम्, "विम' संसाररहितम् , हेनर !, मरकस्य अन्तो यस्मात् तम् , 'कान्तं' मनोज्ञम् ॥ १॥ . . भवमवेभयदाऽभयदा__वली बलीयोदयोदयाऽमायामा।.. दद्यादऽद्याऽमितमित शमा शमादिष्टदिष्टवीजाऽधीजा ॥२॥ "मवभवेति ॥ 'अभयदावली' तीर्थकरश्रेणिः अद्य 'अमितम् । अपरिमितं 'शं' सुखं ..... ........................... माया-कपटम् आमः-रोगश्च यस्साःसा । पुनः किं० ? इत:-प्राप्तः पुनः समापरिता येन यस्य । पुनः किं. ?.. सं दिष्टवीजम्-अदृष्टहेतुकं मययोरम्भ । पुनः किं ? 'बीज ............यया ॥२॥ . अवचूरिः भवभवं-संसारोद्भवं भयं धतीति भवभवभयदा, 'अभयदावली जिनश्रेणिः, बलीयान् दयोदयः-करुणोदयो यस्याः सा, 'अमायामा' अमायारोगा, दद्यात् , अद्य 'अमितम्' अमानम् , 'इतशमा' प्राप्तशमा, 'शम्' सुखम् , आदिष्टम्-आज्ञप्तं दिष्टबीजंधर्माधर्महेतुर्यया, 'अबीजा' निर्जन्मा ॥२॥ 'दमदमऽसुगमं सुगम, सदा सदानन्दनं दयाविधाविद् । 'परमऽपरमऽस्मर ! स्मर, महामहा धीरधी रसमयं समयम् ॥३॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यशोविजयोपाध्यायविरचिता [सुमतिजिन.... दमदमिति ॥ हे 'अस्मर !' कन्दर्परहित ! त्वं 'सदा' नित्यं 'समयं सिद्धान्तं 'स्मर' स्मृतिवि[षयं कुरु, अनेन कामादिवि]पुतचित्तस्यानधिकारित्वं सूचितम् । कीदृशम् ? दमम्-इन्द्रियजयं ददाति यस्तम्। पुनः किं ? 'असुगम' दुष्प्रत्यूहम् , उपरतदुर्नष्टं तु पुष्टिं (?) । * पुनः किं० ? 'सुगम' * सुष्टु–शोभना गमाः-सदृश. पाठाः यत्र तम्। पुनः किं० ? सताम्-उत्तमानाम् आनन्दनं-हर्षकारि । पुनः किं ? 'परं' प्रकृष्टम् ।* पुनः किं० ? 'अपरम्' नास्ति परम्-उत्कृष्टं यस्मात् तम्।त्वं किम्भूतः ? * 'दयाविद्याविद्' दयाप्रतिपादकं शास्त्रं वेत्ति-जानाति यः, अहिंसाविधिज्ञानस्यैव समयज्ञानोत्कर्षदर्शनाद् अत्यावश्यक]मिदं विशेषणम्। पुनः किम्भूतस्त्वम् ? 'महामहाः' महातेजाः । पुनः किं० ? धीरा-दृढसम्यक्त्वोपबृंहित वेनाऽक्षोभ्या धी:-बुद्धिर्यस्य सः । * पुनः किं० ? 'रसमयं' प्रकृष्टरसम्। * धीराणां धनस्तेषु स्थिरस्तेन तेऽपि समयस्यैकाविशेषणम् (धीराणां धीरस:-बुद्धिरसो येन तमिति समयस्यैव वा विशेषणम् ।) अस्मिन् पक्षे 'अयम्' इति विशेषणस्य कार्ये कारणोपचाराद् इष्टभाग्यजनकमित्यर्थः ॥३॥ काली कालीरऽसरस भावाभावाय नयनसुखदाऽसुखदा । महिमहितनुता तनुतादितादितामानमानरुच्या रुच्या ॥४॥ ॥ इति श्रीसुमतिजिनस्तुतिः ॥५॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः ।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । " कालीति ॥ कालीनाम्नी देवी 'असरसभावाभावाय' विरसभावापनयनाय 'काली' सुखालीः 'तनुतात्' कुरुतात् न च 'एवं वैरस्यापनयनकामनया सुखस्य काम्यत्वात् तस्य निरुपाघिककामनाविषयत्वभङ्गः' इति शङ्कनीयम्, सुखहेतुविषयोपनिपातस्यैवात्र काम्यत्वात्, मुख्यसुखस्य तथात्वाविरोधात् । काली कीदृशी ? नयनयोः - लोचनयोः सुखदा - सातदायिनी । पुनः किं० ? असुखं दुःखं द्यति - खण्डयति या सा । पुनः किं० ? महिभिः - उत्सविभिर्महिता -पूजिता चासौ नुतास्तुता च महिभिर्महिताः तैः नुतेति वा, महिमहिताभ्यां - महत्त्वप्रथाभ्यां तद्गुणपुरुषाकारः (?) नुता, प्राणिभिरिति गम्यत इति वा । पुनः किं० ? इतः प्राप्तोऽदितः - अखण्डितः अमानः- अपरिमितो यो मान:- अहङ्कारः पूजा वा तत्र या रुचि:- अभिलाषः तया कृत्व 'रुच्या' मनोज्ञा, अथवा इता - प्राप्ता अदिता - अखण्डिता अमानाअपरिमिता या मा-लक्ष्मीर्यया सा पुनः किं० ? 'रुच्या' कान्त्या 'न अरुच्या' नाऽमनोज्ञेति व्याख्येयम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीसुमतिजिनस्तुतिविवरणम् ॥ ५ ॥ पद्मप्रभेश ! तव यस्य रुचिर्मते सद्विश्वासमानसदयापर ! भावि तस्य । नोच्चैः पदं किमु पचेलिम पुण्यसम्पद्, विश्वासमान ! सदयाsपर ! भावितस्य ॥ १ ॥ १ “असरसभावस्य - दौर्जन्यस्य अभावाय - अपनयनाय” इत्यवचूरिः ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयापान्यायविरचि [ पद्मप्रेम पद्मप्रभेशेति ॥ हे 'सद्वि० पर !' सम्-शोभनः श्रद्धयाऽनभिभ'धनीयो विश्वासः - जिनवचनप्रामाण्यप्रतिपत्तिस्वरसो यत्र एतादृशं मानसम् - अन्तःकरणं येषां तेषु दयापरः, यद्यपि भगवतः सर्वेनावपि जीवेषु अविशेषेण कृपालुत्वात् कृपाऽस्त्येव, अन्यथा -माध्यस्थ्यहानिप्रसङ्गात्, तथापि येषु तत्पततं सोच्चालक्षणमभ्युदयदित (?) तत्रैव परमार्थतः सा न त्वन्यत्रापीति 'निश्चयाश्रयणादित्थमुक्तम्, तस्यामन्त्रणम्, हे 'विश्वा० 'विश्वे – अगतिं असमानः - निरुपमानः तस्यामन्त्रणम्, हे 'सदय !' सत् - शोभ“नम् अयम्-इष्टदैवं यस्य तस्यामन्त्रणम्, हे 'अपर !' नास्ति परः - शत्रु'यस्य नास्ति परः- उत्कृष्टो वा यस्मात् तस्यामन्त्रणम्, हे 'पद्मप्रभेश !' 'पद्मप्रभस्वामिन् ! 'यस्य' पुंसः तव 'मते' शासने 'रुचिः' श्रद्धा अस्तीति शेषः, तस्य 'उच्चैः पदं' सुदेवत्वमोक्षादिलक्षणमुत्कृष्टपदं किमु 'न भावि' न भविष्यति ? अपि तु भाव्येवेत्यर्थः । कीदृशस्य तस्य ? "भावितस्य' वासितस्य । पदं किम्भूतम् ? पंचेलिमा-परिपक्का पुण्यसम्पत् - शुभप्रकृतिसमृद्धिः पुण्या - पवित्रा वा सम्पत् - शाश्वतानन्दरूपा यत्र तत् ॥ १ ॥ मूर्त्तिः शमस्य दधती किमु या पटूनि, पुण्यानि काचन सभासु रराज नव्या । सा स्तूयतां भगवतां विततिः स्वभक्त्या, पुण्यानिकाचन ! सभा सुरराजनव्या ॥ २ ॥ १ क्षेत्र "तत्फल मोक्षलक्षणमभ्युदयेत् तत्रैव इतिरूपः पाठो भवेत् ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति], ऐन्द्रसन्निनर्विकालिका २१ मूर्तिरिति ॥ हे, 'अनिकाचन-!' निकांचन नामः सकलारण(णा)योग्यत्वेन कर्मबन्धव्यवस्थापनम् , तचात्र मिथ्यात्वविषयं गृह्यते, ततो नास्ति निकाचनमस्येत्यनिकाचनः तस्यामश्रणम्, एतेना निकाचितमिथ्यात्वमोहाः पुमांसोऽनामन्त्रणीया एव, तेषां भगवद्धजनानधिकारित्वात्। अचिन्त्यचिन्तामणिलाभ कल्पं खल्वेतत् ,नाऽतो मन्दभागधेयानां तेषामेतल्लाभ इति व्यज्यते । त्वया सा 'भगवतां' तीर्थकृतां विततिः' श्रेणिः स्तूयताम्, कया? 'स्वभक्त्या' आत्मीयश्रद्धया, परानुवृत्त्या तु तस्या द्रव्यस्तुतिमात्रत्वेनाल्पफलत्वात् । कीदृशी ? 'पुण्या पवित्रा। पुनः किं०. ? 'सभा' सह भया-लक्षणया प्रशतकान्त्या वर्तन इति सभा, नाऽतोऽपुष्टार्थकत्वम् । पुनः किं० ? सुरराजैः-देवेन्द्रः नव्यास्तव्या, सह भैः-नक्षत्रैर्वर्तन्ते ये ते सभाः ते च तेऽसुरराजा:असुरेन्द्राश्च तैः नव्या-स्तव्या इत्येकमेव वा विशेषणम् । सा का ? या पटूनि' प्रौढानि 'पुण्यानि' शुभकर्माणि 'दधती' विपाकानुभ, वेन पुष्णती 'सभासु' पर्षत्सु , 'रराज' शुशुभे 'किस' उत्प्रेक्षे'शमस्य' शान्तरसस्य 'नव्या नवीना काचन' अनिर्वचनीया 'मूर्तिः' तनुः ॥ २॥ लिप्मुः पदं परिगतैर्विनयेन जैनी, वाचं यमै सततमश्चतु रोचितार्थाम् । स्थाबादमुद्रितकुतीर्थनयावताखं: वाचंगमैः सव्रतमं चतुरोजिनार्थाम् ॥ ३ ॥ १"भयकतां विवालिक कीशी पि डेवस. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [पद्मप्रभ लिप्सुरिति ॥ सह ततया-विस्तीर्णया मया-लक्ष्म्या वर्तते यत् तत् सततमम् , सह तया-लक्ष्म्या वर्तते यत् तत् सतम् अतिशयितं सतं सततममिति वा, ‘पदं' सुदेवत्वलक्षणं लिप्सुः' लब्धुमिच्छुः पुरुषः 'जैनीम्' आहती 'वाचं' सरस्वतीं 'सततं' निरन्तरम् 'अञ्चतु' पूजयतु; केन ? विनयेन, अविनयेन पूजनं त परमार्थतोऽपूजनमेवेति भावः । जैनी वाचं किम्भूताम् ? रोचित:-अद्धितोऽर्थः-प्रतिपाद्यविषयो यस्याः सा ताम् , कैः ? 'वाचंयमैः' श्रमणैः, किम्भूतैः ? 'यमैः' अहिंसासत्यास्तेयब्रह्माकिश्चन्यलक्षणैर्महातैः परिगतैः' आश्रितैः । पुनः किम्भूताम् ? स्याद्वादेन-यथास्थानं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयार्पणोपनीतसप्तभङ्गामकवाक्येन मुद्रिता:-प्रतिहतोत्थानाः कुतीर्थानां-बौद्धादीनां नयानाम्-ऋजुसूत्रादीनाम् अवताराः-उपन्यासविशेषाः यया सा तथा ताम् । पुनः कीदृशीम् ? चतुराणां-सुपरिज्ञातहेयोपादेयानाम् उचितः-योग्यः अर्थः-पुमर्थो यस्यां सा तथा * ताम् * ॥ ३ ॥ साहाय्यमत्र कुरुषे शिवसाधने या ऽपाता मुदा रसमयस्य निरन्तराये !। गान्धारि ! वज्रमुशले जगतीं तवाऽस्याः, पातामुदारसमयस्य निरन्तराये ! ॥४॥ __ इति श्रीपद्मप्रभस्तुतिः ॥ ६॥ साहाय्यमत्रेति॥हे निरन्तराये!' निर्गता अन्तराया:-प्रत्यूहा यस्याः तस्या आमन्त्रणम् , पुनः हे 'निरन्तराये !' निरन्तर:अप्राप्तविच्छेद आय:-लाभो यस्याः तस्या आमत्रणम् , हे गान्धारि! Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । २ अस्यास्तव वनमुशले 'जगती' पृथिवीं पातां रक्षताम् । अस्या कस्याः ? या त्वम् 'अत्र' जगति 'स्समयस्य' प्रकृष्टशान्तरसस्य 'उदारसमयस्य' स्फारसिद्धान्तस्य 'शिवसाधने मोक्षसम्पादने निरुपद्रवोपाये वा 'मुदा' हर्षेण 'साहाय्यम्' एककार्यनिर्वनप्रवणतां 'कुरुषे' तनुषे । त्वं कीदृशी ? 'अपाता' पातरहिता ।। ४ ॥ ॥ इति श्रीपद्मप्रभस्तुतिविवरणम् ॥ ६ ॥ यदिह जिन ! सुपार्श्व ! त्वं निरस्ताकृतक्ष्मा वनमद ! सुरबाधा हृद्यशोभाऽवतारम् । . तत उदितमजलं कैर्बुधैर्गीयते ना ऽवनमदसुर! बाधाहृद् ! यशो भावतारम् ॥१॥ यदिहेति ॥ हे 'निरस्ताकृतक्ष्मावनमद !' क्ष्मायाः-पृथिव्याः अवनं-रक्षणं मावनम् , अकृतम्-अविहितं मावनं येन वादृशो यो मदा-"अहमुत्तमजातिमान्" इत्याचवलेपः सोऽकृतक्ष्मावनमदः, निरस्तोऽकृतक्ष्मावनमदो येन तस्यामत्रणम् ; हे 'सुरव !' सुष्टु-- शोभनः संस्कारवत्त्वादिगुणोपेतत्वाद् रवः-ध्वनिर्यस्य तस्यामत्रणम्, ह 'अवनमदसुर !' अवनमन्तः-प्रणमन्तोऽसुराः-दनुजाः यस्य तस्यामत्रणम्, हे 'बाधाहृत् !' बाधा-शारीरमानसाधनेकभेदमिन्नं दुःखं हरतीति बाधाहृत् तस्यामश्रणम् , हे 'हृद्यशोभ!" मनोहरश्रीक !, हे सुपार्श्व जिन ! त्वं 'इह' जगति यदिति वाक्यार्थकर्म 'अवतार' जन्म 'अधाः' धृतवान् 'ततः तस्मात् 'उदितम् उत्पन्नं यशः Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 यशोकियोकामयावनियमिक [सुपार्धजिनका कौ पण्डित 'अजसं निरन्तरं भावेन श्रद्धया तारम् र यथा स्थान तथा न गीयते ? *अपि तु* सर्वैरफि परोपकारसारत्वदवत्वरजनितं यशो विचित्रचरित्रप्रबन्धेन गीयत इति भावः ॥१॥ जाति-शिवसुखं ये कान्तिभिर्भासयन्तो ऽदुरितमदरतापध्यानकान्ताः सदाऽऽशा। जिनवरवृषभास्ते नाशयन्तु प्रवृद्ध, . दुरितमऽदरतापध्यानकान्ताः सदाशाः॥२॥ जगतीति ॥ ते जिनवरवृषभाः 'प्रवृद्धं' बहुभवोपचितं 'दुरितं' ज्ञानावरणीयादिदुष्टविपाकं कर्म 'नाशयन्तु' क्षपयन्तु । किम्भूताः ? न खो दरतापो भयोपतापो यस्मिन्नेतादृशं यद् ध्यानं-शुक्लाख्यं तेन कान्ताः-मनोज्ञाः। पुनः किं० ? सती-शोभनाऽऽशा येषां, सताम्उत्तमानां आशा वा येषु ते, सर्वस्यैवोत्तमकार्यस्य परमार्थतस्तीर्थङ्करोदेश्यकत्वादिति भावःते के ? ये 'जगति' विश्वे 'शिवसुखं निर्वाणशर्म- 'अ' दत्तवन्तः, किं कुर्वन्तः ? 'कान्तिभिः किरणैर-सदा' निस्तारम भाक्षा', दिशा 'भासयन्तः' शोभयन्तः । पुन: 0.? इता-गता मना-जात्यादिस्मयो रत-निधुवनम् अपश्यानं चन मानवबलं कान्तावामाक्षी च येभ्यस्ने तथाः ॥ २ ॥. मुनिततिषश्यं वर्जयनी हतोद्य तमसमाहितदाऽत्रासाऽऽधिमाऽऽनन्दितारा। समायामि भजाइनोकमुन्नधानं तमसम 1 हितदाता साविमानं दिमरम्॥ famimaavकाई" इति अशो-विशेषणतमान्यवाद। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति । ] ऐन्द्रस्तुतिश्चतुर्विंशनिकन २५ मुनिततिरिति ॥ हे 'असम !' निरुपमपुरुष ! म 'इ जगति तं 'समय' सिद्धान्तं 'भज' अङ्गीकुरु । किं कुर्वन्तम् ? उ 'साधिमानं चारुभावं 'दधानं' बिभ्रत्, किम्भूतम् ? 'आप्तेन भगवता 'उक्तं ' भाषितम्, कीदृशेनाऽऽतेन ? 'हितदात्रा' पथ्यप्रदायिना | पुनः किम्भूतम् ? *दितं - * खण्डितम् आरम् - अरिसमूहो येन तः म् । * तं कम् ? यं 'मुनिततिः' यतिश्रेणिः 'अपठत्' अभाणीत् किं कुर्वती ? 'आधि' मानसीं व्यथां 'वर्जयन्ती' त्यजन्ती, नहि सति आधिलेशेऽपि श्रुतपाठो प्रभवति कार्याय इत्येवमुक्तम् । यं किम्भूतम् ? हतं - क्षपितम् उद्यद् उत्पद्यत् तमः - पापं येन तम् । मुनिततिः किम्भूता ? अहितम् - अपथ्यं भावारिं वा द्यवि-खण्डयति या सा । पुनः किम्भूता ? 'अत्रासा' नास्ति त्रासो यस्याः सा । पुनः किं० ? ' अरम्' अत्यर्थम् 'आनन्दिता' संतुष्टा ॥ ३ ॥ अवतु करिणि याता साऽर्हतां प्रौढभक्त्या, मुदितमकलितापाया महामानसी माम् । वहति युधि निहत्याऽनीकचक्रं रिपूणा मुदितमकलितापा या महामानसीमाम् ॥ ४... इति श्रीसुपार्श्वजिनस्तुतिः ॥ ७ ॥ अवत्विति । सा महामानसी माम् 'अवतु' रक्षतु । किम्भूता ?. 'करिणि' हस्तिनि 'याता' प्राप्ता । पुनः किम्भूता ? अकलित अप्राप्तः अपायः - वित्रमपत्तष्टलाभो (?) वा यया सा । मां किम्भूतम् 'आई तो तीर्थकृतां 'प्रौदभच्या' तीव्रभावनया 'मुदितं': प्राप्तहर्षमू) खा का ?* या * 'युधि संग्रामे 'उदितम्' उच्छिन्नं (उत्थितं ) रिपूणां शत्रू Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ चन्द्रप्रभजिन णाम् 'अनीकचक्रं' सेनासमूहं 'निहत्य' हत्वा .........दीनत्वात् 'महामानसीमाम्' अवलेपनपराकाष्टां 'वहति' बिभर्त्ति, सीमाशब्द आकारान्तोऽप्यस्ति । 'निहत्य' इत्यनेन फलोक्तिः, फलप्राप्तिपूर्वन्नाहं . वैफल्यं निरस्तम् । या किम्भूता ? 'अकलितापा' रणानुशयरहितत्वात् *संग्रामोपतापरहिता कलियुगकृततापरहिता वा ॥ ॥ इति श्रीसुपार्श्वजिनस्तुति विवरणम् ॥ ७ ॥ ... IN... तुभ्यं चन्द्रप्रभ ! भवभयाद् रक्षते लेखलेखानन्तव्याऽपापमदमहते ! सन् ! नमोऽहासमाय ! | श्रेयःश्रेण भृशममतां तन्वते ध्वस्तकामा नन्तव्यापाsपमद ! महते सन्नमोहाऽसमाय ॥ १ ॥ तुभ्यमिति ॥ हे 'सन् !' उत्तम !, हे 'लेखलेखानन्तव्य !" देवश्रेणीप्रणमनीय !, हे 'अदमहते !' दमस्य - इन्द्रियजयस्य हति:अपकर्षो दमहतिः, नास्ति सा यस्य तस्याऽऽमन्त्रणम्, हे 'अहासमाय !' हासः - हास्यमोहजनित उत्फुल्लगल्ला दिविकारव्यङ्ग्यः परिणामो माया च-वञ्चना हासमाये न स्तः यस्य तस्याऽऽमन्त्रणम्, हे 'ध्वस्तकामानन्तव्याप !' ध्वस्तः - निरस्तः कामस्य - कन्दर्पस्य अनन्त:अपर्यवसितो व्यापः - व्यासक्तता येन तस्यामन्त्रणम्, हे 'अपमद !" अंपगतो मदः - जात्याद्यवलेपो यस्मात् तस्यामन्त्रणम्, हे 'सन्न - मोह !' सन्नः - निस्तीर्णो मोह : - गोबलीवर्दन्यायात् हास्यादिभिन्नमोहनीयप्रकृतिजनितपरिणामसमूहो अज्ञानं वा यस्य तस्यामणम्, हे चन्द्रप्रभ ! तुभ्यं नमः, 'अस्तु' इति शेषः । तुभ्यं किं कुर्वते ? 