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में आकर अपना आपा खो देता है, अपनी मर्यादा, अपने विवेक, अपने ज्ञान का अतिक्रमण कर बैठता है।
योगी बोधपूर्वक जीता है, और बोधपूर्वक जीने वाला ही क्रोध से, भोग से, लोभ और मोह से धीरे-धीरे मुक्त होता जाता है। हर व्यक्ति की अपनी-अपनी प्रकृति है, लेकिन अगर हम योग का बोध बनाए रखेंगे तो अपनी प्रकृति से ऊपर उठेंगे और परमात्मा की तरफ आगे बढ़ेंगे। गीता कहती है व्यक्ति के अंदर दो ही तत्त्व हैं - एक प्रकृति, दूसरा पुरुष अथवा परमात्मा। प्रकृति अर्थात् माया। केवल बातें करके माया से उपरत नहीं हुआ जा सकता। राम भी नहीं हो पाए, वे भी मानव रूप में नकली हिरण के छलावे में आ गए थे। वे भी माया के मोह में उलझ गए। केवल शास्त्रों को पढ़ लेने से ही माया से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। केवल कहने से प्रकृति के तमोगुण, रजोगुण चले नहीं जाते, बल्कि ज्यों-ज्यों व्यक्ति का योग और बोध बढ़ता है, होश और ज्ञान बढ़ता है त्यों-ज्यों वह प्रकृति से ऊपर उठता है और परमात्मा की ओर उसके कदम बढ़ते हैं।
योग का पहला संबंध स्वास्थ्य से है। शरीर स्वस्थ होगा तभी तो आप अध्यात्म की साधना के लिए तत्पर हो सकते हैं। जिसका शरीर रोगों से घिरा होगा वह अध्यात्म की साधना कैसे करेगा? उसके द्वारा कही जाने वाली बातें केवल अध्यात्म-विलास होंगी, उन बातों से कल्याण नहीं हो पाएगा। इसलिए पहले शरीर को स्वस्थ बनाएँ। जो योग को सीधे मन और आत्मा से जोड़ना चाहते हैं उनसे भी अनुरोध है कि योग को सबसे पहले अपने स्थूल शरीर के साथ जोड़ें और स्थूल शरीर को स्वस्थ, अप्रमत्त, जागरूक, ऊर्जावान, उत्साहपूर्ण बनाने का प्रयत्न करें। किसी को कहा जाए कि ध्यान करो तो वह कैसे करे उसका तो मन ही नहीं टिकता क्योंकि कमर में तो दर्द है। तो पहले कमर का दर्द ठीक किया जाए तब मन लगेगा। पहले ऊँची. बारीक बातों पर न जाएँ। सिलसिलेवार चलें। स्थूल से शुरू करें, तब हक़ीकत में परिणाम तक पहुँच सकेंगे। जैसे नर्सरी में दाखिला लेकर फिर क्रमशः ऊँची कक्षाओं की शिक्षा प्राप्त की जाती है। सीधे अगर एम.ए. की क्लास में चले गए तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ने वाला।
इसलिए पहले व्यायाम और प्राणायाम करें, सचेतन प्राणायाम करें। जब ध्यान-साधना करना चाहें तो उसमें भी सर्वप्रथम शरीर को साधे, प्रारम्भिक पन्द्रह मिनट तो काया की अनुपश्यना कर उसे साधे, फिर मन की भी अनुपश्यना करेंगे, मन का योग भी साधेंगे। राजयोग बाद में किया जाएगा, पहले काययोग तो हो जाए।
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