'भवभयात् संसारसाध्वसाद् 'अपापं पापरहितं पुरुषं रक्षते, --- Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः । ] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । नच 'तस्य किं रक्षणे पौरुषम् ? स्वत एव तेन संसारत्यागात्' इति शङ्कनीयम् त्यक्तसंसाराणामपि परिणामानपकर्षस्य हुदयस्थितभगवन्माहात्म्या धीनत्वाद् इत्थमेवास्य क्षेमकारित्वं युक्तमित्यवसेयम् । पुनः किं० ? 'भृशम्' अत्यर्थम् 'असुमत ' प्राणिनां 'श्रेयःश्रेणीं' कल्याणमालां 'तन्वते' कुर्वते । पुनः किंभूताय ? 'महते' अनुपकृतोपकारित्वेनोत्तम पुरुषप्रकृतिशालिने, एवं च सहजदानप्रियत्वादिगुणशालित्वरूपस स्वात् महत्वं भिन्नमिति पौनरुक्त्यं परिहृतं द्रष्टव्यम् । पुनः किम्भूताय ? 'असमाय' निरुपमाय ॥ १ ॥ श्रेयो दत्तां चरणविलुठन्नम्म्रभूपालभूयोमुक्कामालाऽसमदमहिता बोधिदाना महीना । मोहापोहादुदितपरमज्योतिषां कृत्स्नदोषै मुक्कामाला समदमहिता वोऽधिदानाऽऽमहीना ॥२॥ श्रेय इति ॥ ' बोधिदानां' तीर्थकृतां 'माला' श्रेणिः 'वः' युष्माकं 'श्रेयः' कल्याणं दत्ताम् । किम्भूता १ चरणयोः - पादयोः विलुठन्ती नम्रभूपालानां - नमनशीलनृपतीनां भूयसी - बह्री मुक्तामाला - मुक्ताफलश्रेणिर्यस्याः सा । पुनः किं० ? असमदमानां - निरुपमेन्द्रियजयानां पुंसां हिता-हितकारणी, * अकाराप्रश्लेषात् * समे-सकले असमे - अपपरिच्छेदे ( ? ) वा दमहिते यस्याः सा । पुनः किं ? अहीना नास्ति हीनं- न्यूनं यस्याः सा, क्षीणलाभान्तरायत्वेन कृतकृत्यत्वात् । पुनः किं० १ कृत्स्नदोषैः - घाति कर्मजनितैरन्त * रङ्ग * रागादिभिः सकलैर्जीवगुणप्रतिपन्थिपरिणामैः मुक्ता । S २७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ यशोविजयोपाध्यायविरचिता. [चन्द्रप्रभ... पुनः किं०१-असमदै-असाहङ्कारैः महिता-पूजिता राहदा (१) मदराहित्यविधुरा महिता-उत्सविता यस्याः । सतिः वा भगवतः पूजासत्कारप्राचुर्योऽपि तं उपबृंहणेऽमनेन (?) मदलेशस्याप्यभावात्, तथाऽऽचारे-णो पूजासक्कारे उववूहित्ता भवइ” इति । पुनः, किं० १ अधि-अधिकं सकलभुवनवर्तिदानशोभातिशायि दानं-सांवत्सरिकादि अभयादि वा यस्याः सा । पुनः किं० १ 'आमहीना' रोगरहिता । बोधिदानां किम्भूतानाम् ? 'मोहापोहात्' मोहनीयकर्मक्षयात् उदितं-उत्पन्नं परमं-प्रकृष्टं ज्योति:-ज्ञानं केवलाख्यं येषां तेषाम् ॥ २ ॥ रङ्गभङ्गः स्फुटनयमयस्तीर्थनाथेन चूला मालापीनः शमदमवताऽसङ्गतोपायहृद्यः। सिद्धान्तोऽयं भवतु गदितः श्रेयसे भक्तिभाजा माऽऽलापी नः शमदमवता सङ्गतोऽपायहुद्यः॥३॥ रङ्गभङ्ग इति ॥ 'तीर्थनाथेन' अर्हता 'गदितः' उक्त: 'अयं' सिद्धान्तः "भक्तिभाजां' सेवापराणां 'नः' अस्माकं 'श्रेयसे' कल्याणाय भवतु । किम्भूतः ? रगन्त:-परस्परानुप्रवेशेन उल्लसन्तो भना-वचनविकल्पा यत्र सः । पुनः किं ? स्फुटा:-प्रकटा ये नया:-नैगमादयः तन्मयः-प्रचुरतद्वान् । पुनः किं० ? चूलामालया-चूलिकाश्रेण्या पीन:-पुष्टः । पुनः किं ? असजताया:निस्सङ्गताया य उपाय:-रत्नत्रयसाम्राज्यं तेन हृद्या-मनोहरः। पुन: किं. १ आलापी' आलापकवान., "भक्तिभाजाम्" इतिःसानुखार रपाठे वा.मां लक्ष्मी लापयाति-अकास्यतीशील इति व्याख्या Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतिः।] नास्तुतिचंतुविशतिका । यम् । पुनः किं० १ सङ्गतः प्रसङ्गादिसङ्गतिमान् । अयं का? यः 'अपायहृत् ' विघ्नहर्ता, अस्तीति शेषः। तीर्थनाथेन किम्भूतेन ? शमः शान्तिः दमश्च-पञ्चेन्द्रियजयः तौ विद्यते यस्याऽसौ तद्वान् तेन । किं कुर्वता ? 'अवता' रक्षता, कम् ? 'शमदं क्षान्तिदायिनं पुमांसम् ॥ ३ ॥ सा त्वं वज्राङ्कशि ! जय मुनौ भूरिभक्तिः सुसिद्ध प्राणायामेऽशुचि मतिमऽतापाऽऽपदन्ताऽबलानाम् । दत्से वज्राङ्कुशभृदऽनिशं दर्पहत्री प्रदत्तप्राणाया मे शुचिमतिमता पापदन्तावलानाम् ॥४॥ इति श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुतिः॥ ८॥ सात्वमिति ॥ हे वज्राङ्कशि ! सा त्वं जय । किम्भूता त्वम् ? 'भूरिभक्तिः' विपुलभक्तिमती । क ? 'मुनौ' साधौ, कीदृशे ? सुष्ठ-अतिशयेन सिद्धः-जातपरिकर्मा प्राणायामः-विधिवच्छासप्र.. श्वासरोधव्यापारो यस्य तस्मिन् , पुनः किं० ? 'अशुचि' नास्ति शुक्शोको यस्य तस्मिन् । सा का ? या त्वं 'मे' मम (मा) 'मति' बुद्धि दत्से । त्वं किं. १ 'अतापा' तापरहिता । पुनः किम्भूता ? आ*पदन्ता' आपदाम् अन्तः-नाशो यस्याः सकाशात् । * पुनः किं० ? 'प्रदत्तप्राणा' प्रदत्तबला, केषाम् ? 'अबलानां बलर. हितानां पुंसाम् । पुनः किं० ? 'अनिशं-निरन्तरं 'वज्राङ्कुशभृत्' कुलिशाङ्कुशधारिणी । पुनः किं० ? 'दर्पहनी' गर्वनाशिनी, केषाम् ? पापा एव ये दन्तावला:-हस्तिनस्तेषाम् , अत एव "वाङ्कुशभृत्" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [सुविधिजिनइति सहेतुकं विशेषणम् । पुनः किं ? शुचिमतीनां-निर्मलबुद्धीनां मता-आराध्यत्वेन अभीष्टा ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीचन्द्रप्रभस्तुतिविवरणम् ॥ ८॥ यस्याऽतनोद देवततिर्महं सु प्रभाऽवतारे शुचिमन्दरागे। इहाऽस्तु भक्तिः सुविधौ दृढा मे, प्रभावतारेऽशुचि मन्दरागे ॥१॥ यस्याऽतनोदिति ॥ 'इह' अस्मिन् 'सुविधौ' सुविधिनाथे 'मे' मम 'दृढा' निबिडा भक्तिरस्तु । किम्भूते ? प्रभावेन-अनुभावेन तारे, प्रभावस्य भावः प्रभावता तां रातीति प्रभावतारः चित्ता. ध्यवसायो येषां ते, प्रभावात् तारयति-संसारसागरपारं प्रापयति यः तस्मिन्निति वा। पुनः किं ? 'अशुचि' शोकरहिते। पुनः किं ? 'मन्दरागे'.........स्वभाव यत् एव दुरुदकविषयानुबन्धः संबन्धः विधुरे (1)। इह क ? यस्य 'अवतारे' प्रयति (प्रभवति) 'देवततिः' सुरश्रेणिः शुचिः-निर्मलो यो मन्दरः-मेरुः स एव अगः-पर्वतः तत्र 'मह' उत्सवम् 'अतनोत्' अकरोत् । किम्भूता देवततिः ? सु-शोभना प्रभा-कान्तिर्यस्याः सा ॥ १ ॥ अभूत् प्रकृष्टोपशमेषु येषु, न मोहसेना जनितापदेभ्यः। युष्मभ्यमाऽऽप्ताः ! प्रथितोदयेभ्यो, नमोऽहसेनाः ! जनितापदेभ्यः ॥२॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः । ] ऐन्द्रस्तु तिचतुर्विंशतिका । .८८ अभूदिति ॥ भोः 'अहसेनाः !' नास्ति हसः - हास्यमेषामिति अहसा:- केवलिनः, उक्तं च - " केवली णं भंते ! हसेज्ज वा उस्सुआएज वा ? गो० ! णो इणट्ठे समट्ठे" इति, तेषामिनाः - स्वामिनः, कृतकृत्यानामपि तेषां व्यवहारानुरोधेन प्रणमनीयत्वात्, तेषामामन्त्रणम् । भोः 'आप्ताः !' तीर्थकृतः ! एभ्यो युष्मभ्यं नमः, 'अस्तु' इति शेषः । युष्मभ्यं किम्भूतेभ्यः ? प्रथितः - प्रसिद्धः :- अतिशयो ज्ञानं वा येषां तेभ्यः । पुनः किं० ? जनितापम् - आध्यात्मिकादिभेदभिन्नं संसारतापं द्यन्ति - खण्डयन्ति तेभ्यः । एभ्यः केभ्यः ? येषु 'मोहसेना'. .कमहामोहराजचमूः उदय: ' जनितापत्' कृतविपद् नाऽभूत् । किम्भूतेषु येषु ? प्रकृष्टः - अतिशयित उपशमः - तितिक्षापयति (?) [ येषु तेषु ] ॥ २ ॥ + वाणी रहस्यं दधती प्रदत्तमहोदयावद्भिरनीतिहारि । जीयाज्जिनेन्द्रैर्गदिता त्रिलोकी महो ! दयावद्भिरनीति हारि ॥ ३ ॥ वाणीति ॥ ' जिनेन्द्रैः' तीर्थकरैः 'गदिता' उक्ता 'वाणी' प्रवचनात्मिका भाषाद्रव्यसंहतिर्जीयात् । जिनेन्द्रैः किं कुर्वद्भिः ? 'अहो' इत्याश्वर्ये 'त्रिलोकीं' त्रिजगतीम् 'अवद्भिः' रक्षद्भिः । पुनः किं० 'दयावद्भिः ' करुणाशालिभिः । वाणी किं कुर्वती ? 'रहस्य' सकलशास्त्रोपनिषद्भूतमर्थं 'दुधती' भूयो भूयः कर्तव्यत्वप्रतिपादनेन पुष्णती । रहस्यं किम्भूतम् ? अनीतिम्-अन्यायं हरतीत्येवंशीलम् । ३१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [शीतलजिनपुनः कि० ? 'अनीति' नास्ति ईतिर्यस्मात् तत् । पुनः किं ? 'हारि' मनोहारि । वाणी किंभू० ? प्रदत्तो महोदयः-मोक्षो यया सा ॥३॥ जगद्गतिविद्रुमकान्तकान्तिः, करोऽतुलाभं शमऽदम्भवत्याः। ‘ददन्नतानां ज्वलनायुधे ! नः, करोतु लाभं शमदं भवत्याः ॥४॥ ॥ इति श्रीसुविधिजिनस्तुतिः ॥ ९ ॥ जगद्गतिरिति ॥ हे ज्वलनायुधे ! 'भवत्याः' तव 'करः' हस्तः 'न:' अस्माकं 'लाभं कल्याणप्राप्तिं करोतु । लाभं किम्भूतम् ? अतुलानिरुपमा आभा-शोभा यस्मात् तम्। करः किम्भूतः ? जगतां गति:आधारः। पुनः किं ? विद्रुमवत्-प्रवालवत् पाटलत्वेन कान्तामनोज्ञा कान्तिर्यस्य सः । किं कुर्वन् ? 'नतानां' कृतनतीनां पुरुषाणां 'शं' सुखं ददत्, किं० शम् ? 'शमदम्' उपशमप्रदम् , एतेन कुशलानुबन्धित्वमावेदितम् । [ भवत्याः ] कथम्भूतायाः ? 'अदम्भवत्याः' अकपटवत्याः॥४॥ ॥ इति श्रीसुविधिजिनस्तुतिविवरणम् ॥ ९ ॥ जयति शीतलतीर्थपतिर्जने, वसु मती तरणाय महोदधौ । -- १-२ यद्यप्यत्र मूल-टीका-अवचूरिपुस्तकेषु-"उवालोज्ज्वलो विद्रुम०" इत्येव पाठ उपलभ्यते तथाप्यस्माभिष्टीकानुसारेणोभयत्राऽपि "जगदतिर्विद्रुमः" इति पाठ आरत्तः ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । ददति यत्र भवे चरणग्रहे, वसुमतीतरणाय महो दधौ ॥१॥ जयतीति । स इत्यस्य गम्यमानत्वात् सः 'शीतलतीर्थपतिः' शीतलनामा भगवान् 'जयति' सर्वोपद्रवनिवर्त्तते ( सर्वोत्कर्षण वर्तते,) परत्र सर्वेन च (?) नमस्कारताऽऽक्षिप्यते । किम्भूतः ? 'मती' मतम्-इष्टं कृतकृत्यत्वादस्यास्तीति मती । स कः ? 'यत्र' यस्मिन् भवे महोदधौ इति अस्तस्मतषष्ठीयम् ( ?) तस्यो........ .........दाद्यमहोदधेरित्यर्थः, 'तरणाय' पारगमनाय तदर्थमिति ............चरणग्रहे .........................'महः' तेजो दधौ, भवति हि भगवति हि.................................... ललितशोकैर्लोकः दीप्तः क्रमदाऽनन्तरमभिहततमिस्रप्रसरतरुनित्यालोक एव भूलोक इति ति किम् ?............................तस्य, किम्भूताय ? 'इतरणाय' गतसङ्ग्रामाय ॥ १ ॥ __ अवचूरिः-'वसुमति' धनवति, ददति इति अविवक्षितकर्म, 'मती' मतवान् , 'वसु' धनम् , तरणाय, 'इतरणाय' गतसङ्ग्रामाय, भवे महो दधौ इति व्यस्तरूपकम् ॥ १ ॥ वितर शासनभक्तिमतां जिना- वलि ! तमोहरणे! सुरसम्पदम् । अधरयच्छिवनाम महात्मनां, - वलितमोहरणे ! सुरसं पदम् ॥२॥ वितरेति ॥ हे 'जिनावलि !' जिनश्रेणि ! हे. 'तमोहरणे ! पापहारिणि ! हे 'वलितमोहरणे !' वलितौ-उद्वान्तौ मोहरणौ ऐ. च. ३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ शीतलजिम " अज्ञानसङ्ग्रामौ यया तस्या आमचणम् त्वं 'शासनभक्तिमतां ' जिनप्रवचनरसिकहृदयानां महात्मनां शिवनाम' मोक्षाह्वयं पदं " वितर' प्रयच्छ । पदं किं० ? ' सुरसं' सु-शोभनो रसः - शान्ताख्यो यत्र तत्, यद्यपि विभाग्याचेभिव्यजयचिद्विवर्त्तरूपो रसो मोक्षेऽनुपपन्नः तथापि वास्तवानन्दरूपस्य तस्य तत्र नानुपपत्तिरिति ध्येयम् । किं कुर्वत् ? 'सुरसम्पदं' देवविभूतिम् 'अधरयत्' तिरस्कुर्वत्, मोक्षसुखस्य त्रैकालिकसकलसांसारिक सुखेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् सुखमिश्रितत्वेन प्रतिबन्धिसम्बन्धविधुरत्वात् औत्सुक्यविनिवृत्त्या स्वभावापरावृत्तेश्चेति विभावनीयम् ॥ २ ॥ भगवतोऽभ्युदितं विनमाssगमं, जन ! यतः परमापदमाऽऽदरात् । इह निहत्य शिवं जगदुन्नतिं, २४ जनयतः परमाऽऽप दमादरात् ॥ ३ ॥ भगवत इति ॥ हे जन ! त्वं तच्छब्दाध्याहारात् ततः 'भगवतः' तीर्थङ्करात् 'अभ्युदितं साक्षादर्थतया परम्परया सूत्रतया भावात् स्वभावं * ' आगमं' * सिद्धान्तं 'विनम' विशेषेण नमस्कुरु । [ कथम् ? 'आ] दरात्' श्रद्धापूर्वादभियोगात् । ततः कुतः ? 'यतः ' यस्मात् 'जगत् ' "तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशः” इति न्यायात् जगद्वर्त्ती लोकः* 'इह' अत्रैव लोके* 'परमापदं' कर्मोदयजनितामुत्कृष्टव्यावाघां निहत्य 'परम्' उत्कृष्टं 'शिवं' 'आप' प्राप, परमा आपद् यस्मात् १ " यद्यपि भोग्याभिव्यन्मय -" इति पाठः स्यात् ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशाविका। तादृशं परं-कामादिभावश निहत्येति का व्याख्येयम्, परा-प्रकृष्टा बा मा-लक्ष्मीः तस्याः पद[मिति वा व्याख्येयम् । 'दमा ]दरात्' दमेन-इन्द्रियजयेन अदर:-निर्भयोऽतिशब्दरसः (१) वस्मात् । किं कुर्वतः ? 'उन्नति' तीर्थप्रभावनां 'जनयतः' विदधतः॥३॥ .. स्तवरवैत्रिदशैस्तव सन्ततं, न परमऽच्छविमानविलासिता । न घनशस्त्रकलाऽप्यरिदारिणी, न परमच्छवि ! मानवि ! लासिता ॥४॥ ॥ इति श्रीशीतलजिनस्तुतिः ॥१०॥ स्तवरवैरिति॥हे 'परमच्छवि !' परमा-उत्कृष्टा छवि:-कान्तिः यस्याः तस्या आमन्त्रणम् , हे मानवि ! 'सन्ततं' निरन्तरं 'त्रिदशैः' देवैः *तव* 'स्तवरवैः' स्तोत्रध्वनिभिः कृत्वा 'अच्छविमानविलासिता' निर्मलविमानविलासशालिता न 'परं' केवलं 'न लासिता' न स्फाति प्रापिता किन्तु 'घनशस्त्रकलाऽपि' निबिडशस्त्राभ्यासनिपुणताऽपि न न लासिता, द्वयोर्नमोः प्रकृतार्थगमकत्वात् लासितैवेत्यर्थः । किम्भूता ? 'अरिदारिणी' शत्रुविदारणनिबन्धनम् , एवं चोक्तगुणद्वयेनाऽऽराध्यत्वं व्यज्यते ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीशीतलजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १०॥ जिनवर ! भजन श्रेयांस ! स्यां व्रताम्बुहतोदय द्भवदव ! नतोऽहं तापातङ्कमुक्त ! महागम!। गतभववनभ्रान्तिश्रान्तिः फलेग्रहिरुल्लस द्भवदवनतो हन्ताऽपातं कमुक्तमहागम! ॥१॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रेयांसजिन.. जिनवरेति ॥हे 'व्रताम्बुहृतोदयद्भवदव !' ब्रतमेव-अहिंसादि अम्बु-जलं तेन हृतः-विध्यापित उदयन्-प्रवर्द्धमानो भवदवःसंसारवह्निर्येन तस्यामत्रणम् , हे 'तापातङ्कमुक्त!' तापः-अनुशय आतङ्कश्च-भयं ताभ्यां मुक्तः-त्यक्तो यस्तस्यामश्रणम् , हे 'महागम !' महानाम्-उत्सवानाम् आगमः-पुण्यप्रारभाराकृष्टतया खत उपनमना यस्य तस्यामश्रणम् , हे 'उक्तमहागम!' उक्तः-प्रतिपादितो महान्-सकलतत्रातिशायी आगम:-सिद्धान्तो येन तस्यामअणम् , हे 'जिनवर !' केवलिश्रेष्ठ ! हे श्रेयांस ! अहम् 'उल्लसद्धववनतः' करुणातिशयभ्राजमानत्वाणतः गता भववनभ्रान्तिश्रान्तिः-संसारकान्तारभ्रमणश्रमो यस्यैतादृशः सन् 'अपातम्'अप्रतिपाति 'क' सुखं 'भजन्' आश्रयन् 'हन्त' इति कोमलामत्रणे ‘फले. ग्रहिः' फलवान् स्याम् । किम्भूतोऽहम् ? 'नतः' कृतप्रणामः ॥१॥ जिनसमुदयं विश्वाधारं हरन्तमिहाङ्गिनां, भवमऽदरदं रुच्या कान्तं महामितमोहरम् । ' विनयमधिकं कारं कारं कुलादिविशिष्टता... भवमदरदं रुच्याऽकान्तं महामि तमोहरम् ॥२॥ जिनसमुदयमिति ॥ अहम् 'अधिकम्' अतिशयितम् अधिक कं-सुखं यस्मादिति वा 'विनयं' कायेन मनसा चावनतिलक्षणं 'कारं कारं कृत्वा कृत्वा 'जिनसमुदयं' तीर्थकरसमूह 'रुच्या' श्रद्धया 'महामि' भावस्तवेन पूजयामि । किम्भूतम् ? विश्वस्य-जगत आधारं-दुर्गतिपतनप्रतिपन्थिधर्मोपदेशकत्वात् त्राणभूतम् । किं कुर्वन्तम् ? 'इह' जगति 'अङ्गिनां' प्राणिनां 'भवं' संसार, हरन्तम्' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।]: ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । .. ३७ अपनयन्तम् । पुनः किं० ? 'अदरदम् ' अभयदम् , पुनः किं ? 'कान्तं' मनोहरम् , कया ? 'रुच्या' कान्त्या । भवं किम्भूतम् ? महैः-पाणिग्रहाद्युत्सवैः अमितः-अपरिमितो यो मोहः-मोहनीयं कर्म संसारभ्रमणहेतुभूतमज्ञानं वा तं राति–ददाति यस्तम् , महै:उत्सवैः अमिता-अपरिमिता मा-लक्ष्मीर्येभ्यस्तादृशा ये ऊहाःवितर्काः तान् ददातीति जिनसमुदयस्यैव वा विशेषणं व्याख्येयमेतत् । पुनः किं० ? कुलस्य आदी कुलादी-जातिलाभे, कुलम् आदि येषां तानि त[गुणसं] विज्ञानबहुव्रीहिणा कुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुतानि, ततः कुलादी च कुलादीनि चेत्येकशेषात् कुलादीनां-जात्यादीनां या विशिष्टता-उत्कर्षः तद्भवः-तदुत्पन्नो यो मदः-अहङ्कारस्तं रदतिअपनयति यस्तम् । पुनः किं ? अकस्य-दुःखस्य अन्तो यस्मात् तम् , पुनः किं० ? 'तमोहरं पापापनयनकरम् ॥ २ ॥ .. शुचिगमपदो भङ्गैः पूर्णो हरन् कुमतापहो ऽनवरतमऽलोभावस्थामाऽऽश्रयन्नऽयशोऽभितः। जन! तव मनो यायाच्छायामयः समयो गल नवरतमलो भावस्थामाश्रयं नयशोभितः॥३॥ शुचीति॥हे 'आश्रयन्!' भजन् !, काम्? 'अलोभावस्थां' सन्तोपदशाम् , एतेनाधिकारित्वं सूचितम् , अधृतिमतोऽनधिकारित्वात् । हे जन ! 'समयः' सिद्धान्तः तव मनोऽनवरतं 'यायात्' गच्छतु । मनः किम्भूतम् ? 'भावस्थामाश्रयं' श्रद्धाबलमन्दिरम् । समयः किम्भूतः ? शुचीनि-पवित्राणि गमपदानि-सदृशपाठपदानि यत्र सः। पुनः किं० १ 'भङ्ग' विकल्पविशेषैः 'पूर्णः' भृतः। नवरत Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रेयांस जिन * पुनः किं कुर्बन् ? 'अभितः' समन्ताद् 'अयश: ' अकीर्ति 'हरन् ' अपनयन् । पुनः किं० १ कुमतमेव बौद्धादिदर्शनम् अपहन्तीति कुमतापहः । पुनः किं० ? 'छायामयः'. । पुनः किं० १ गलन - शिथिलीभवन् नवरतस्य - अभिनवनिधुवनस्य मल:मलमिव भावमालिन्यहेतुत्वान्मलो यस्मात् सः, अस्ति हि समयाभ्यासस्य पुंवेदोदय निरोधहेतुत्वेन तथात्वम् । पुनः किं० ? नयैःनैगमादिभिः 'शोभितः ' भ्राजितः || ३ || सुकृतपटुतां विघ्नोच्छित्त्या तवारिहतिक्षमाsuविफल करा त्यागेहाऽऽघनाघनराजिता । वितरतु महाकाली घण्टाक्षसन्ततिविस्फुरत्यागेहा घनाघनराजिता ॥ ४ ॥ ॥ इति श्री श्रेयांसजिनस्तुतिः ॥ ११ ॥ पविफलक सुकृतेति ॥ हे 'अगेह !' गेहरहित ! महाकाली 'विघ्नोच्छित्या पापापनयनेन तव 'सुकृतपटुतां' पुण्यप्रभुत्वं 'वितरतु' ददातु । किम्भूता ? अरीणां - वैरिणां हतिः - नाशः तत्र क्षमा-समर्था, एतेन परार्थसम्पत्तिवाहिका स्वार्थसम्पदुक्ता । पुनः किं० ? अप'गतं विफलं - मोघं कर्म यस्याः सा ईदृशी सती कं सुखं रातीति अपविफल करा, अप - गतो विफलः - मोघः करः - दण्डो यस्याः ....... ........ तव । पुनः किं० ? 'त्या' कान्त्या *आ - समन्तात् * 'घना'घनराजिता' मेघवत् शोभिता । पुनः किं० ? घण्टा च अक्षस'न्ततिश्च विस्फुरती - शोभमाने पविफले च घण्टाक्षसन्ततिविस्फुरत्पविफलानि तानि करे - हस्ते यस्याः सा । पुनः किं० ? दि " Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । वि-खोके त्यागेहा-दानेच्छा यस्याः सा, नृभक्स्पृहयालुतया यो त्यागेहा वा यस्याः सा* । पुनः किं ? घनाघा-निबिडपापा ये नराः-मनुजास्तैरजिता तेषामप्रत्यक्षेति ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीश्रेयांसजिनस्तुतिविवरणम् ॥ ११ ॥ पद्मोल्लासे पटुत्वं दधदधिकरुचिर्वासुपूज्याऽर्कतुल्यो लोकं सद्धीरपाताशमरुचिरपवित्रासहारिप्रभाऽव । लुम्पन स्वैर्गोविलासैर्जगति घनतमो दुर्नयध्वस्ततत्त्वा लोकं सद्धीर!पाता शमरुचिरपवित्रास! हारिप्रभाव!। पद्मोल्लास इति ॥ हे 'अरुचिरपवित्रासहारिप्रभ !' रुचिराश्च पवित्राश्च रुचिरपवित्राः-स्वमतपवित्रान्तःकरणाः श्रमणाः तान न सहन्त इति तदसहाः ते च ते अरयः-बौद्धादयस्तेषां प्रभा-कान्ति: सा नास्ति यस्मात्तस्यामन्त्रणम् ; प्रकृष्टा भा यस्याऽसौ प्रभः, न सन्ति रुचिरपवित्रासहा अरयो यस्य सः अरुचिरपवित्रासहारिः, अरुचिरपवित्रासहारिश्चासौ प्रभश्चेति कर्मधारयगर्भ वा इदमामत्रणम् ; हे 'सद्धीर !' सतां मध्ये धीरः सँश्चासौ धीरश्चेति वा तस्यामत्रणम् , हे 'अपवित्रास !' अप-गतो वित्रासः-भयं यस्मात् तस्यामत्रणम् , हे 'हारिप्रभाव !' मनोहरानुभाव ! हे वासुपूज्य ! त्वं 'लोकं' भव्यप्राणिनम् 'अब' रक्ष । त्वं किं० ? 'अर्कतुल्यः' सूर्यसदृशः, किं कुर्वन् ? 'पद्मोल्लासे' लक्ष्मीविलासे 'पटुत्वं' निपुणत्वं दधत् , अर्कोऽपि च पद्मोल्लासे-कमलविकासे पटुत्वं बिभर्चि । * पुनः * किम्भूतः ? अधिका-जगदतिशायिनी रुचि:-कान्तिर्यस्य अधिका-अधिकसुखा रुचिः-सम्यग्दृष्टिा यस्य स तथा . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. यशोविजयोपाध्यायविरचिता [वासुपूज्यजिनअर्कोऽपि च सकलग्रहमण्डलेऽधिकरुचिर्भवति । पुनः किं. ? सती-शोभना धीर्यस्य स तथा । लोकं किम्भूतम् ? नास्ति पाता. शा-संसारपतनेच्छा यस्य स तथा तम् , भवभीरुमित्यर्थः । पुनस्त्वं किं कुर्वन् ? 'स्वैः' आत्मीयैः 'गोविलासैः' वाणीविलासैः 'जगति' भुवने 'घनतमः' सान्द्रमज्ञानं 'लुम्पन्' अपनयन , अर्कोऽपि च गोविलासै:-किरणविलासैः घनतमः-शार्वरमन्धकार लुम्पति । लोकं किम्भूतम् ? * दुर्नयैः * ध्वस्तः-बौद्धादिभिर्नाशितः तत्त्वालोकःपरमार्थप्रकाशो यस्य स तथा तम् , अर्कोऽपि हि ध्वस्तालोकं लोकं नयनमुद्राजननी निमीलामपहत्य त्रायत इति श्लेषः । त्वं किं. ? 'पाता' रक्षिता, एतेन रक्षितारं प्रति रक्षाप्रार्थनं नाविचारितरमणीयमिति सूचितम् । पुनः किं० ? शमे रुचिर्यस्य स तथा ॥१॥ लोकानां पूरयन्ती सपदि भगवतां जन्मसंज्ञे गतिमें, हृद्या राजी वनेऽत्राऽभवतुदऽमरसार्थानताऽपातमोहा। साक्षात् किं कल्पवल्लिर्विबुधपरिगता क्रोधमानार्त्तिमायाहृद्या राजीवनेत्रा भवतु दमरसाऽर्थानतापा तमोहा ॥२॥ लोकानामिति ॥सा भगवता' तीर्थकृतां 'राजी' श्रेणिः अत्र' - प्रत्यक्षे 'जन्मसंज्ञे' जनुराह्वये वने 'मे' मम 'गतिः' आधारो भवतु। किम्भूता ? 'हृद्या' मनोज्ञा, पुनः किं ? तोदनं तुत्-पीडा, भवस्यसंसारस्य तुत् भवतुत् , नास्ति भवतुद् यस्याः साऽभवतुत् । पुनः किं० ? अमरसार्थेन-सुरसमूहेन आनता-प्रणता । पुनः किं. ? नास्ति पातः-संसारगर्त्तपतनं मोहः-अज्ञानं च यस्याः सा । किं कुर्वती ? 'लोकानां' जनानां 'सपदि' तत्कालम् 'अर्थान् । मनोवा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका 1. ४१ ञ्छितपदार्थान 'पूरयन्ती' इष्टसिद्ध्या निवृत्तेच्छान् कुर्वती, 'किम्' उत्प्रेक्षे 'साक्षात्' प्रत्यक्षा 'कल्पवल्लिः' सुरतरुव्रततिः, किम्भूता ? विबुधैः-देवैः परिगता-आश्रिता । सा का ? या क्रोधः-परितापलक्षणो मानश्च-स्वगुणाभिष्वङ्गलक्षणो अतिश्च-शोकादिलक्षणा माया च-परवञ्चनलक्षणा क्रोधमानातिमायाः, ता हरति या सा। पुनः किं० ? राजीववत्-कमलवत् नेत्रे-लोचने यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? दमे-इन्द्रियविजयलक्षणे रसः-दृढचित्तादरो यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'अतापा' तापरहिता।पुनः किं. ? 'तमोहा' पापत्यागकारिणी ॥ २॥ उत्तुङ्गस्त्वय्यभङ्गः प्रथयति सुकृतं चारुपीयूषपीनाss स्वादे शस्तादराऽतिक्षतशुचि सदनेकान्त ! सिद्धान्तरागः। रङ्गभङ्गप्रसङ्गोल्लसदसमनये निर्मितानङ्गभङ्गस्वादेश स्तादरातिक्षतशुचिसदने कान्तसिद्धान्त! रागः॥ उत्तुङ्ग इति॥हे 'शस्तादर!' शस्तः-प्रशस्त आदरो यस्य शस्तेकल्याणे वा आदरो यस्य, कल्याणकरणबद्धाभिनिवेशत्वा *त् , तस्याऽऽमत्रणम, हे 'स*दनेकान्त !' *सन्-शोभनः अनेकान्तः-*स्वविषयः स्याद्वादो यस्य तस्यामत्रणम् , हे निर्मितानङ्गभङ्गस्वादेश !! निर्मित:-विहितोऽनङ्गभङ्ग:-कन्दर्पप्रतिघातो यैरेतादृशाः सुष्टुशोभना आदेशा:-अबद्धश्रुतोपदेशा विधयो वा यस्य स तस्यामत्रणम् , हे 'कान्तसिद्धान्त !' मनोहरागम ! त्वयि मम 'अभङ्गः' अक्षयः 'रागः' प्रेम 'उत्तुङ्गः' प्रतिक्षणं प्रवर्द्धमानः 'स्तात्' भवतु । १ "हे 'शस्त !' प्रशस्त ! 'अदर ! निर्भय ! इति पदद्वयं वा" इत्यवचूर्याम् ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ वासुपूज्य G त्वयि किम्भूते ? चारु- पेशलं यत् पीयूषम् - अमृतं तद्वत् पीन:मेदुर आस्वादः - चर्वणाजनितरसो यस्य स तथा तस्मिन् । पुनः किं० १ अतिशयेन क्षता-नाशिता शुरू-शोको येन स तथा तस्मिन् । पुनः किं० ? रङ्गताम् - अन्योन्यमनुप्रविशतां भङ्गानां -विकल्पविशेषाणां यः प्रसङ्गः - एकार्थप्रत्यासत्तिस्तेन उल्लसन्तः - यथास्थानमापतन्तो असमाः - निरुपमाः तत्रान्तरावीतत्वात् नयाः - नैगमादयो यस्य स तथा तस्मिन् । पुनः किं० ? अरातीनां वैरिणां क्षतं यस्मादेतादृशं यत् शुचि - भाग्यं तस्य सद्ने -गृहे, किं कुर्वति ? 'प्रथयति' विस्तारयति, किम् ? 'सुकृतं' पुण्यम्, किम्भूतम् १ सिद्धान्तरं जातविच्छेदम् आगः - मन्तुर्थस्मात् तत् तथा ॥ ३ ॥ वाग्देवि ! प्रीणयन्ती पडुविविधनयोन्नीतशास्त्रार्थनिष्ठाशङ्कान्ते ! देहि नव्येरितरणकुशले ! सुनुवा देवि ! शिष्टम् । श्रद्धाभाजां प्रसादं सुमतिकुमुदिनीचन्द्र कान्ति ! प्रपूर्णाssशं कान्ते ! देहिनव्येऽरितरणकुशले ! सुभ्रु ! वादे विशिष्टम्।। ॥ इति श्रीवासुपूज्य जिनस्तुतिः ॥ १२ ॥ वाग्देवि ! इति ॥ हे 'पटु० कान्ते !' पटवः - दुर्नयनिराससमर्थां विविधाः - विचित्रार्थविषया ये नया : - नैगमादयस्तैः उन्नी'ता-प्रकटिता या शास्त्रार्थनिष्ठा-तत्र विषय मर्यादा तया शङ्कायाःसन्देहस्य अन्त: - परिक्षयो यस्याः सकाशात् सा तथा तस्या आमश्रणम्, हे 'नव्ये ०शले !' नव्यः नवीन ईरितः - प्रेरितो यो रणःसङ्ग्रामस्तत्र कुशलं - कल्याणं यस्याः तस्या आमऋणम्, कान्ति " सुमतिरेव - उत्तमधीरेव कुमुदिनी - कैरविणी तत्र च हे 'सुम० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तुतिः। ऐन्द्रस्तुविचतुर्विशतिका । न्द्रकान्तिरिव-सोममरीचिरिव या सा तथा तस्या आमश्रणम्, हे ‘कान्ते !' मनोझे!, हे 'देहिनव्ये !' देहिमिः-प्राणिमिः नव्यासवनीया तस्या आमत्रणम् , हे 'अरि० शले !' अरीणां-वैरिणां तरणं-पारगमनम् तद्विजय इत्यर्थः तत्र कुशले! दक्षे!,हे 'सुश्रु!" सुष्टु-शोभना भूर्यस्यास्तस्या आमन्त्रणम् , हे 'देवि !' पूज्ये ! हे 'बाग्देवि !' सरस्वतीदेवि!, अथवा 'विप्रीणयन्ती विशेषेण प्रीणयन्तीति पृथक्करणात् हे 'वाग्दे !' वचनप्रदे ! देवि ! वं 'सुभ्रवा' उत्तमभ्रुवा कृत्वा 'श्रद्धाभाजां' जिनमतभक्तिशालिनां पुरुषाणां 'वादे' बादविषये 'विशिष्ठम्' अतिशयितं 'प्रसाद' कुशलानुबन्धिवरं देहि' प्रयच्छ । प्रसादं किं० ? प्रपूर्णा आशा यस्माचम्। त्वं कि कुर्वती ? 'शिष्टं' सदाचारं 'प्रीणयन्ती' सन्तोषयन्ती ॥ ४॥ . ॥ इति श्रीवासुपूज्यजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १२ ॥ नमो हतरणायतेऽसमदमाय पुण्याशया, . सभाजित ! विभासुरैर्विमलविश्वमारक्षते!। न मोहतरणाय ते समदमाय! पुण्याशया सभाजितविभासुरैविमलविश्वमारक्षते ! ॥१॥ नम इति ॥ हे 'हतरणायते !' हतरणा-हतसङ्ग्रामा प्रशमपवित्रा वा आयति:-उत्तरकालो यस्य, हता वा रणायतिर्येन तस्यामत्रणम् । हे 'सभाजित ! सेवित !, कैः १ 'असुरैः' भवनपतिविशेषः, किम्भूतैः ? 'विभासुरैः' देदीप्यमानः, कया? 'पुण्याशया' धर्मलिप्सया। हे 'न समदमाय !' न साहवारकपट !। हे 'पुण्याशयासभाजितविभ !' सभया पर्षदा प्रति (?) परेषां Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ विमलजिन जिता विभा-कान्तिर्यस्य स सभाजितविभः, न सभाजितविभोऽसभाजितविभः, पुण्यः-पवित्रः आशयः-अध्यवसायो यस्य स पुण्याशयः, पुण्याशयश्चासौ असभाजितविभश्च पुण्याशयासभाजितविभः तस्यामत्रणम् । हे 'विमलविश्वमारक्षते!' माराद् या क्षतिः मारक्षतिः-कन्दर्पजनिता गुणपरिहाणिरित्यर्थः, विश्वा-सर्वा चासौ मारक्षतिश्च विश्वमारक्षतिः, मलः-बद्ध्यमानं कर्म अपि पथं वा (?) मलश्च विश्वमारक्षतिश्च मलविश्वमारक्षती, वि-गते मलविश्वमारक्षती यस्य स तथा तस्यामन्त्रणम् ; अथवा विमला विश्वा-पृथिवी यस्मात् असौ विमलविश्वः, मारस्य-कन्दर्पस्य क्षतिः-क्षयो यस्मादसौ मारक्षतिः, विमलविश्वश्चासौ मारक्षतिश्चेति कर्मधारयगर्भमामन्त्रणं व्याख्येयम् ; स्वतनं वेदमामअणद्वयम्-हे 'विमल !' मलरहित !, हे 'विश्वमारक्षते !' विश्वस्य-सर्वस्य मारस्य-मरणहेतोः क्षतिः-क्षयो यस्मात् तस्यामन्त्रणम् इति व्याख्येयम् । हे विमल ! 'ते' तुभ्यं नमः, अस्तु इति शेषः । ते किम्भूताय ? 'असमदमाय' असम:-निरुपमो दमः-इन्द्रियजयो यस्य स तथा तस्मै । पुनः - किम्भूताय ? 'मोहतरणाय' मोहस्य-अष्टाविंशतिप्रकृत्यात्मकस्य सकलकर्ममूलभूतस्य तरणं यस्य यस्माद्वा स तथा तस्मै । किं कुर्वते ? आ-समन्ताद् रक्षते, किम् ? 'विश्वं' जगद् ॥ १॥ महाय तरसा हिताऽजगतिबोधिदानामहो !, दया भवतुदां तताऽसकलहाऽसमानाऽऽभया । महायतरसाहिता जगति वोऽधिदाना महो दया भवतु दान्ततासकलहासमानाऽभया ॥२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः1]: ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । महायेति ॥ अजेषु-सिद्धेषु मध्ये गतिः-ामनं येषां तेऽजगतयः, ते च ते बोधिदा:-तीर्थकृतोऽजगतिबोधिदाः तेषाम् , 'अहो!' इत्याश्चर्ये 'दया' अनुपकृतोपचिकीर्षारूपा 'वः' युष्माकं 'महाय' उत्सवाय भवतु, केन ? 'तरसा वेगेन । किम्भूता दया ? 'हिता' हितकारिणी । अजगतिबोधिदानां किम्भूतानाम् ? 'भवतुदो' भवं-संसारं तुदन्ति-क्षपयन्तीति भवतुदस्तेषाम् । दया किं० ? 'तता' विस्तीर्णा । पुनः किं० । ? 'असकलहा' सह कलहेन वर्तते या सा सकलहा, न सकलहा असकलहा । पुनः किं० ? 'असमाना' निरुपमा, कया? 'आभया' शोभया कृत्वा । पुनः किं० १ 'महायतरसाहिता' महान्गुरुः आयतः-विस्तीर्णो यो रसः-शान्ताख्यस्तेन आहिता-स्थापिता, क ? 'जगति' विश्वे । पुनः किं० ? 'अधिदाना' अधिकृत्य अधिक दानं यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'महोदया' महान् उदयो यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'दान्तताऽसकलहासमाना' न स्तः सकलौसम्पूर्णौ हासमानौ-स्मितस्मयौ यस्याः साऽसकलहासमाना, दान्ततया स्वसमानाधिकरणेन च तेष्वहेतुभूतेन असकलहासमाना दान्तताऽसकलहासमाना । पुनः किं० ? 'अभया' नास्ति भयं यस्याः सकाशात् सा ॥२॥ क्रियादऽरमऽनन्तरागततया चितं वैभवं, __ मतं समुदितं सदा शमवताऽभवेनोदितम् । क्रियादरमऽनन्तरागततयाचितं वैभवं, . मतं समुदितं सदाशमऽवता भवेऽनोदितम् ॥३॥ क्रियादिति ॥ 'वैभव' विभुसम्बन्धि आहेतमित्यर्थः 'मतं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [विमनजिनशासनं * 'मतम्' * अभीष्टं वैभवं विभवं प्रभुत्वं वा 'अरम्' अत्यर्थ क्रियात् । किम्भूतम् ? 'सदा' नित्यम् 'अनन्तरागततयां' अविच्छिन्नशिष्यप्रशिष्यादिपरम्पराप्राप्ततया 'चितं' पुष्टम् , सुसम्प्रदायेन निबद्धार्थमित्यर्थः । पुनः किं० ? 'समुदित' सह मुदाहर्षेण वर्त्तत इति समुत् तेन इतं-प्राप्तम् । पुनः किं. १ 'उदितम्, उक्तम्, केन ? 'शमवता' उपशमयुक्तेन 'अभवेन' भवरहितेन,' क्षीणघातिकर्मणा तीर्थकृतेत्यर्थः, किं कुर्वता ? 'अवता' रक्षता, कम् ? 'सदाशं सती-निदानाद्यकलङ्किता आशा-मोक्षेच्छा यस्य तम् , अवति हि भगवान् मुमुक्षु जनमुचितोपदेशदानेनेति सूक्तमेतत् । पुनः किम्भूतम् ? 'समुदितं नियुक्तिभाष्याद्यङ्गप्रबन्धेन पुखीभूतं सम्-सामत्येन उदितम्-उदयप्राप्तमिति वा । पुनः किं० अनोदितं 'अप्रेरितम्' क ? 'भवे' [संसारे], अथवा 'नो' इति नबर्थेऽव्ययम् , ततो 'भवे' संसारे 'नो दित' न खण्डितमित्यर्थः। पुनः किं० ? क्रियायां-प्रेक्षोत्प्रेक्षादौ आभ्यन्तरधर्मसाधने दृढयोगव्यापारे आदरः-प्राधान्येनोपदेशप्रवणत्वं यत्र तत् , अयमेव हि आगमोपनिषद्भूतोऽर्थः, यदुक्तम् सबेसि पि णयाणं, बहुविहवत्तवयं णिसामित्ता। तं सवणयविसुद्धं, जं चरणगुणढिओ साहू ॥ इति । पुनः किं ? अनन्तः अपरिमितो यो राग:-आदरः तेन तता:विस्तीर्णा ये तैः ‘याचितम् ' अध्येतुं गुरुपार्श्वे प्रार्थितमित्यर्थः ॥३॥ प्रभा वितरतादरं सुरभियाऽतता रोहिणी हिताशुगुरु चाऽपराजितकराशमारोचिता। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका। . प्रभावितरतादरं सुरभियाततारोहिणी, हिताऽऽशु गुरुचापराजितकरा शमाऽऽरोचिता॥४॥ ॥ इति श्रीविमलजिनस्तुतिः ॥ १३ ॥ प्रमेति ॥ रोहिणी 'शं' सुखम् 'अरम्' अत्यर्थम् ‘आशु' शीघ्र 'वितरताद्' यच्छतु । किम्भूतम् ? ईहितैः-वाञ्छितैः कृत्वा अशुक्-शोकरहितम् , कामितपूर्त्या गलिततदप्राप्तिशोकमित्यर्थः, 'च' पुनः 'उरु' विस्तीर्णम् । पुनः किं. ? प्रभावोऽस्यास्तीति प्रभावी, अतिशयितः प्रभावी प्रभावितरः, तस्य भावस्तत्ता तया आदरो यत्र तत् तथा । रोहिणी किं० ? 'प्रभा' प्रकृष्टा भा-कान्तिर्यस्याः सा तथा। पुनः कि० ? सुरेभ्यो भीः सुरभीस्तया ' अतता' अविस्तीर्णा । पुनः किं. १ परैः अजितः पराजितः, न पराजितोऽपराजितः तादृक् कर:-दण्डः पाणिः कान्तिर्वा यस्य सदृशो सोऽर्थास्ति न(?)प्रियस्तत्र आशा-अभिनिवेशो यस्य ताहम् यो मार:कन्दर्पः तेन उचिता-अनुरूपा । पुनः किं० ? सुरभि-गां याताप्राप्ता, तारोहिणी-स्फारविचारिणी, * सुरमियाता चासौ तारोहिणी चेति कर्मधारयः * । पुनः किं० १ 'हिता' हितकारिणी । पुनः किं० १ गुरुणा-महता चापेन-काण्डेन राजितः-शोभितः करः-हस्तो यस्याः सा तथा । पुनः किं. १ आ-समन्ताद् रोचिता-श्रद्धाविषयीकृता, आराधकैरिति शेषः ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीविमलजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १३ ॥ कलितमोदमऽनन्तरसाश्रये, शिषपदे स्थितमस्तभवापदम् । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [अनन्तजिनत्रिदशपूज्यमनन्तजितं जिनं, कलितमोदमनं तरसाऽऽश्रये ॥१॥ .- कलितमोदमिति ॥ अहम् अनन्तजितं जिनं 'तरसा' वेगेन 'आश्रये' सेवे । किम्भूतम् ? कलितः-धृतो मोदः-हर्षों येन स तथा तम् । पुनः किं० ? स्थितम् , क ? 'शिवपदे' मुक्तिस्थाने, किम्भूते ? अनन्तः-अन्तरहितो यो रसः-शान्ताख्यः तदाश्रयेतद्गृहे, अनन्ताहा या रसा-पृथिवी ईषत्प्रारभाराख्या तस्या आश्रयः-व्यवहारत आधारो यस्य तत् तथा तत्र इति वा । पुनः किम्भूतम् ? अस्ता-ध्वस्ता भवापत्-भवविपत्तिः येन स तथा तम्। पुनः किं० ? त्रिदशानां देवानां पूज्यं-पूजनीयम् । पुनः किं० ? कलि:-सङ्ग्रामः तमश्च-पापं तयोः दमनं-तन्नाशकारिणमित्यर्थः॥१॥ जिनवरा गततापदरोचितां, प्रददतां पदवीं मम शाश्वतीम् । दुरितहृदचना न कदाचनाऽs जिनवरागततापदरोचिताम् ॥ २॥ ...जिनवरा इति ॥ 'जिनवराः' तीर्थङ्करा मम 'शाश्वती' ध्रुवां 'पदवीं' मोक्षमार्गलक्षणां प्रदतां प्रयच्छन्तु । किम्भूताम् ? गतः तापः-आध्यात्मिकादिलक्षणो दरश्च-भयम् इहलोकादिलक्षणं यस्यास्तादृशी न्यायाद् उचिता-अनुरूपा च ताम्। जिनवराः किम्भूताः ? दुरितहृत्-पापहारि वचनं येषां ते । पदवी किम्भूता ? 'कदाचन' जातुचित् 'न' नैव आजिः-सङ्कामो नवरागश्च-अभि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः ।] : ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । ४९ नवाभिष्वङ्गलक्षणः ताभ्यां तता विस्तीर्णा या आपद् - विपत्तिः तयाऽरोचिता - अरुचिविषयीकृता * ताम् * ॥ २ ॥ सुरसमानसदक्षरहस्य ! ते, मधुरिमाऽऽगम ! सोsस्तु शिवाय नः । ३ ॥ जगति येन सुधाऽपि घनप्रभासुरसमान सदक्षर ! हस्यते ॥ सुरेति ॥ हे ' सुरसमानसदक्ष रहस्य !' सुष्ठु - शोभनो रसो यत्र तादृशं मानसं चित्तं येषां ते च ते दक्षा:- निपुणाश्च तेषां रहस्य ! – उपनिषद्भूत !, हे 'घनप्रभासुरसमानसदक्षर !' घनानिनिविडान प्रभासुराणि - देदीप्यमानानि समानानि - मानसहितानि सन्ति - उत्तमानि अक्षराणि यस्य स तथा तस्यामन्त्रणम्, हे आगम ! 'ते' तव सः 'मधुरिमा' आस्वादसंवेद्य माधुर्यगुणः * 'नः ' अस्माकं* 'शिवाय' मोक्षायाऽस्तु । स कः ? येन 'जगति' विश्वे 'सुधाsपि' अमृतमपि 'हस्यते' विडम्ब्यते ॥ ३ ॥ सदसि रक्षति भासुरवाजिनं, जगदिता फलकेषुधनुर्धरा । जयति येयमिह प्रणताऽच्युता, सदसिर क्षतिभा सुरवा जिनम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्री अनन्तजिनस्तुतिः ॥ १४ ॥ सदसीति ॥ इयमच्युता 'इह' जगति 'सदसि' पर्षदि जयति । किम्भूता ? ' प्रणता ' कृतप्रणामा, कम् ? ' जिनम्' भगवन्तम्, १ निपुणाश्च गणधरादयो बोद्धव्याः । ऐ. च. ४ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीधर्मजिनअनेन सम्यग्दृष्टित्वमाह । पुनः किं० ? 'सदसिः' सन्-शोभनः असिः खड्गो यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'अक्षतिभा' नास्ति क्षतिः-दूषणं यस्यां सा अक्षतिः तादृशी भा-कान्तिर्यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'सुरवा' सुष्टु-शोभनः रवः-शब्दो यस्याः सा तथा। इयं का ? या 'जगद्' विश्वं 'रक्षति' पालयति, किम्भूता ? 'इता' प्राप्ता, कम् ? 'भासुरवाजिनं' देदीप्यमानतुरङ्गम् । पुनः किं० ? फलकं च इषुश्च धनुश्च फलकेषुधनूंषि तानि धरति किंमणसा (?)॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीअनन्तजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १४ ॥ श्रीधर्म! तव कर्मद्रु-वारणस्य सदायते!। स्तवं कर्तुं कृतद्वेषि-वारणस्य सदा यते ॥१॥ श्रीधर्मेति ॥ हे 'सदायते !' सती-शोभना आयतिः-उत्तरकालो यस्य स तथा तस्य आमन्त्रणम् , हे श्रीधर्म ! अहं सदा जितं अनंततां च क्षिप्रं कर्तुं 'यते' उद्यतो भवामि । किम्भूतस्य तव ? कर्मैव दुः-विस्तीर्णत्वाद् वृक्षः तत्र वारणस्य-हस्तिनः । पुनः किम्भूतस्य ? कृतं-विहितं द्वेषिणां-बाह्याभ्यन्तरवैरिणां वारणं निराकरणं येन स तथा तस्य ॥ १ ॥ गिरा त्रिजगदुद्धारं, भाऽसमाना ततान या । श्रिया जीयाद् जिनाली सा, भासमानाऽततानया ॥२॥ गिरेति ॥ सा 'जिनाली' तीर्थङ्करश्रेणिः जीयात् । किम्भूता ? 'श्रिया' अतिशयप्रातिहार्या दिलक्ष्म्या 'भासमाना' शोभमाना। पुनः । अत्र "सदा' अनिशं तव 'स्तवं' स्तवनं कर्तु." इति भाव्यम् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।]. ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । किम्भूता ? अततः-अविहितोऽनयः-अपन्यायो यया सा । सा का? या 'गिरा' वाण्या कृत्वा 'त्रिजगदुद्धारं' त्रिभुवननिस्तारं 'ततान' चकार । किम्भूता ? भया-कान्या असमाना-निरुपमाना ॥२॥ . वचः पापहरं दत्त-सातं केवलिनोदितम् । भवे त्राणाय गहने, सातके बलिनोदितम् ॥३॥ वचः पापेति ॥ केवलिना' तीर्थकृता 'उदितं' गदितं 'वचः' वचनं गहने निबिडे 'भवे' चतुर्गतिरूपसंसारे 'त्राणाय' पतनप्रतिबन्धाय, अस्तु * इति शेषः * । भवे किम्भूते ? 'सातङ्के सह आतङ्केन-जन्मजरामरणादिभयेन वर्त्तते यस्तस्मिन् । वचः किम्भूतम् ? 'पापहरं' दुरितनाशि । पुनः किम्भूतम् ? दत्तं सात-सुखं येन तत् तथा । पुनः किं ? बलिभिः-नैयायिकादिभिः तत्रान्तरीयैनोंदितं-प्रेरितम् ॥ ३ ॥ दधुः प्रसादाः प्रज्ञष्ट्याः, शक्तिमऽत्याजितादराः। 'तस्या यया द्विषां सर्वे, शक्तिमत्या जिता दराः ॥४॥ ॥ इति श्रीधर्मजिनस्तुतिः ॥ १५ ॥ दद्युरिति ॥ तस्याः प्रज्ञप्त्याः 'प्रसादाः' वरप्रदानलक्षणाः 'शक्ति' सामर्थ्य दद्युः । किम्भूताः ? अत्याजितः-अमोचित आदर:-पुनःपुनरुपायप्रवृत्तिलक्षणो यैस्ते । तस्याः कस्याः १ यय 'द्विषां वैरिणां 'सर्वे' समस्ताः 'दराः' भयानि 'जिताः' निराकृताः । यया किम्भूतया ? शक्तिः-शस्त्रविशेषः सामर्थ्य वाऽस्ति यस्याः सा शक्तिमती तया ॥४॥ ॥ इति श्रीधर्मजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १५ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [शान्तिजिनअस्याभूद् व्रतघाति नातिरुचिरं यच्छ्रेयसे सेवना दक्षोदं भरतस्य वैभवमयं साराजितं तन्वतः। लिप्सो! शान्तिजिनस्य शासनरुचिं सौख्यं जयद् ब्रह्म भोः!, दक्षोऽदम्भरतस्य वै भवमयं साराजितं तन्वऽतः॥१॥ अस्येति ॥ भोः 'ब्रह्म' मोक्षं लिप्सो!' लब्धुमिच्छो ! त्वम् अतः कारणात् शान्तिजिनस्य 'शासनरुचिं' प्रवचनश्रद्धां 'तनु' विधेहि । ब्रह्म किं कुर्वत् ? 'जयत्' अतिशयानम् , किम् ? सौख्यम् , कीदृशम् ? 'भवमयं' मयटो विकारार्थत्वात् कर्मशक्तितिरस्कृतशक्तिकस्यात्मनः संसारानुभावोपनीतेन्द्रियेष्टविषयसम्बन्धविकाररूपमित्यर्थः । पुनः किं० ? सया-चक्रवादिलक्ष्म्या राजितं-शोभितम् । शान्तिजिनस्य किम्भूतस्य ? 'वै' निश्चितम् 'अदम्भरतस्य' मायामैथुनरहितस्य । त्वं किंरूपः ? 'दक्षः' निपुणः। अतः कुतः ? 'यत्' यस्मात् कारणात् 'अस्य' शान्तेः 'भरतस्य' षट्खण्डमुखक्षेत्रस्य वैभवं' प्रभुत्वं 'बतघाति' चरण(मंतिगति)प्रतिपन्थि नाभूत् । अयं हि भर्त्त अम......परमैश्वर्यचर्या सार्वभौमपदवीम् , अलिप्तेन मनसा चोपभुज्य भोगान् , उचिते च समये तृणवद् अपहाय तान् , उद्धर्तुं संसारपङ्कनिमग्नं जगत् , प्रवर्त्तयितुं धर्मतीर्थ प्र[व]बाज राजन्यमौलिमालार्चितचरणकमल इति युक्तमस्य भजनम् । वैभवं किम्भूतम् ? 'अतिरुचिरम्' अतिमनोहरम् । अस्य किं कुर्वतः ? 'सेवनात्' भजनात् हेतोः 'श्रेयसें' कल्याणार्थम् १ अक्षरचतुष्टयमेतदधिकमाभाति ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । 'अक्षोदं' क्षोदरहितम् 'अयम्' इष्टदैवं तन्वतः । अयं किम्भूतम् ? सारेण-बलेन अजितं-अपराजितम् ॥ १॥ येषां चेतसि निर्मले शमवतां मोक्षाध्वनो दीपिका, प्रज्ञालाभवतां क्रिया सुरुचिताऽरं भावनाभोगतः। ते श्रीमजिनपुङ्गवा हतभया नित्यं विरक्ताः सुखं, प्रज्ञाला भवतां क्रियासुरुचितारम्भावना भोगतः ॥२॥ येषामिति ॥ ते श्रीमजिनपुङ्गवाः भवतां' युष्माकं सुखं क्रियासुः । किम्भूताः ? हतं भयं यैस्ते तथा । पुनः किं ? 'नित्यं' सदा 'भोगतः' विषयोपभोगात् 'विरक्ताः' निवृत्ताः । पुनः किं० ? 'प्रज्ञालाः' बुद्धिमन्तः । पुनः किं ? उचितः-मोक्षसाधक आरम्भ:-उद्यमो येषां ते उचितारम्भाः तेषामवनं-रक्षणं येभ्यस्ते तथा । ते के ? येषां 'चेतसि' हृदये 'क्रिया' सदनुष्ठानात्मिका 'सुरुचिता' अतिशयेन रुचिमुपगता । कस्मात् ? भावनानाम्अहिंसादिव्रतसम्बन्धिनीनां ध्यानभूमिकाभूतवासनानां * वा * य आभोगः-प्रपञ्चः तस्मात् । चेतसि किम्भूते ? 'अरम्' अत्यर्थ 'निर्मले' अश्रद्धादिमलरहिते । येषां किम्भूतानाम् ? 'शमवताम्' उपशमशालिनाम् । पुनः किम्भूतानाम् ? प्रज्ञायाः-मार्गानुसारिज्ञानस्य यो लाभः-प्राप्तिस्तद्वताम् , अनेन ज्ञानक्रियासमुच्चयमाह । क्रिया किम्भूता ? 'मोक्षाध्वनः' मोक्षमार्गस्य दीपिका, तत्प्रकाशकत्वादिति भावः ॥ २ ॥ १ "क्रिया सुरुचिता" "प्रज्ञालाभवताम्" इत्यनेन इत्यर्थः ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [शान्तिजिनमिथ्यादृष्टिमतं यतो ध्रुवमभूत् प्रध्वस्तदोषात् क्षिता वाचारोचितमानमारयमदम्भावारिताऽपाप! हे!। तं सिद्धान्तमभङ्गभङ्गकलितं श्रद्धाय चित्ते निजे, वाचा रोचित ! मानमारयमदं भावारितापापहे ॥ ३ ॥ मिथ्येति ॥ हे अपाप !' पापरहित !, हे 'अदम्भावारित !' अदम्भैः-अकपटैः अवारितः-अनिषिद्धप्रवृत्तिकः यथावद् मार्गानुयायीत्यर्थः तस्यामत्रणम् , हे 'रोचित!' अङ्गीकृत !, कया? 'वाचा' सरस्वत्या, त्वं तं सिद्धान्तं 'निजे' स्वीये चित्ते 'श्रद्धाय' श्रद्धायामुपगम्य 'आनम' नमस्कुरु । किम्भूतम् ? अभङ्गाः-भङ्गरहिता ये भङ्गाः-विकल्पविशेषास्तैः कलितं-शोभितम् । पुनः किं० ? मान:अहङ्कारो मार:-कामो यमश्च-मृत्युः तान् द्यति-खण्डयति यः स तथा तम् । पुनः किं ? आचारेण-सदनुष्ठानेन उचितम्-अनुरूपम् । चित्ते किम्भूते ? भावारीणां-क्रोधादिकषायाणां तापःदुःखानुभवलक्षणः तम् अपहन्ति यत् तत् तथा तस्मिन् । तं कम् ? 'यतः' यस्मात् 'क्षितौ' पृथिव्यां 'ध्रुवं' निश्चितं 'मिथ्यादृष्टिमतं' कणादादिशास्त्ररूपम् 'अरयम्' अप्रसरमभूत् । यतः किम्भूतात् ? प्रध्वस्तः–विनाशितः दोषः-अज्ञानादिः येन (इष्टतया) तस्मात् ॥३॥ शत्रूणां घनधैर्यनिर्जितभया त्वां शासनस्वामिनी, पातादानतमानवासुरहिता रुच्या सुमुद्राजिषु । १ व्याख्यान्तरमस्यावचर्याम्-“वा' पूरणे, 'चारो !' अभिराम ! चितमानमारयमदं' चितान्-पुष्टान् मानादीन् द्यतीति वा ।" २ अक्षरचतुष्टयमधिकामिव प्रतिभाति ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । श्रीशान्तिक्रमयुग्मसेवनरता नित्यं हतव्यग्रतापातादानतमा नवासु रहिताऽरुच्या सुमुद्राऽऽजिषु ॥ ॥ इति श्रीशान्तिजिनस्तुतिः ॥ १६ ॥ शत्रूणामिति ॥ हे 'सुमुद्र !' सुष्टु-शोभना मुद्रा यस्य तस्याऽऽमत्रणम् , 'शासनस्वामिनी' शासनदेवता त्वां 'पाताद्' रक्षतात् । किम्भूता ? 'शत्रूणां' वैरिणाम् 'आजिषु' संग्रामेषु घनेनबहलेन धैर्येण-धीरिमगुणेन निर्जितं भयं यया सा । पुनः किं० ? आ-समन्तात् नता:-प्रणता ये मानवाः-मनुष्या असुराश्च-भवनपतिविशेषास्तेषां हिता-अनुकूला । पुनः किं० ? सुष्टु-शोभना मुद्-आनन्दो येषां ते सुमुदः तेषां राजिषु-श्रेणिषु मध्ये 'रुच्या' मनोहरा । पुनः किं ? 'नित्यं' निरन्तरं श्रीशान्ते:-श्रीशान्तिनाथस्य यत् क्रमयुगं-चरणयुगलं तस्य यत् सेवनं-पर्युपासनं तत्र रतासक्ता । पुनः किं० ? हतानि-निराकृतानि व्यग्रता-आकुलत्वलक्षणा पात:-मार्गच्यवनलक्षणः अदानं च-कृपणतालक्षणं तान्येव तमांसि-ध्वान्तानि चया सा तथा। आजिषु किम्भूतासु ? 'नवासु' प्रत्यग्रासु । पुनः किम्भूता ? 'अरुच्या' अनभिलाषेण रहिता' वियुता ॥४॥ ॥ इति श्रीशान्तिजिनस्तुतिविवरणम् ॥ १६ ॥ स जयति जिनकुन्थुर्लोभसंक्षोभहीनो, महति सुरमणीनां वैभवे सन्निधाने । इह भवति विना यं मानसं हन्त केषा महति सुरमणीनां वै भवे सन्निधाने ॥१॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीकुन्थुजिनस इति ॥ स जिनकुन्थुः 'जयति' सर्वोत्कर्षेण वर्तते। किम्भूतः ? 'महति' विमले 'सुरमणीनां देवताधिष्ठितानां चतुर्दशरनानां 'वैभवे' विभुत्वे लोभसंक्षोभेण-मूर्छाविप्लवेन हीनः-रहितः, किम्भूते ? सन्ति-शोभनानि निधानानि-महापद्मादीनि यत्र तत् तथा तस्मिन् । स कः ? यं विना इह 'भवे' संसारे 'वै' निश्चितं 'मुरमणीनां शोभनस्त्रीणां 'सन्निधाने अन्तिके * 'हन्त'. इति कोमलामन्त्रणे, केषां 'मानसं' चित्तम् 'अहति' बाधारहितम् ? न * केषामपीत्यर्थः ॥ १॥ जयति जिनततिः सा विश्वमाधातुमीशाs मदयतिमहिताऽरं किन्न रीणामपाशम् । विलसितमपि यस्याः हन्त नैव स्म चित्तं, मदयति महि तारं किन्नरीणामपाशम् ॥ २ ॥ . जयतीति ॥ सा 'जिनततिः' तीर्थकरश्रेणिर्जयति। किम्भूता ? "विश्वं जगत् 'रीणाऽऽमपाशं क्षीणरोगपाशम् 'आधातुं' कत्तुं किं 'न ईशा' न समर्था ? अपि तु समथैवेत्यर्थः । पुनः किं० ? 'अरम्' अत्यर्थम् * अमदाः * अनहङ्कारा ये यतयः-वाचंयमास्तैः महिताः-भावस्तवेन पूजिता। सा का ? यस्याः 'चित्तं' हृदयं किन्नरीणामपि 'विलसितं' गतस्मृतनृत्यादिचेष्टितं 'हन्त' इति कोमलामन्त्रणे नैव 'मदयति स्म' रुचिकारं कुरुते स्म । किम्भूतम् ? अप-गता आशा यस्मात् तत् , चिकीर्षितप्रभुविकारासिद्धेः। पुनः किं० ? 'महि' उत्सवंयु । पुनः किं० ? 'तारं' महोदारम् ॥२॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । ५७ अवतु गदितमाप्तस्त्वा मतं जन्मसिन्धौ, परमतरणहेतु च्छायया भासमानैः । विविधनयसमूहस्थानसङ्गत्यपास्ता परमतरण ! हेऽतुच्छायया भाऽसमानैः ॥ ३ ॥ अवत्विति ॥ हे विविध० रण !' विविधाः-विचित्रा ये नया:-नैगमादयः तेषां समूहः-समुदायः तस्य या स्थानसङ्गतिः औचित्येन योजनं तया अपास्त:-निराकृतोऽपरेषां-नैयायिकादीनां मतमेव-दर्शनमेव रणः-संग्रामो येन स तथा तस्य आमन्त्रणम् ; 'आप्तैः' तीर्थकरैः 'गदितम्' अभिहितं मतं त्वा 'अवतु' रक्षतु । किम्भूतम् ? 'जन्मसिन्धौ' संसारसमुद्रे ‘परमतरणहेतु' अतिशयितपारगमननिबन्धनम् । आप्तैः किम्भूतैः ? 'भासमानैः' * 'शोभमानैः' *, कया ? 'छायया' शोभया, किम्भूतया ? अतुच्छ:विपुल आयः-लाभो यस्यां सत्यां यस्याः सकाशाद्वा सा तथा तया। * पुनः * आप्तैः किम्भूतैः ? भया-कान्त्या असमानैःनिरुपमानैः ॥ ३ ॥ कलितमदनलीलाऽधिष्ठिता चारु कान्तात् सदसिरुचितमाराद् धाम हन्तापकारम् । हरतु पुरुषदत्ता तन्वती शर्म पुंसां, सदसि रुचितमाऽऽराद्धाऽमहं तापकारम् ॥४॥ ..॥ इति श्रीकुन्थुजिनस्तुतिः ॥ १७ ॥ कलितेति ॥ पुरुषदत्ता 'हन्त' इति कोमलामरगे 'पुंसां' पुरुषाणां 'सदसि' सभायाम् 'अपकारं' परलोकापायलक्षणमपराधं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચૂંટ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीअरनाथ 'हरतु' अपनयतु । किम्भूता ? कलिता - परिशीलिता मदनलीलाकामक्रीडा यया सा तथा, कस्मात् ? 'कान्तात् ' रमणात्, किम्भूतात् ? उचितः - योग्यो मारः - कन्दर्पो यस्य स तथा तस्मात् । पुनः किम्भूता ? ' अधिष्ठिता' आश्रिता, किम् ? 'धाम' गृहम्, किम्भूतम् ? 'चारु' मनोहरम् । पुनः किंविशिष्टा ? सन् - शोभनोऽसि:-खड्गो यस्याः सा तथा । किं कुर्वती ? तन्वती, किम् ? 'शर्म' सुखम्, किम्भूतम् ? 'रुचितम् ' रुचिविषयम् । किम्भूता ? 'आराद्धा' कृतभजना । अपकारः किं० ? 'अमहं' नास्ति महः - उत्सवो यत्र यस्माद् वा तम्, पुनः किं० ? तापं कारयतीति तापकारः तम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्री कुन्थुजिनस्तुति विवरणम् ॥ १७ ॥ हरन्तं संस्तवीम्यहं त्वामरजिन ! सततं भवोद्भवामानमदसुरसार्थवाचंयम ! दम्भरताधिपापदम् । विगणितचक्रवर्त्तिवैभवमुद्दामपराक्रमं हता मानमद ! सुरसार्थवाचं यमदं भरताधिपाऽऽपदम् ॥ १ ॥ हरन्तमिति ॥ हे 'आन० यम !' आ - समन्तात् नमन्तःप्रणामं कुर्वन्तोऽसुरसार्थाः - दानवगणाः वाचंयमाः - श्रमणाश्च यस्य स तथा तस्य आमन्त्रणम्, हे 'हवामानमद !" हतः - निराकृतः अमान:- अपरिमाणो मदः - अहङ्कारो येन स तथा तस्यामन्त्रणम्, हे 'भरताक्षिप !' भारत क्षेत्रप्रभो ! हे अरजिन ! 'भवोद्भवां' संसारोत्पन्नाम् आपदं' विपत्ति 'हरन्तम्' अपनयन्तं त्वामहं 'सततं' निरन्तरं संस्तवीमि । त्वां किं० ? दम्भः - कपटं रतं - निधुवनम् Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । आधिः-मानसी पीडा पापं-दुरितं तानि यति-खण्डयति यः स तथा तम् । पुनः किं० ? विगणितं-तृणवत् परित्यक्तं चक्रवर्तिवैभवं-षट्खण्डप्रभुत्वं येन स तथा तम् । पुनः किं० ? उद्दामःसर्वातिशायी पराक्रमः-शक्तिविशेषो यस्य स तथा तम् । पुनः किं० ? सुष्टु-शोभनो रसो येषां ते सुरसाः, सुरसा अर्थाः यस्याः सा सुरसार्था, सुरसार्था वाग् यस्य स तथा तम् । पुनः किं० ? यमान्-महाव्रतानि ददातीति यमदः तम् ॥ १ ॥ भीमभवं हरन्तमपगतमदकोपाटोपमहतां, स्मरतरणाधिकारमुदितापदमुद्यमविरतमुत्करम् । भक्तिनताखिलसुरमौलिस्थितरत्नरुचाऽरुणक्रम, स्मरत रणाधिकारमुदितापदमुद्यमविरतमुत्करम् ॥२॥ भीमभवमिति ॥ यूयं 'अहंतां' तीर्थकृताम् 'उत्कर' समूहम् 'अविरतं' निरन्तरं 'स्मरत' स्मृतिविषयं कुरुत । किम्भूतम् ? अपगतो मदः-अहङ्कारः कोपाटोप:-क्रोधडम्बरश्च यस्मात् स तथा तम्। पुनः किं० ? स्मरस्य-कन्दर्पस्य तरणे-पारगमने योऽधिकारस्तेन मुदिता-परसुखतुष्टिः तस्याः पदं-स्थानम् । पुनः किं० ? उदूउत्कृष्टा या-लक्ष्मीः यस्य स तथा *तम् । पुनः किं ? भक्त्या नता येऽखिला:-सर्वे सुराः-देवाः तेषां मौलि:-(मौलयः-मुकुटाः) तत्र स्थितानि यानि रत्नानि तेषां रुचा-कान्त्या 'अरुणक्रम' पाटलचरणम् । पुनः किं० ? उद्यमेन-आदरेण ये विरताः-गृहीतव्रतास्तेषां मुदम्-आनन्दं करोति यः स तथा तम् । किं कुर्वन्तम् ? १" यम-मृत्युं यति-खण्डयति तम्" इत्यवचूर्याम् ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीअरनाथ रणस्य - संग्रामस्य अधिकारो यस्मादीदृशम्, उदिता - उत्पन्नाऽऽ - पत् च यस्मात् तादृशम्, 'भीमभवं' भीषणसंसारं 'हरन्तं' हेतूच्छेदादपनयन्तम् ॥ २ ॥ भीमभवदधेर्भुवनमेव यतो विधुशुभ्रमञ्जसा sभवदवतो यशोऽभितरणेन न मादितं नयमितं हितम् । जिनपसमयमनन्तभङ्कं जन ! दर्शनशुद्धचेतसा, भवदवतोय ! शोभित! रणेन नमादितं न यमितं हितम् ॥ ३ भीमेति ॥ हे 'शोभित !' भासित !, केन ? ' दर्शनशुद्धचेतसा' सम्यक्त्वनिर्मलहृदयेन; हे 'भवदवतोय !' संसारदावानलजल !, हे 'जन' हे प्राणिन् ! 'हि' निश्चितं तं 'जिनपसमय' भगवत्सिद्धान्तम् * ' अञ्जसा एव' शीघ्रमेव * 'नम' नमस्कुरु । किम्भूतम् ? 'न' नैव 'मादितं' जातोन्मादम् । पुनः किं० ? 'नयं' नैगमादिकं शुद्धपथं वा 'इ' प्राप्तम् । पुनः किं० ? अनन्ताः - अपरिमिताः भङ्गाः–विकल्पविशेषा यत्र स तथा तम् । पुनः किं० ? 'रणेन' संग्रामेन 'नयमितं ' न बद्धम् । पुनः किं० ? ' अदितम्' अखण्डितम् । पुनः किं० 'हितं' पथ्यावहम् । तं कम् ? 'यतः ' यस्मात् 'भीमभवोदधेः ' भीषणसंसारसमुद्रस्य 'अभितरणेन' समन्तात् तरणेन 'विधुशुभ्रं' चन्द्रोज्ज्वलं यशः 'अभवत् ' अजनि । यतः किं कुर्वतः ? भुवनम् * ' अवतः * रक्षतः ॥ ३ ॥ चक्रधरा करालपरघातबलिष्ठमधिष्ठिता प्रभासुरविनतातनुभवपृष्ठमनुदितापदरं गतारवाक् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निका ११ स्तुतिः ।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । दलयतु दुष्कृतं जिनवरागमभक्तिभृतामनारतं, सुरविनता तनुभवपृष्ठमनु दितापदरङ्गतारवाक् ॥ ४॥ ॥ इति श्रीअरनाथस्तुतिः॥ १८ ॥ चक्रधरेति ॥ 'चक्रधरा' चक्रेश्वरी ‘जिनवरागमभक्तिभृताम्' अर्हच्छासनभक्तानाम् 'अनारतम्' निरन्तरं 'दुष्कृतं पापं 'दलयतु' खण्डयतु । किम्भूता ? 'अधिष्ठिता' स्थिता, किम् ? प्रभासुर:देदीप्यमानो यो विनतातनुभवः-गरुडः तस्य पृष्ठम् , किम्भूतम् ? कराला-भीषणा ये परे-वैरिणः तेषां घातेन-हननेन बलिष्ठं-अतिशयितबलवत् । चक्रधरा किम्भूता ? अनुदिता-अनुत्पन्ना आपद्-विपत्तिर्यस्याः सा । * पुनः किं० ? 'अरम्' अत्यर्थं गता आरवाक्-शात्रववाणी यस्याः सा । * पुनः किं० ? सुरैः-देवैः विनतानमस्कृता । पुनः किं० ? 'तनुभवपृष्ठं' स्वल्पभवशेष स्वल्पभवप्रश्नं वा 'अनु' लक्षीकृत्य दितापदऽरङ्गा-खण्डितविपद्रङ्गविरहा तारामनोहरा च वाग् यस्याः सा तथा, प्रतनुकर्मणामभिलषितफलदस्वाद् भगवतः समीपे तद्भवप्रश्नपूर्व तत्तदिहापनोदाद् वेति भावः॥४॥ ॥ इति श्रीअरनाथस्तुतिविवरणम् ।। १८॥ महोदयं प्रवितनु मल्लिनाथ ! मेऽ घनाघ! नोदितपरमोहमान ! सः। अभूर्महाव्रतधनकाननेषु यो, घनाघनोऽदितपरमोहमानसः॥१॥ अत्र 'पृष्ठ-पृष्ट'शब्दाभ्यां व्याख्याऽवबोद्धव्या ॥ २ अवचूर्याम्"दितापदा-खण्डितास्थानाऽत एव रङ्गेण तारा वाग-वाणी यस्याः सा।"इति ॥ ३ "तत्तदीहा" इति भवेत् ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीमल्लिजिन महोदयमिति ॥ हे 'अघनाघ ! ' नास्ति घनं - निबिडम् अघं - पापं यस्य तस्यामन्त्रणम्, हे 'नोदितपरमोहमान !' नोदितौ - प्रेरितौ विसंस्थूलीकृतौ परेषां मोहमानौ - अज्ञानाहङ्कारौ येन तस्यामन्त्रणम्, हे मल्लिनाथ ! स त्वं 'मे' मम 'महोदयं' मोक्षं महानाम् - उत्सवानां वा उदयं 'प्रवितनु' कुरु । स कः ? यस्त्वं महाव्रतान्येव घनानि - सान्द्राणि काननानि वनानि तेषु 'घनाघनः' मेघः अभूः, यथा घनाघनः काननस्फातिं जनयति तथा त्वया महाव्रतस्फातिर्जनितेत्यर्थः । त्वं किं० ? अदिताः - अखण्डिताः परमाः - उत्कृष्टा ऊहाः - विचाराः यत्र एतादृशं मानसं - हृदयं यस्य स तथा ॥ १ ॥ मुनीश्वरैः स्मृत ! कुरु सौख्यमर्द्दतां सदा नतामर ! समुदाय ! शोभितः । घनैर्गुणैर्जगति विशेषयन् श्रिया, ६२ सदानतामरस! मुदा यशोऽभितः ॥ २ ॥ मुनीश्वरैरिति ॥ हे 'स्मृत!' स्मृतिविषयीकृत !, कै: ? 'मुनीश्वरैः' योगीन्द्रैः कया ? 'मुद्रा' हर्षेण; हे ' नतामर !' प्रणतत्रिदश ?, हे 'सदानतामरस!' दानं त्यागः तामरसं च-कमलम् सह ताभ्यां वर्तते यस्तस्यामन्त्रणम्, हे 'समुदाय !' चक्रवाल !, केषाम् ? 'अर्हतां' तीर्थकराणाम् त्वं 'सदा' निरन्तरं सौख्यं कुरु । किम्भूतः ? 'श्रिया' अतिशयादिलक्ष्म्या 'शोभितः ' भ्राजितः । किं कुर्वन् ? 'घनैः' बहुलै : 'गुणैः' औदार्यादिभिः 'जगति' विश्वे 'अभितः' समन्तात् ' यश:' श्लोकं 'विशेषयन्' अतिशयानः ॥ २ ॥ १ “परौ - प्रकृष्टौ ” मोहमानविशेषणतयाऽवचूर्याम् ॥ ; Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । जिनः स्म यं पठितमनेकयोगिभि मुंदा रसं गतमपरागमाऽऽह तम् । सदागमं शिवसुखदं स्तुवेतरा मुदारसङ्गतमऽपरागमाहतम् ॥३॥ जिन इति ॥ अहं तं 'सदागमम्' उत्तमसिद्धान्तं 'स्तुवेतराम् अतिशयेन स्तवीमि । किम्भूतम् ? 'शिवसुखदं' मोक्षसुखदम् । पुनः किं० ? उदारं-महापं च तत् सङ्गतं-सङ्गतियुक्तं चेत्यर्थः । पुन: किं० १ अपरागमैः-तत्रान्तरीयसिद्धान्तैः अहतम्-अबाधितम् । तं कम् ? यं 'जिनः' भगवान् 'आह स्म' ब्रूते स्म । किम्भूतम् । 'अनेकयोगिभिः' निःशेषसाधुभिः 'पठितम्' अधीतम्, कया ? 'मुदा' हर्षेण । पुनः किं० १ 'रसं' शान्ताख्यं गतं' प्राप्तम् । पुनः किं० ? अपगतो रागो यस्मात् तम् , क्रियाविशेषणं वा एतत् ॥३॥ तनोतु गीः समयरुचिं सतामना विला सभा गवि कृतधीरतापदा । शुचिद्युतिः पटुरणदच्छकच्छपीविलासभागऽविकृतधीरतापदा ॥४॥ ॥ इति श्रीमल्लिजिनस्तुतिः॥ १९॥ तनोत्विति ॥ गीः' भारती 'सताम्' उत्तमानां 'गवि' पृथिव्यां 'समयरुचि' प्रवचनश्रद्धां तनोतु' विधत्ताम् । किम्भूता ? 'अनाविला' निर्मला। * पुनः किम्भूता ? 'सभा' सह भया-प्रशस्तकान्या वर्त्तते या सा । पुनः किम्भूता ? 'कृतधीरतापदा' कृतंविहितं धीरतायां-धैर्ये पद-स्थानं यया सा । * पुनः किं ? 'शुचि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीमुनिसुव्रत 'द्युतिः' उज्ज्वलवर्णा । पुनः किं० ? पटु - निपुणं रणन्ती या अच्छानिर्मला कच्छपी - वीणा तस्या विलासः - प्राममूर्च्छनादिरूपस्तं भजति या सा । पुनः किं० ? 'अविकृतधीः' अपरिप्लुतमतिः । पुनः किं० ? तापं ददाति या सा तापदा, न तादृशी अतापदा ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीमल्लिनाथस्तुतिविवरणम् ॥ १९ ॥ तव मुनिसुव्रत ! क्रमयुगं ननु कः प्रतिभा - वनधन ! रोहितं नमति मानितमोहरणम् । नतसुरमौलिरत्नविभया विनयेन विभ वनघ ! नरो हितं न मतिमानितमोहरणम् ॥१॥ तवेति ॥ हे 'प्रतिभावनघन !' प्रतिभा - सद्यः स्फूर्तिमती बुद्धिः सैव वनं - विपिनं तत्र घन इव - मेघ इव तदुल्लासकारित्वात् यः तस्य आमन्त्रणम्, हे 'अनघ !' निष्पाप !, हे 'विभो' ! हे स्वामिन् !, हे मुनिसुव्रत ! तव 'मयुगं' चरणयुगलं को 'मतिमान् ' पण्डितः 'नर' पुरुषः 'ननु' इति निश्वये विनयेन न 'नमति' नमस्कुरुते ? अपि तु सर्व एव नमस्कुरुत इत्यर्थः । क्रमयुगं किं० १ नतानां सुराणां देवानां ये मौलय:- मुकुटास्तेषां यानि रत्नानि तेषां विभया - कान्त्या 'रोहित' पाटलम् । पुनः किं० १ मानिनां - मानवतां तमस:-अज्ञानस्य हरणं - नाशकम् । पुनः किं० ? ' हितं ' हितकारि, पुनः किं० ? इतौ तौ मोहरणौ - अज्ञानसंग्रामौ यस्य सकाशात् तम् ॥ १ ॥ अवति जगन्ति याऽऽशु भवती मयि पारगतावलि ! तरसेहितानि सुरवा रसभाजि तथा । -- Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । दिशतु गिरा निरस्तमदना रमणीहसिता - वलितरसे ! हितानि सुरवारसभाजितया ॥ २ ॥ अवतीति ॥ हे ' रमणी० रसे !, रमणीनां -कामिनीनां हसि - तेन- स्मितेन अवलितः - अचलितो रसः - शान्ताख्यो यस्यास्तस्या आमश्रणम्, हे 'पारगतावलि !" तीर्थंकर श्रेणि ! भवती मयि 'आशु' शीघ्रम् 'ईहितानि वाञ्छितानि हितानि 'दिशतु' ददातु । भवती किं० ? 'सुरखा' शोभनध्वनिः । पुनः किं० ? तथा 'गिरा' वाण्या ' तरसा' वेगेन 'निरस्तमदना' प्रध्वस्तकामा । किम्भूतया गिरा ? सुरवारेण - देवसमूहेन सभाजितया - सेवितया । तया कया ? या 'जगन्ति' भुवनानि 'अवति' रक्षति । मयि किम्भूते ? रसं भजतीति रसभाक् तस्मिन् ॥ २ ॥ यतिभिरधीतमार्हतमतं नयवज्रहताऽघनगम भङ्गमानमरणैरनुयोगभृतम् । अतिहितहेतुतां दधदऽपास्तभवं रहितं, खुतिः । ] घनगमभङ्गमाऽऽनम रणैरनु योगभृतम् ॥ ३ ॥ यतिभिरिति ॥ हे जन ! त्वम् 'आर्हतमतं' जैनेन्द्र प्रवचनम् 'आम' नमस्कुरु । किम्भूतम् ? 'यतिभिः' वाचंयमैः 'अधीतं' पठितम्, यतिभिः किम्भूतैः ? नास्ति भङ्गः - पराजयो मान:- अहङ्कारो मरणं - मृत्युश्च येषां ते तथा तैः । पुनः किं० ? नया एक वज्राणि - पवयस्तैर्हता अघनगाः- पातकशैला येन तत् । पुनः किं० १ अपास्तः - निराकृतो भवः - संसारो येन तत् । पुनः किं० ? घनाःनिबिडाः गमाः - सदृशपाठाः भङ्गाश्च - विकल्पविशेषा यत्र तत् । ६५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीमुनिसुव्रतपुनः किं० :' संग्रामैः 'रहितम्' उज्झितम् , प्रशमोपदेश तया रणरसाभिनिवेशत्यागहेतुत्वादाहतमतस्य । पुनः किं. ? मपुयोगेंन-सूत्रार्थनियुक्तिमिश्रितार्थनिरवशेषार्थभेदभिन्नेन व्याख्यानविधिना भृतं-पूर्णम् । किं कुर्वत् ? योग-श्रुताध्ययनयोम्यताऽऽपादकं क्रियाविशेषं बिभर्ति-पुष्णातीति योगभृत् तम् 'मनु' लक्षीकृत्य 'अतिहितहेतुतां' परमहितावहतां 'दधत्" बिभ्रत् । पतेन अनूढयोगानामध्ययनानधिकारित्वमुक्तम् , न चैतदयुतम्,पर्यायविशेष प्रतिनियमेनैव प्रवचने तत्तत्प्रवचनोद्देशाद्यनुज्ञानात् , अन्यथा तदनुपपत्तेः महानिधानकल्पस्य सिद्धान्तस्य विना विधिग्रहणेऽपायसम्भवाच्च, अत एव शि. क्षाधिकारे शैक्षस्य योगवत्त्वगुणोक्तिरपि सङ्गतेति दिग॥३॥ वितरतु वाञ्छितं कनकरुग् भुवि गौर्ययशो हृदिततमा महाशुभविनोदिविमानवताम् । रिपुमदनाशिनी विलसितेन मुदं ददती, - हृदि ततमाऽऽमहाऽऽशु भविनो दिवि मानवताम्॥४॥ ॥ इति श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तुतिः ॥ २० ॥ वितरत्विति ॥ गौरी 'भुवि' पृथिव्याम् 'आशु' शीघ्रं भविनः भव्यलोकस्य 'ततं' विस्तीर्ण 'वाञ्छितम्' ईप्सितं 'वितरतु' ददातु। गौरी किं० ? कनकस्येव सुवर्णस्येव रुक्-कान्तिर्यस्याः सा तथा। पुनः किं० ? अयश:-अकीर्तिः हरतीति अयशोहृत् । पुनः किं ? १“ततौ-विस्तीर्णौ मामही लक्ष्म्युत्सवौ यस्याः सा इत्येकमेव वा पदम्," इत्यवचूर्याम् ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविः । 1 ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका इवं गतं तमः - पाप यस्याः सकाशात् सा इततथा । पुनः किं० 'रिपुमदनाशिनी' शत्रुस्मयनाशकरी । पुनः किं० ? 'आमा' - गा । किं कुर्वती ? 'विलसितेन' विलासेन 'दिवि' बलकि 'मानवताम्' ऐश्वर्यादिगुणैरभिमानिनाम् महाशुभाः - अतिप्रशस्ता ये विनोदिनः *विनोद*क्रियारसिका विमानवन्तः - वैमानिकास्तेषां 'हृदि' हृदये 'मुदं' हर्ष 'ददती' यच्छन्ती ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीमुनिसुव्रत जिनस्तुतिविवरणम् ॥ २० ॥ यतो यान्ति क्षिप्रं नमिरघवने नात्र तनुते, विभावर्यो नाशं कमऽनलसमाऽऽनन्दितमदः । दधद् भासां चक्रं रविकर समूहादिव महा- विभावर्योsनाशङ्कमनलसमानं द्वितमदः ॥ १ ॥ यत इति । 'अद : ' एतद् 'भासांचक्रं' भामण्डलं 'दधत् ' वि भ्रत् नमिः 'अत्र' जगति कम् 'अनलसं' भगवदाज्ञाप्रतिपत्तौ परित्यक्तालस्यम् 'अनाशङ्कम्' " आशङ्का साध्वसं दर:" इत्यभिधानचिन्तामणि ( २ - २१५ ) वचनाद् भयरहितम् अत एव 'आनन्दितं ' प्रमुदितं न तनुते ? अपि तु सर्वमपि भयरहितमानन्दितं च तनुते, तथा च जगज्जीवातुजीवाभयहर्षदानप्रवणतया नमस्करणीयोऽयमिति व्यज्यते, 'अनाशङ्क' निःशङ्कमिति क्रियाविशेषणं आनन्दितमित्येव वा विधेयपदम् । नमिः किम्भूतः ? दितः - खण्डितो मदः -- नात्याद्यवलेपः येन सः । पुनः किं० १ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीनमिजिनविभया-कान्त्या वर्यः-मनोहरः । भासांचक्रं किम्भूतम् ? 'अघवने' दुरितकानने 'अनलसमानम्' अग्मितुल्यम् , यथाऽनिर्वनं विनाशयति तथेदमपि दुरितं विनाशयतीत्यर्थः । अदः किम् ? 'यतः' यस्मात् 'महाविभावर्यः' अमावास्याद्या अपि बहलतमिस्रप्रफुल्ला निशीथिन्यः क्षिप्रं' तूर्ण 'नाशं यान्ति' क्षयं प्राप्नुवन्ति । कस्मादिव ? 'रविकरसमूहादिव,' सूर्यकिरणचक्रादिव ॥ १॥ भवोद्भूतं भिन्द्याद् भुवि भवभृतां भव्यमहिता, जिनानामाऽऽयासं चरणमुदिताऽऽली करचितम् । शरण्यानां पुण्या त्रिभुवनहितानामुपचिता ऽऽजिनानामायासंचरणमुदितालीकरचितम् ॥२॥ भवोद्भूतमिति ॥ 'जिनानाम्' अर्हतां 'आली' श्रेणिः 'भुवि' पृथिव्यां भवभृतां प्राणिनां 'भवोद्भूतं' संसारसमुत्थम् 'आयासं' खेदं 'भिन्द्याद्' विलुम्प्यात् । आली किं० ? भव्यैः महितापूजिता, अभव्यानां देवाद्यतिशयदर्शनात् संसारसुखलि. प्सया तत्पूजनं तु परमार्थतोऽपूजनमेवेति भावः । पुनः किं ? चरणेन-चारित्रेण मुदिता-आनन्दिता, भवति हि सरागचारित्रेणाऽपि मासादिपर्यायवृद्धौ व्यन्तरादितेजोलेश्यातिकमाभिधानाद् विशिष्टसुखातिशय इति किमाश्चर्य वीतरागचारित्राद आनन्दातिशये ? इति युक्तमुक्तमदः । पुनः किं० ? 'पुण्या' पवित्रा। जिनानां किम्भूतानाम् ? 'शरण्यानां' शरणयोग्यानाम् । पुनः किं० ? 'त्रिभुवनहितानां जगत्रयहितकारिणाम् । आयासं किं० ? करेण-दण्डेन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः । ] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका ६९ S चितम् अथवा करेण-हस्तेन चितं खार्जितमित्यर्थः, अयं खल्वात्मन एव दोषो यदनुभवति प्राणी तथाविधं पुराकृतं शिष्टं कर्म । पुनः किं० १ उपचितं - प्रवृद्धम् आजिभिः - सङ्घामैः नानामायासश्वरणंविचित्रकपटसवारो यत्र तत् तथा । पुनः किं० ? ' उदितम् ' उत्थितं यद् 'अलीकं' मिथ्यावचनं तेन रचितं जनितम्, असत्यवचनमेव खल्वेतन्मूलमुक्तम् । यतः - 'असत्यवचनाद् वैरविषादाप्रत्ययादयः । श्रादुष्षन्ति न के दोषाः, कुपध्याद् व्याधयो यथा ॥ " इति ॥ २ ॥ जिनानां सिद्धान्तश्चरणपटु कुर्यान्मम मनो Sपराभूतिर्लोके शमहितपदानामऽविरतम् । यतः स्याच्चक्रित्वत्रिदशविभुताद्या भवभृतां, परा भूतिर्लोकेशम हि तपदानामविरतम् ॥ ३ ॥ जिनानामिति ॥ 'जिनानां' भगवतां 'सिद्धान्तः ' समयो मम 'अविरतम्' अविरतिपरिणामयुक्तं 'मनः' चित्तम् 'अविरतं' निर न्तरं 'चरणपटु' विरतिपरिणामधारणक्षमं कुर्यात्, अत्र च यद्यप्यविरतत्वमात्मनो धर्मो न तु मनसः तथापि भावमनस यात्मरूपत्वाद् द्रव्यार्थिकप्राधान्यादविरतं मन इत्युक्तमिति ध्येयम् । सिद्धान्तः किं० ? 'लोके' जगति 'अपराभूतिः' पराभवरहितः | जिनानां किम्भूतानाम् ? ' शमहितपदानाम्' उपशमपध्यस्थानानाम् । पुनः किं० १ लोकेशैः - लोकपालैः महिते -*पूजिते पदे-चरणे येषां तेषाम् । स कः ? 'यतः ' यस्मात् 'भव - मृत' संसारिणां चक्रित्वं - सार्वभौमत्वं त्रिदशविभुता च - इन्द्रत्वं वे आये यस्यास्तादृशी 'परा' प्रकृष्टा 'भूतिः' संपत् स्यात् ॥ ३ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविक्रयोपाध्यायविरचिता [ श्रीनमिजिन मजन्यालव्याघानलजल समिद्बन्धनरुजो गालीकालीन यमवति विश्वासमाहिता । जनैर्विश्वध्येया विघटयतु देवी करलसद्राक्षाली काली नयमऽवति विश्वाऽसमहिता ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीनमिजिनस्तुतिः ॥ २१ ॥ मजेति ॥ काली देवी 'गजव्यालव्याघ्रानलजलसमिद्बन्धनरुजी' लक्षणया गजादिजन्यभयानि 'विघटयतु' वियोजयतु । काली किं० १ 'अगदानि - नैरुज्य कलितानि अक्षाणि - इन्द्रियाणि यासां तादृश्य आल्यः सख्यो यस्याः सा तथा । पुनः किं० ! 'जनैः' लोकैः विश्वासेन - विष्टम्भेनं महिता- पूजिता । पुनः किं० १ विश्वस्यजगती ध्येया- स्मरणीयत । पुनः किं० १ करे - हस्ते लसन्त्यौ - शोभमाने गदा च अक्षाली च द्यूतपाशश्रेणिश्च यस्याः सा । पुनः किं० ? विश्वतः - सर्वस्माद् असमं- निरुपमं हितं यस्याः सा । त्र ? 'नयं' न्यायम् 'अवति' पालयति, अलीके - अमृतेऽलीम :असकी वो यमान- महाव्रतवान् तस्मिम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीनमिजिनस्तुति विवरणम् ॥ २१ ॥ स्वं नाशत पीरिमा गुणनिधिः प्रेम्णा वितन्वन् सदा, मेकान्तमहामना विलसतां राजीमतीरागतः । अत्र " अगदानि-नैरुज्य कलितानि अक्षाणि - इन्द्रियाणि यस्याः सा" इत्येव पाठी वरिष्ठः, अम्बा “अलीकालीन यमवति" इत्यत्र "कालीनयमवति" इयानिष्यतेऽनिलः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्वतिपनियतिका कुर्यास्तस्य शिवं शिवाङ्गजाभवाम्भोधौ न सौभाग्यभार, नेमे कान्तमहामऽनाविल ! सतां राजीमतीरामतः॥२॥ वं येनेति ॥ हे 'शिवाज!' शिवादेवीपुत्र !, हे 'अनाविल!' अकलुष! हे नेमे ! त्वं तस्य 'सदा निरन्तरम् शिवम् कल्याणं कुर्याः । त्वं किं० ? 'भवाम्भोधौं' संसारसमुद्रे 'नातीरागतः' व अपारप्राप्तः, द्वयोर्ननोः प्रकृतार्थगमकत्वात् पारप्राप्त रखे. सर्वः। पुनः किं० ? सौभाग्यं भजतीति सौभाग्यभाग। पुनः किं०१ भकस्य-दुःखस्य अन्तो यस्मादसौ अकान्तः स चासौ महामना:उधमचित्तः स तथा । तस्य कस्य ? त्वं येन प्रेम्णा' हर्षेण 'ने' नमस्कृतः । *पुन:* किं० १ 'राजीमतीरागतः' राजीमतीकोन: *आक्षत:-अविनष्टः धीरि* मा-धीरभावो यख सा . पुनः कि० गुणानाम्-औदार्यादीनां निधि:-सेवधिः किं कुर्वन् ? 'क्लिनसाम्' उल्लसतां 'सतो' साधूनां 'राजी' श्रेणी कान्तमहां' समायोत्सवां 'विसन्वन्' विधत् ॥१॥ जीवामुर्जिनपुङ्गवा जगति ते राज्यर्द्धिषु प्रोल्लस द्वामानेकपराजितासु विभयासन्नाभिरामोदिता - पोधातीभिरुदित्वरा न गणिता यैः स्फातयः प्रस्फुर- , द्वामानेकपराजितासु विभया सन्नाभिरामोदिता श्रीवासुरिति ॥ ते 'जिनपुङ्गवाः' जिनवृषभाः 'जगति हो या सर्वोत्कर्षेण वरन् । ते के ? मै: 'राज्यादिषु' अपत्न शाख भृक्षवः 'न गणिता' न पुरस्कृताः, तन्मात्रयायत समिरविणाद् विमुखीभूतमिलर्थः । फातमा कि० किमया Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीनेमिजिनकान्या 'उदित्वराः' प्रतिदिनमुदयनशीलाः । राज्यर्द्धिषु किम्भूतासु ? प्रकर्षेण उल्लसन्ति यानि धामानि-गृहाणि अनेकपाश्चहस्तिनः ते राजितासु-शोभितासु । पुनः किम्भूताते ? आमो. दिता इव हर्षिता इव, अमोदिताः काभिः ? 'योधालीमिः' सुभटश्रेणिमिः, किम्भूतामिः ? विभया-भयरहिता असन्ना-अखिन्ना: *च* तामिः । *पुनः* राज्यर्द्धिषु किं. १ प्रकर्षण स्फुरद्-दीप्यमानं धाम-तेजो येषां तादृशा ये अनेके-सकलाः परा:-शत्रवः तैः अजि. वासु-अवशीकृतासु । स्फातयः किं० ? सती शोभना नाभिर्यासां तादृश्यो या रामा:-त्रियः ताभिः उदिताः-प्राप्तोदयाः ॥२॥ या गडेव जनस्य पङ्कमखिलं पूता हरत्यञ्जसा, भारत्याऽऽगमसङ्गता नयतताऽमायाचिता साऽधुना। भध्येतुं गुरुसन्निधौ मतिमता कतुं सतां जन्मभीभारत्यागमऽसङ्गता न यततामाऽऽयाचिता साधुना॥२॥ येति ॥ सा 'आगमसङ्गता' सिद्धान्तसम्बद्धा 'भारती' वाणी 'अधुना' इदानीं 'सतां' साधूनां 'जन्मभीभारत्यागं' संसारमयसमूहाहाणं 'कतुं' विधातुं 'यतताम्' उद्यच्छतु । किं० ? 'नासङ्गता' न सङ्गतिविरहिता । पुनः किं ? नयैः-नैगमादिभिः तता-वितीर्णा । पुनः किं. १ 'मतिमता' बुद्धिशालिना 'साधुना' यतिना 'गुरुसन्निधौ' अध्यापकसविधे 'अध्येतुं' पठितुं आ-समन्तात् याचिता-प्रार्थिता, इच्छाकारपूर्वव हि साधूनां सर्वत्र प्रवृत्तिरित्येवमुक्तिः । पुनः किं० ? मायया-कपटेन अचिता-अव्याप्ता, साधुना किं. ? मायां चिनोतीति मायाचित् न तारग् अमायाचित् Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः ॥ ] ऐन्द्रस्तुति चतुर्विंशतिका | तेनेति व्याख्येयम्, अमस्य - ज्ञानस्य आय:-लाभः तेन आ-समन्तात् चिता-व्याप्ता इति भारतीविशेषणमेव वा । सा का ? या 'गङ्गेव' सुरसरिदिव 'पूता' पवित्रिता 'जनस्य' लोकस्य 'असा' वेगेन 'अखिलं ' सकलं 'प' पापं 'हरति अपनयति, गङ्गाऽपि जनस्याखिलं पठ्ठे - कर्दमं हरतीति श्लेषः ॥ ३ ॥ व्योम स्फारविमानतूर निनदैः श्रीनेमिभक्तं जनं, प्रत्यक्षामरसालपादपरतां वाचालयन्ती हितम् । दद्यान्नित्यमिताssम्रलुम्बिलतिकाविवाजिहस्ताऽहितं प्रत्यक्षामरसालपादपरताऽम्बा चालयन्ती हितम् ॥४॥ ॥ इति श्रीनेमिजिनस्तुतिः ॥ २२ ॥ व्योमेति || ' अम्बा' अम्बिकादेवी 'नित्यं' निरन्तरम् 'ईहितं' बान्छितं हितं सुखं दद्यात् । किं० ? आम्रलुम्बिलतिकया विभ्राजी - शोभमानो हस्तो यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'श्रीनेमिभक्तं ' श्रीनेमिनाथे भक्तिमन्तं जनं 'प्रति' लक्षीकृत्य प्रत्यक्षः - साक्षाद्भूतो योऽमरसालः- कल्पतरुः तद्वत् वाञ्छितदत्वात् पादौ चरणौ यस्माः अत एव परा- उत्कृष्टा तस्या भावः तत्ता ताम् ' इता' प्राप्ता । किं कुर्वती ? 'स्फारविमानतूर निनदै: ' उदारविमानतूर्यनिर्घोषैः 'व्योम' गगनं 'वाचालयन्ती' मुखरयन्ती । पुनः किं कु० ? 'अहितं' वैरिणं 'वालयन्ती' भापयन्ती, किम्भूता ? अक्षामः - अकृशः फलसमृद्धो यो रसालपादपः- सहकारतरुः तत्र रता-सक्ता ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीनेमिजिनस्तुतिविवरणम् ॥ २२ ॥ 6 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीपार्थजिनसाधे सौर्धे रसे स्वे रुचिररुचिरया हारिलेखारिलेखा, पार्य पायं निरस्ताधनयधनयशो यस्य नाथस्य नाऽथ । पाव पार्थ तमोद्रौ तमऽहतमहमऽक्षोभजालं भजाऽलं, कामं कामं जयन्तं मधुरमधुरमाभाजनत्वं जन! त्वम्॥१॥ ___ सौध इति ॥हे जन ! त्वं तं पार्श्वम् 'अलम्' अत्यर्थ 'भज' सेवस्व । पार्श्व किं० ? 'तमोद्रौ' पातकवृक्षे 'पाचे' प समूहम् , यथा कुठारो वृक्षं छिनत्ति तथा यः पातकमिति भावः । पुनः किं० १ 'अहत:-अप्रतिहतो महः-उत्सवो यस्य स *तम् । पुनः कि० नास्ति क्षोभालं-भयसमूहो यस्य तम् । पुनः किं कुर्वन्तम् ? 'कामम्' अत्यर्थ 'काम' कन्दप 'जयन्त' वशीकुर्वन्तम् , कामं किं०? मधुरमाया:-वसन्तश्रियो भाजनत्वं-पात्रत्वं मधुरमाभाजनत्वम्मधुर-मनोहरं वद् यत्र स तथा तम् । तं कम् ? यस्य 'नाथस्य' बामिनः निरस्तं-निराकृतम् अघं-पापं यैस्ते निरस्ताघाः ताशा बै नयाः तेषां घनं-निबिडं यशः 'पायं पाय' पीत्वा पीत्या, 'अब अनन्तरं 'हारिलेखारिलेखा' मनोशाऽसुरणिः 'खे सोधे निजे छहै 'सौधे अमृतसम्बन्धिनि रसे रुचिरः-मनोहरो रुचिरयःअमिलापप्रसरो यस्याः सा तादृशी नाभवत्, यद्यशःपानानन्त. मुराः स्खभोज्येऽमृतेऽपि निरादरा जाता इति ततोऽध्यधिक माश इमर्थः ॥ १॥ तीर्थे तीर्थेशराजी भवतु भवतुदऽस्तारिभीमारिमीमालीकालीकालकूटाऽकलितकलितयोल्लासमूह समूहे । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ... ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । या मायामानही भवविभवविदां दत्तविश्वासविश्वानासानासामिशङ्का विमदविमदनत्रासमोहाऽसमोहा २ सीर्थे इति ॥ *सा* 'तीर्थेशराजी' तीर्थकरश्रेणिः 'तीर्थे' सङ्के भवं-संसारं तुदतीति भवतुत्' संसारोच्छेदकरी भवतु । किं. १ 'जस्ता० कूटा' भरिभ्यः-धरिभ्यो भी:-भयं अरिभीः सा च मारिःमरकश्च भीमालीकाली-भीषणानृतश्रेणिश्च अरिभीमालीकाल्यः, ता एव कालकूटानि अरि० कूटानि, अस्तानि-निराकृतानि तानि यया सा तथा । सा का ? या 'भवविभवविदां' संसारधनप्राप्तिभाजां 'समूहे' चक्रे 'अकलितकलितया' अप्राप्तक्लेशतया 'उल्लासम् मानन्दम् 'हे' वहते स्म, नहि दुःखप्रतिकारमात्रे सुखप्रलिभासधारिणां संसारिणामीदृशं सुखमस्ति यादृशमनुभवन्ति बीतमोहा लब्धात्मस्वभावाः। या किं० ? मायामानौदम्भस्मयौ हरतीति मायामानही । पुनः किं० ?'विशिष्टं मदनः* ............*1 पुनः किं ? असमा:-निरुपमाः उहा:-विचारा यलाः सा तथा ॥२॥ गौरागौरातिकीर्तेः परमपरमतहासविश्वासविश्वाऽऽदेया देयान्मुदं मे जनितजनितनूभावतारावतारा। भत्र बुठितपाठपूर्तिरवचूर्यनुसारेण क्रियते-"दत्तो विश्वासो यत्र एतारखं यद् विश्व-जगत् तेन अनाप्ता-अप्राप्ताऽनाप्ताभिशा-अशिष्टशहा यस्यां सा, (पुनः किं. ! ) विमदा-मदरहिता चासो बिमदनत्रासमोहाच-गतकामभयाशाना चेति विमद मोहा।" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीपार्श्वजिन लोकालोकार्थवेत्तुर्नयविनयविधव्यासमानासमाना - भङ्गा भङ्गानुयोगा सुगमसुगमयुक् प्राकृतालङ्कृताऽलम् ॥३॥ गौरिति ॥ ' लोकालोकार्थवेत्तुः' जगदर्थज्ञातुर्भगवत: 'प्राकृतालङ्कृता' प्राकृतनिबन्धबन्धुरा 'गौः' वाणी 'अलम्' अत्यर्थं 'मे' मम 'मुदं' हर्ष देयात् । लोकालोकार्थवेत्तुः किंभूतस्य ? आगौरा - समन्तादुज्ज्वला अति- अतिशयिता कीर्तिर्यस्य स तथा तस्य । गौः किं० ? *परमाणां प्रकृष्टानां परमः - प्रकृष्टो वा परमतानांशाक्यादिदर्शनानां ह्रासः - अनिश्चितप्रामाण्यकत्वं *तस्माद् यो विश्वासः - विश्रम्भः * तेन विश्वस्य जगत आदेया- हितप्रवृत्यर्थमादरणीया । पुनः किं० १ जनितः कृतो जने:- संसारस्य तनूभावः - अल्पत्वं यैस्तादृशास्तारा :- उदारा अवताराः - उपन्यासप्रकारा यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? नयाः नैगमादयो विनयविधाश्चवाक्यशुद्ध्या युक्ता भाषादीनां विनय शिक्षास्तेषां यो व्यासः - विस्तारो मानानि च - प्रत्यक्षादीनि तैरसमाना - निरुपमा । पुनः किं०? 'अभङ्गा' पराजयरहिता । पुनः किं० ? भङ्गानुयोगैः - भङ्गव्याख्यानैरसुगमाः - असुखावबोधा ये सुष्ठु - शोभना गमा:- सदृशपाठास्तान् युनक्तीति तद्युक् ॥ ३ ॥ लोके लोकेशनुत्या सुरससुरसभां रञ्जयन्ती जयन्ती, व्यूहं व्यूहं रिपूणां जनभजनभवगौरवा मारवामा । कान्ताऽकान्ताऽहिपस्येरितदुरितदुरन्ताहितानां हितानां, दद्यादद्यालिमुच्चैरुचितरुचितमा संस्तवे च स्तवे च ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीपार्श्वजिनस्तुतिः ॥ २३ ॥ ७६ - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः । ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । लोक इति ॥ ' अहिपस्य' धरणेन्द्रस्य 'कान्ता' प्रेयसी - पद्मावती 'अद्य' अधुना 'लोके' भव्यप्राणिनि हितानाम् 'आलिं' * श्रेणि दद्यात् । किम्भूता ? 'संस्तवे च' परिचये च 'स्तवे च' गुणोत्कीर्त्तने च उच्चैर्यथा स्यात् तथा उचिता - अनुरूपा रुचिः - हितदित्सारूपा यस्याः सा तथा उचितरुचिः, अतिशयिता उचितरुचि: उचि• तरुचितमा, यथा परिचितानामानन्दं दत्ते तथा स्तोतॄणामपीति भावः । पुनः किं० ? अकस्य - दुःखस्य अन्तो यस्याः सकाशात् सा तथा । पुनः किं० ? लोकेशानाम् - इन्द्रादीनां नुत्या - स्तवनीया । पुनः किं० ? जनभजनेन - लोकानामुपासनया भवत् - उत्पद्यमानं गौरवं - गुरुत्वं यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'मारवामा' मारं - मरणं वामयति- उद्बलयतीति मारवामा । किं कुर्वती ? ' रञ्जयन्ती' वशीकुर्वती, काम् ? 'सुरससुरसभाम्' उत्तमरसशालिनां सुराणां - देवानां सभां - पर्षदम् । पुनः किं कुर्वती ? 'जयन्ती' अभिभवन्ती 'व्यूह' समूहम्, केषाम् ? 'रिपूणां' शत्रूणाम्, व्यूहं किं० ? विशिष्टा ऊहा:-विचारा यस्य तम्। हितानां किम्भूतानाम् ? ईरितं - प्रेरितं दुरितमेव- पापमेव दुरन्तं - कृच्छ्रपर्यवसानम् अहितं यैस्तेषाम् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीपार्श्वजिनस्तुति विवरणम् ॥ २३ ॥ तव जिनवर ! तस्य बद्धा रतिं योगमार्ग भजेयं महावीर ! पाथोधिगम्भीर ! धीरानिशं, मुदित ! विभव ! सन्निधानेऽसमोहस्य सिद्धार्थनाम ! क्षमाभृत् ! कुमारापहे यस्य वाचा रतः । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीमहाकीर“ मुनिजननिकरश्चरित्रे पवित्रे परिक्षीण... कर्मा स्फुरज्ञानभाक् सिद्धशर्माणि लेभेतरा· मुदितविभवसन्निधानेऽसमोहस्य सिद्धार्थ नामक्षमाभृत्कुमाराऽपहेयस्य वाऽऽचारतः॥१॥ तवेति ॥ हे 'अनिशं' निरन्तरं मुदित!-आनन्दित !, हे 'पाथोधिगम्भीर !' समुद्रवदलब्धमध्य ! हे 'धीर !' पण्डित !, हे 'विभव ! विगतो भवः-संसारो यस्यासौ विभवः तस्य आमत्रणम् , हे सिद्धार्थ !' सिद्धः-परिनिष्ठितोऽर्थः-धर्मादिर्यस्य कृतकत्यत्वात् तस्याऽऽमन्त्रणम् , 'नाम' इति कोमलामणे, अथवा हे 'सिद्धार्थनाम !' गुणनिष्पन्नार्थाभिधान ! इत्येकं पदम् , हे 'क्षमाभृत् !' *क्षमां-* तितिक्षां बिभर्तीति क्षमाभृत् तस्यामन्त्रणम् , हे 'सिद्धार्थनामक्षमाभृत्कुमार !' सिद्धार्थाभिधानक्षोणिपालक्षीरकण्ठ !, हे 'जिनवर !' तीर्थकृत्प्रवर !, हे महावीर ! तस्य तव 'सन्निधाने' समीपे ‘रति' चित्तोत्साहं 'बद्धा' एकाग्रीकृत्य अहं 'योगमार्ग' रत्नत्रयपवित्राक्षयं भजेयं' श्रयेयम् । तव किम्भूतस्य ? असमा:निरुपमा ऊहा:-विचारा यस्य *स* तथा तस्य । पुनः किं ? सह मोहेन वर्तते यः स समोहः न समोहोऽसमोहः तस्य । पुनः किं०? अप-गतं हेयं-हातव्यं यस्य निराश्रवत्वात् भवोपग्राहिणामपि च कर्मणामल्पस्थितिकत्वेन दग्धरज्जुस्वात्मीयत्वात् , तस्य । सन्निधाने किम्भूते ? कुत्सितो यो मार:-कन्दर्पः को:-पृथिव्या वा मार:मृत्युः तम् अपहन्ति-अपनयति यत् तत्र । पुनः किं. उदितम्उत्पन्नं विभवेन-धनेन सत्-शोभनं निधानं महापद्मादि यस्मात् . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः।] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका । तस्मिन् । तस्य कस्य ? यस्य 'वाचा' वाण्या 'पवित्रे' मिथ्यात्वमलराहित्येन पावने 'चरित्रे' विहितानुष्ठाने 'रतः' आसक्तः 'मुनिजननिकरः' साधुजनसमूहः, 'वा'इति पादपूरणे, 'आचारतः' ज्ञानाचारादिकमाराध्य परि-सामस्त्येन क्षीणं-क्षयं गतं कर्म-मोहनीयादि यस्य तादृशः सन् स्फुरत्-देदीप्यमानं ज्ञानं-केवलावबोधाख्यं भजतीति तद्भाक्, तादृशः 'सिद्धशर्माणि' मोक्षसुखानि 'लेभेतरां' प्रापतमाम् ॥ १॥ नयकमलविकासने का सुरी विस्मयस्मेर वेत्राऽजनि प्रौढभामण्डलस्य क्षतध्वान्त ! हे !, न तव रविभया समानस्य रुच्याऽङ्गहारा हितेऽपारिजातस्य भास्वन् ! महे लास्यभारोचिते। कनकरजतरत्नसालत्रये देशनां तन्वतो ध्वस्तसंसार ! तीर्थेशवार ! धुसद्धोरणीनत ! वर ! विभयासमानस्य रुच्याङ्गहारा हिते पारिजातस्य भास्वन्महेलास्यभारोचिते ॥२॥ नयेति ॥ हे क्षतध्वान्त !' क्षतम्-अपनीतं ध्वान्तं-बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं तमो येन तस्याऽऽमत्रणम् ; हे 'भावन् !' सूर्य !, क विधेये ? इत्याह-नयाः-नीतय एव कमलानि-पद्माश्रयत्ते(यास्ते) षां विकासने-उज्जम्भणे; हे ध्वस्तसंसार !' ध्वस्तः-हेतूच्छेदादपनीतः संसार:-जन्मपरम्परारूपो येन तस्याऽऽमत्रणम् , हे शुस. द्धोरणीनत !' देवश्रेणीनमस्कृत !, हे 'वर !' प्रधान !, हे 'तीर्थेशवार! तीर्थकरसमूह !, कनकरजतरत्नानां-हेमरूप्यमणीनां साल Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० यशोविजयोपाध्यायविरचिता [श्रीमहावीर त्रये-वप्रत्रये 'देशनां धर्मोपदेशं 'तन्वतः' प्रपञ्चयतस्तव ‘महे उत्सवे 'का सुरी' का देवी विस्मयेन-आश्चर्येण स्मेरे-उत्फुल्ले नेत्रेलोचने यस्यास्तादृशी नाजनि ? अपि तु सर्वाऽपि तादृशी अजनि । तव किम्भूतस्य ? प्रौढं-प्रकृष्टं भामण्डलं यस्य स तथा तस्य । पुनः किं. 'रुच्या' कान्त्या प्रकृष्टभास्वररूपवत्त्वात् 'रविभया' तरणिकान्या 'समानस्य' सदृशस्य । पुनः किं० अप-गतम् अरिजातंरिपुचक्रं यस्मात् स तथा तस्य । पुनः किं० वि-गतं भयं अस्मादसौ विभयः, सह मानेन-अहङ्कारेण वर्तत इति समानः, न समानः असमानः, विभयश्वासावसमानश्च विभयासमानस्तस्य । पुनः किं० 'हिते' मनोवाञ्छितसुखे 'पारिजातस्य' सुरतरुसदृशस्य । महे किम्भूते ? अङ्गहारेण–अङ्गविक्षेपेण आहिते-न्यस्ते । पुनः किं० लास्यभारेण-नृत्यभरेण उचिते-राजमाने । पुनः किं० भास्वत्दीप्यमानं यत् महेलानां-रमणीनाम् आस्य-वदनं तस्य या भाकान्तिस्तया रोचिते-दिदृक्षूणां रुचिवम॑प्रापिते । सुरी किं. ? रुच्यो-रमणीयो अङ्गे-वक्षसि हारो यस्याः सा तथा ॥ २ ॥ वचनमुचितमहंतः संश्रय श्रेयसे प्रीणयद् भव्य ! भीमे दधद् ध्वस्ततापं भवाम्भोनिधी, परमतरणहेतुलाभं गुरावाऽऽर्यमानन्दिता ऽपायशो भावतो भासमानस्य माराजितम् । दलितजगदसद्भहं हेतुदृष्टान्तनिष्पिष्ट सन्देहसन्दोहमद्रोह ! निर्मोह ! निःशेषिता Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विशतिका। परमतरण ! हेऽतुलाभङ्गुरावार्यमानं दिता पाय ! शोभावतो भासमानस्य माराजितम् ॥३॥ वचनमिति ॥ हे 'आनन्दित !' लब्धानन्द !, हे 'अद्रोह !' द्रोहरहित !, हे 'निर्मोह !' अज्ञानरहित !, हे 'निःशेषितापरमतरण !' निश्शेषितं-समापितम् अपरेषां-शाक्यादीनां दुर्नयात्मकत्वादपरम्-अनुत्कृष्टं वा मतमेव-दर्शनमेव रणं-संग्रामो येन स तथा तस्य सम्बोधनम् , हे 'दितापाय !' दितः-खण्डितोऽपाय:अन्तरायो येन तस्यामन्त्रणम् , हे भव्य ! त्वम् 'आर्य' ज्ञानदर्शनादि आर्यलोकं *वा* 'प्रीणयद्' आनन्दयद् 'अर्हतः' तीर्थकरस्य 'उचितम्' अबाधिततया राजमानं 'वचनं' सकलगणिपीटकस्वरूपं 'श्रेयसे' कल्याणार्थं 'भावतः' श्रद्धातः 'संश्रय' भजस्व । किं कुर्वत् ? 'भीमे' भीवणे 'गुरौ' महति 'भवाम्भोनिधौ' संसारसमुद्रे 'परमतरणहेतुलाभम्' अतिशयितपारगमननिबन्धनज्ञानदर्शनाद्यपायं 'दधत्' कुर्वत्। पुनः किम्भूतम् ? ध्वस्तः-अपनीतस्तापो येन तत्तथा । पुनः किं ? 'अपायशः' अप-गतम् अयशो यस्मात् तत् तथा । पुनः किं ? मारेण-कन्दर्पण अजितम्-अवशीकृतम् । पुनः किं० ? दलित:-अपनीतो जगतोऽसद्हः-अलीकाभिनिवेशो येन तत् तथा; निवर्तते हि मिथ्यात्वनिमित्तोऽसद्रहः श्रुतोपलम्भे प्राणिनाम् , तद्वीजमिथ्यात्वविलयात् । पुनः किं० ? हेतु:निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणः दृष्टान्तश्च-निश्चितसाध्यधर्मिणि हेतुप्रदर्शनम् ताभ्यां निष्पिष्टः-अपनीतः सन्देहसन्दोहः-संशयसमूहो येन तत्तथा। पुनः किं० १ अतुलानि-निरुपमानि अभङ्गुराणि-विप ऐ. च. ६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ श्रीमहावीर क्षप्रमाणोपनिपातादविशरारूणि अवार्याणि - प्रतिकूलतर्काबाध्यानि मानानि - प्रमाणानि यस्मिन् तत् तथा । पुनः किं० ? मया - लक्ष्म्या ज्ञानेन वा राजितं - शोभितम् । अर्हतः किम्भूतस्य ? " भासमानस्य शोभमानस्य । पुनः किं० ? 'शोभावतः ' लक्ष्मीवत: । पुनः किं० ? भया - कान्त्याऽसमानस्य - निरुपमानस्य ॥ ३ ॥ ८२ अहमहमिकया समाराहुमुत्कण्ठितायाः क्षणे वाङ्मयस्वामिनी शक्तिमह्नाय दद्यात्तरां, सकलकलशता रमाराजिता पापहाने कलाभा स्थिताऽसद्विपक्षेऽमरालेरै वार्या गमम् । दधतमिह सतां दिशन्ती सदैङ्कारविस्फारसारस्वतध्यानदृष्टा स्वयं मङ्गलं तन्वती, सकलकलशतारमाराजितापापहाऽने कलाभास्थिता सद्विपक्षे मराले वार्यागमम् ॥ ४॥ ॥ इति श्रीमहावीरजिनस्तुतिः ॥ २४ ॥ अहमहमिकयेति ॥ 'वाङ्मयस्वामिनी' प्रवचनाधिष्ठायिका भगवती 'इह' जगति 'सताम्' उत्तमानाम् 'अह्राय' झटिति 'पापहाने' दुरितत्यागे 'शक्ति' सामर्थ्यं 'दद्यात्तराम्' अतिशयेन दद्यात् । किम्भूता ? ' अहमहमिकया' अहं पूर्वमाराधयामीत्युत्कलिकया 'समाराद्धुं' संसेवितुम् ‘उत्कण्ठितायाः' कृतोत्कण्ठायाः 'अमराले ः ' १ अवचूर्याम् - "रहस्यागमम्” इति पाठानुसारेण व्याख्या - "अहस्याहसितुमयोग्या ।" अन्यत्र " रहस्यागमं - रहस्यभूत आगमो रहस्यागमः - ( द्वादशाङ्गगणिपीटकम् ) तम् " ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिः। ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । सुपर्वश्रेण्याः 'क्षणे उत्सवे 'सकलकलशता' कलकल:-कोलाहलस्तस्य शतं कलकलशतं सह तेन वर्तते या सा तथा, तामारार्द्ध बहवो देवा मिलिता उच्चैर्भगवत्या नाम जपन्तो जगत् कोलाहलाद्वैतकलितं कुर्वन्तीत्यर्थः । पुनः किं० ? रमया-लक्ष्म्या राजिताशोमिता । पुनः किं० ? कला-मनोहरा आभा-शोभा यस्याः सा तथा । पुनः किं० ? 'मराले' राजहंसे 'स्थिता' आसीना, मराले किम्भूते ? न सन्ति विपक्षाः-शत्रवो यस्य स तथा तस्मिन् । पुनः किं० सन्तौ-उत्तमौ वि-विशिष्टौ पक्षी-पतत्रेयस्य स तथा तस्मिन् । किं कुर्वती ? रवाः नाम-भाषार्या अर्द्धमागधभाषया भाषणशीलास्तीर्थङ्करादयः तत्सम्बन्धिनम् आगम-द्वादशाङ्गगणिपीटकं 'दिशन्ती' प्रयच्छन्ती,रवार्यागमं किं कुर्वन्तम् ? 'गमं सदृशपाठं 'दधतं' बिभ्रतम् , द्वादशाङ्गगणिपीटकस्य गमकलितत्वादिति भावः। पुनः किं कुर्वती ? 'सदा' नित्यं 'स्वयम्' आत्मना 'मङ्गलं' कल्याण 'तन्वती' विदधती, मङ्गलं कीदृशम् ? सकलकलशवत्-सम्पूर्णकुम्भवत् तारं-मनोहरं लक्ष्मीप्रदं वा, यथा पूर्णकलशदर्शनमेव मङ्गल्यं तथा भगवत्या दर्शनमपीति भावः। किम्भूता ? एंकारेण-वाग्बीजाक्षरेण विस्फारम्-अत्युदारं यत् सारस्वतध्यान-सारस्वतमन्त्रप्रणि धानं तेन दृष्टा-भावनाविशेषेण साक्षात्कृता। पुनः किं ? 'अवार्या' केनाऽपि प्रतिपन्थिना वारयितुमशक्या । पुनः किं० ? अरीणां समूह आरस्तस्य य आजि:-संग्रामः तस्य यो तापस्तमपहन्तिअपनयति या सा तथा। पुनः किं० ? अनेके लाभा:-श्रुतातिशयविशेषरूपा येषां गणधरादीनां तैः 'आस्थिता' अङ्गीकृता, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [ मूल- विवरण "कुम्मसुसंठिअचलणा, अमलियकोरंटविंटर्सकासा । सुअदेवया भगवई, मम मइतिमिरं पणासेउ || " इत्यादिना गणधरैरपि भगवत्याः प्रणिधानात् श्रुतप्रामाण्यस्याप्याप्यत्वात् ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीवर्द्धमानस्तुति विवरणं समाप्तम् ॥ २४ ॥ ॥ अथ मूलप्रशस्तिः ॥ ८४ -- यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया, भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः, सोऽयं न्यायविशारदः स्म तनुते विज्ञः स्तुतीरर्हताम् ॥१॥ कृत्वा स्तुतिस्रजमिमां, यदवापि शुभाशयान्मया कुशलम् । तेन मम जन्मबीजे, रागद्वेषौ विलीयेताम् ॥ २ ॥ ॥ मूलग्रंथाग्रं - २१० ॥ ॥ अथ विवरणप्रशस्तिः ॥ कृत्वा विवरणमेतज्जिनस्तुतीनां यदर्जितं पुण्यम् । तेन मम जन्मबीजे, रागद्वेषौ विलीयेताम् ॥ १ ॥ मन्थाः श्रीमदकब्बर क्षितिपतिस्तत्त्वोपदेशाम्बुधिः, कुर्वाणा मथनं च तस्य विबुधा यस्याऽभवन् कोटिशः । अभ्युत्थापयितुं सुदर्शनभृतः प्रोद्दामकीर्त्तिः स्वयं, संभोग्यां पुरुषोत्तमस्य नरकप्रध्वंसिपुण्यात्मनः ॥ २ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः] ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका । ८५ रङ्गन्मङ्गलवृत्तगीतविजितानङ्गप्रसङ्गप्रथा श्रेयःसङ्गभृदङ्गजङ्गमजगत्कल्पद्रुमस्तुङ्गधीः । दुर्व्यासङ्गमतङ्गजबजहरिनिर्भङ्गसौभाग्यभूः, __ स श्रीमत्तपगच्छमण्डनमभूत् श्रीहीरसूरीश्वरः॥३॥ तत्पट्टप्रथितप्रभुत्वनलिनप्रोल्लासने भास्करः, सूरिश्रीविजयादिसेनसुगुरुर्बभ्राज राजस्तुतः । गोहोराजसभात्मके विलसितां प्रत्यर्थिकीर्तिस्फुर दूर्वाग्रासपरां स्म नित्यमिह यो गां दोन्धि दुग्धं यशः ॥४॥ तत्पट्टप्रभुतालताजलधरः शिष्टप्रियो द्योतते, सूरिश्रीविजयादिदेवसुगुरुर्माहात्म्यलीलागृहम् । यस्याऽऽचाम्लपयःप्लुतेऽपि हृदये चित्रं तदुद्वीक्ष्यते, नाभूद् यज....तानपङ्कसहिता यच्च क्षमा वर्तते ॥ ५ ॥ तत्पट्टप्रभुतैककार्मणगुणग्रामाभिरामाकृतिः, - सूरिश्रीविजयादिसिंहसुगुरुर्जागर्ति धामाधिकः । गङ्गातो यमुना विधोश्च न मिदां राहुर्गतः सर्वतः, शुभ्रे यस्य यशोभरे प्रसृमरे श्यामा त्रियामाऽपि न ॥६॥ इतश्चगच्छे स्वच्छतरे तेषां, परिपाट्योपतस्थुषाम् । कवीनामनुभावेन, नवीनां रचनां व्यधाम् ॥ ७ ॥ तथाहिलावण्यैकमयी तनुर्ननु मुखे जिह्वा च विद्यामयी, कीर्चिः स्फूर्तिमयी मति तिमयी येषां कथा चिन्मयी। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता [विवरणप्रशस्तिः। भूतिर्भाग्यमयी स्थिति यमयी शोभामयी सङ्गतिः, श्रीकल्याणविराजमानविजयास्ते वाचकेन्द्रा बभुः॥८॥ हैमव्याकरणं दधीव नियतं व्यालोड्य बुद्ध्या तथा, यैः स्फीतं नवनीतमुद्धृतमहो ! शीतांशुशुभ्रं यशः। ते सारस्वतसारसंग्रहरहःक्रीडानिबद्धादराः, श्रीलाभाद् विजयाभिधानविबुधा भेजुः प्रभुत्वं परम् ॥९॥ तत्राभ्यासनवाङ्कुरः पदविधिव्युत्पत्तिसत्पल्लवः, ___ काव्यालङ्कतिपुष्पितः परिणतीरान्वीक्षिकीहेतुभिः । येषां दागू मयि नन्दनेऽत्र फलिहः कारुण्यकल्पद्रुम स्ते विज्ञाः स्म जयन्ति जीतविजयाः कल्याणकन्दाम्बुदाः१० मामध्यापयितुं सदाऽऽसनसमध्यासीनकाशीमहा सन्नाशीरितयोगदुर्जयपरत्तासी यदीयः श्रमः । आसीचित्रकदिन्दुशुभ्रयशसो दासीकृतक्ष्माभुजो नोल्लासी भुवि तान् नयादिविजयप्राज्ञानुपासीन कः ? ११ एतद्दत्तनिदेशपेशललसत्प्राचीनपुण्योदया दाचीर्णोचितसत्प्रबन्धरचनालग्नेच्छमुद्यच्छता । व्युत्पत्त्यै विदुषां स्फुटं विवरणं चक्रे स्तुतीनामद स्तत्पादाम्बुजसेवकेन यतिना साहित्यसिन्धोः सुधा ।। १२ ।। सूर्याचन्द्रमसौ यावदुदयेते नभस्तले । तावन्नन्दत्वयं ग्रन्थो, वाच्यमानो विचक्षणैः ॥ १३ ॥ ॥ समाप्तेयं खोपज्ञविवरणयुता ऐन्द्रस्तुतिचतुर्विंशतिका ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ महोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयविरचिता परमज्योतिष्पञ्चविंशतिका । " ऐन्द्रं तत् परमं ज्योति - रुपाधिरहितं स्तुमः । उदिते स्युर्यदंशेऽपि, सन्निधौ निधयो नव ॥ १ ॥ प्रभा चन्द्रार्कभादीनां मितक्षेत्रप्रकाशिका | आत्मनस्तु परं ज्योति - लोकालोकप्रकाशकम् ॥ २ ॥ निरालम्बं निराकारं, निर्विकल्पं निरामयम् । आत्मनः परमं ज्योति - र्निरुपाधि निरञ्जनम् ॥ ३ ॥ दीपादिपुद्गलापेक्षं, समलं ज्योतिरक्षजम् । निर्मलं केवलं ज्योति-निरपेक्षमतीन्द्रियम् ॥ ४ ॥ कर्मनो कर्मभावेषु, जागरूकेष्वपि प्रभुः । तमसाऽनावृतः साक्षी, स्फुरति ज्योतिषा स्वयम् ॥ ५ ॥ परमज्योतिषः स्पर्शा - दपरं ज्योतिरेधते । यथा सूर्यकरस्पर्शात्, सूर्यकान्तस्थितोऽनलः ॥ ६ ॥ पश्यन्नपरमं ज्योति - विवेकाद्रेः पतत्यधः । परमं ज्योतिरन्विच्छ - न्नाविवेके निमज्जति ॥ ७ ॥ तस्मै विश्वप्रकाशाय, परमज्योतिषे नमः । केवलं नैव तमसः, प्रकाशादपि यत् परम् ॥ ८ ॥ १‘आत्मज्योतिःस्वरूपपश्चविंशतिका' इत्यभिधानान्तरमस्याः॥२“न वै” प्र०॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायविरचिता ज्ञानदर्शनसम्यक्त्व-चारित्रसुखवीर्यभूः । परमात्मप्रकाशो मे, सर्वोत्तमकलामयः ॥ ९ ॥ यां विना निष्फलाः सर्वाः, कला गुणबलाधिकाः । आत्मधामकलामेकां, तां वयं समुपास्महे ॥ १० ॥ निधिभिनवभी रत्नै-श्चतुर्दशभिरप्यहो। न तेजश्चक्रिणां यत् स्यात् , तदात्माधीनमेव नः ॥११॥ दम्भपर्वतदम्भोलि-ज्ञानध्यानधनाः सदा । मुनयो वासवेभ्योऽपि, विशिष्टं धाम बिभ्रति ॥ १२ ॥ श्रामण्ये वर्षपर्यायात् , प्राप्ते परमशुक्लताम् । सर्वार्थसिद्धदेवेभ्यो-प्यधिकं ज्योतिरुल्लसेत् ॥ १३ ॥ विस्तारिपरमज्योति-योतिताभ्यन्तराशयाः। जीवन्मुक्ता महात्मानो, जायन्ते विगतस्पृहाः ॥ १४ ॥ जागत्यात्मनि ते नित्यं, बहिर्भावेषु शेरते । उदासते परद्रव्ये, लीयन्ते स्वगुणामृते ॥ १५ ॥ यथैवाऽभ्युदितः सूर्यः, पिदधाति महान्तरम् । चारित्रपरमज्योति–ोतितात्मा तथा मुनिः ॥१६॥ प्रच्छन्नं परमं ज्योति-रात्मनोऽज्ञानभस्मना । क्षणादाविर्भवत्युप्र-ध्यानवातप्रचारतः ॥ १७ ॥ परकीयप्रवृत्तौ ये, मूकान्धबधिरोपमाः। स्वगुणार्जनसज्जाश्च, तैः परं ज्योतिराप्यते ॥ १८ ॥ १ "हि" प्र. । २ "सिद्धि" प्र०।३ "नास्तैः परमज्योति-"प्र.॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमज्योतिष्पश्चविंशतिका। परेषां गुणदोषेषु, दृष्टिस्ते विषदायिनी। स्वगुणानुभवालोकाद् , दृष्टिः पीयूषवर्षिणी ॥ १९ ॥ स्वरूपादर्शनं श्लाघ्यं, पररूपेक्षणं वृथा । एतावदेव विज्ञानं, परं ज्योतिष्प्रकाशकम् ।। २० ॥ स्तोकमप्याऽऽत्मनो ज्योतिः, पश्यतो दीपवद्धितम् । अन्धस्य दीपशतवत् , परं ज्योतिर्न बह्वपि ॥ २१ ॥ समतामृतमन्नानां, समाधिधूतपाप्मनाम् । रत्नत्रयमयं शुद्धं, परं ज्योतिष्प्रकाशते ॥ २२ ॥ तीर्थङ्करा गणधरा, लब्धिसिद्धाश्च साधवः । संजातास्त्रिजगद्वन्द्याः, परं ज्योतिष्प्रकाशतः॥ २३ ॥ न रागं नापि च द्वेष, विषयेषु यदा व्रजेत् । औदासीन्यनिममात्मा, तदाऽऽप्नोति परं महः ॥ २४ ॥ विज्ञाय परमं ज्योति-माहात्म्यमिदमुत्तमम् । यः स्थैर्य याति लभते, स यशोविजयश्रियम् ॥ २५ ॥ ॥ समातेयं परमज्योतिष्पञ्चविंशतिका ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ न्यायाचार्यमहोपाध्यायश्रीयशोविजयविरचिता परमात्मपञ्चविंशतिका । परमात्मा परंज्योतिः, परमेष्ठी निरञ्जनः । अजः सनातनः शम्भुः, स्वयम्भूर्जयताजिनः ॥ १॥ नित्यं विज्ञानमानन्द, ब्रह्म यत्र प्रतिष्ठितम् । शुद्धबुद्धस्वभावाय, नमस्तस्मै परात्मने ॥ २॥ अविद्याजनितैः सर्वैर्विकारैरनुपद्रुतः । व्यक्त्या शिवपदस्थोऽसौ, शक्त्या जयति सर्वगः ॥ ३ ॥ यतो वाचो निवर्तन्ते, न यत्र मनसो गतिः । शुद्धानुभवसंवेद्यं, तद्रूपं परमात्मनः ॥ ४ ॥ न स्पर्शो यस्य नो वर्णो, न गन्धो न रसधृती ? । शुद्धचिन्मात्रगुणवान् , परमात्मा स गीयते ।। ५ ॥ माधुर्यातिशयो यद्वा, गुणोघः परमात्मनः । तथाऽऽख्यातुं न शक्योऽपि, प्रत्याख्यातुं न शक्यते ॥६॥ बुद्धो जिनो हृषीकेशः शम्भुब्रह्माऽऽदिपूरुषः। इत्यादिनामभेदेऽपि, नार्थतः स विभिद्यते ॥ ७ ॥ धावन्तोऽपि नया नैके, तत्स्वरूपं स्पृशन्ति न । समुद्रा इव कल्लोलैः, कृतप्रतिनिवृत्तयः ॥ ८॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपञ्चविंशतिका । शब्दोपरक्ततद्रूप - बोधकृन्नयपद्धतिः । निर्विकल्पं तु तद्रूपं, गम्यं नानुभवं विना ॥ ९॥ केषां न कल्पनादव, शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी | स्तोकास्तत्त्वरसास्वाद - विदोऽनुभवजिह्वया ॥ १० ॥ जितेन्द्रिया जितक्रोधा, दान्तात्मानः शुभाशयाः । परमात्मगतिं यान्ति, विभिन्नैरपि वर्त्मभिः ॥ ११ ॥ नूनं मुमुक्षवः सर्वे, परमेश्वरसेवकाः । दूरासन्नादिभेदस्तु, तद्भृत्यत्वं निहन्ति न ॥ १२ ॥ नाममात्रेण ये हप्ता, ज्ञानमार्गविवर्जिताः । न पश्यन्ति परात्मानं, ते घूका इव भास्करम् ॥ १३ ॥ श्रमः शास्त्राश्रयः सर्वो, यज्ज्ञानेन फलेग्रहिः । ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयं, परमात्मा निरञ्जनः ॥ १४ ॥ नान्तरायो न मिथ्यात्वं, हासो रत्यरती च न । न भीर्यस्य जुगुप्सा नो, परमात्मा स मे गतिः ॥ १५ ॥ न शोको यस्य नो कामो, नाज्ञानाविरती तथा । नावकाशश्च निद्रायाः, परमात्मा स मे गतिः ॥ १६ ॥ रागद्वेषौ हतौ येन, जगत्रयभयङ्करौ । सत्राणं परमात्मा मे स्वप्ने वा जागरेऽपि वा ॥ १७ ॥ उपाधिजनिता भावा, ये ये जन्मजरादिकाः । तेषां तेषां निषेधेन, सिद्धं रूपं परात्मनः ॥ १८ ॥ १ 'यो' इत्यपि ॥ ९१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मपञ्चविंशतिका । अतळ्यावृत्तितो भीतं, सिद्धान्ताः कथयन्ति तम् । वस्तुतस्तु न निर्वाच्यं, तस्य रूपं कथञ्चन ॥ १९ ॥ जानन्नपि यथा म्लेच्छो, न शक्नोति पुरि(री)गुणान् । प्रवक्तुमुपमाभावात् , तथा सिद्धसुखं जिनः ॥ २० ॥ सुरासुराणां सर्वेषां, यत् सुखं पिण्डितं भवेत् । एकत्रापि हि सिद्धस्य, तदनन्ततमांशगम् ॥ २१ ॥ अदेहा दर्शनज्ञानो-पयोगमयमूर्तयः । आकालं परमात्मानः, सिद्धाः सन्ति निरामयाः ॥२२॥ लोकाप्रशिखरारूढाः, स्वभावसमवस्थिताः । भवप्रपञ्चनिर्मुक्ताः, युक्तानन्तावगाहनाः ॥ २३ ॥ इलिका भ्रमरीध्यानात् , भ्रमरीत्वं यथानुते । तथा ध्यायन् परात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ॥ २४ ॥ परमात्मगुणानेवं, ये ध्यायन्ति समाहिताः। लभन्ते निभृतानन्दा-स्ते यशोविजयश्रियम् ॥ २५ ॥ ॥ समाप्तेयं परमात्मपञ्चविंशतिका ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायविरचितं विजयप्रभसूरेः खाध्यायम् । श्रीविजयदेवसूरीशपट्टाम्बरे, __ जयति विजयप्रभसूरिरर्कः । येन वैशिष्ट्यसिद्धिप्रसङ्गादिना, निजगृहे योगसमवायतर्कः ॥ श्रीवि० १॥ ज्ञानमेकं भवद् विश्वकृत् केवलं, दृष्टबाधा तु कर्तरि समाना। इति जगत्कर्तृलोकोत्तरे सङ्गते, सङ्गता यस्य धीः सावधाना ॥ श्रीवि० २ ॥ ये किलापोहशक्तिं सुगतसूनवो, जातिशक्तिं च मीमांसका ये । संगिरन्ते गिरं ते यदीयां नय द्वैतपूतां प्रसह्य श्रयन्ते ॥ श्रीवि० ३॥ कारणं प्रकृतिरङ्गीकृता कापिलैः क्वापि नैवाऽऽत्मनः काऽपि शक्तिः । १ निपूर्वकस्य गृहातेधातोः परोक्षारूपम् । २ "भवतु वि-" प्रत्यन्तरे। ३ "कर्तृवादोत्तरे" प्रत्यन्तरे ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ विजयप्रभसूरिस्वाध्यायम् । बन्धमोक्षव्यवस्था तदा दुर्घटे त्यत्र जागर्ति यत्प्रौढशक्तिः ॥ श्रीवि० ४ ॥ शाब्दिकाः स्कोटसंसाधने तत्परा _ब्रह्मसिद्धौ च वेदान्तनिष्ठाः । सम्मतिप्रोक्तसंग्रहरहस्यान्तरे यस्य वाचा जितास्ते निविष्टाः ॥ श्रीवि० ५॥ ध्रौव्यमुत्पत्तिविध्वंसकिर्मीरितं द्रव्यपर्यायपरिणतिविशुद्धम् । विस्रसायोगसङ्घातभेदाहितं खसमयस्थापितं येन बुद्धम् ॥श्रीवि०६ ॥ इति नुतः श्रीविजयप्रभो भक्तित___ स्तर्कयुक्त्या मया गच्छनेता । श्रीयशोविजयसम्पत्करः कृतधिया मस्तु विघ्नापहः शत्रुजेता ॥ श्रीवि० ७ ॥ ॥ समाप्तमिदं विजयप्रभसूरेः स्वाध्यायम् ॥ १ "-ढयुक्तिः” प्रत्यन्तरे। २ "-त्रुनेता" प्रत्यन्तरे ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ यशोविजयोपाध्यायविरचितं शत्रुञ्जयमण्डनश्रीऋषभदेवस्तवनम् । आदिजिनं वन्दे गुणसदनं, सदनन्तामलबोधम् । बोधकतागुणविस्तृतकीति, कीर्तितपथमविरोधम् ॥ आदि०॥१॥ रोधरहितविस्फुरदुपयोगं, योगं दधतमभङ्गम् । भङ्गनयव्रजपेशलवाचं, वाचंयमसुखसङ्गम् ॥ आदि० ॥२॥ सङ्गतपदशुचिवचनतरङ्गं, रङ्गं जगति ददानम् । दानसुरद्रुममञ्जुलहृदयं, हृदयङ्गमगुणभानम् ॥ आदि० ॥३॥ भानन्दितसुरवरपुन्नागं, नागरमानसहंसम् । हंसगति पञ्चमगतिवासं, वासवविहिताशंसम् ॥ आदि०॥४॥ शंसन्तं नयवचनमनवमं, नवमङ्गलदातारम् । तारस्वरमघधनपवमानं, मानसुभटजेतारम् ॥आदि० ॥ ५ ॥ इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदा च्छ्रीमद्यशोविजयवाचकपुङ्गवेन । श्रीपुण्डरीकगिरिराजविराजमानो, मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि ॥६॥ ॥ समाप्तमिदं श्रीऋषभदेवस्तवनम् ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________