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11 बौद्धों के जातक घटकथा, चुल्लवग्ग (८।२८।३) महावग्ग (८।१५८) संयुक्त निकाय (२।३।१०७) दिव्यावदान (पृ. १६५) और दाठावसो (पृ. १४) इत्यादि ग्रन्थों में निर्ग्रन्थों की नग्रता का उल्लेख है। चीनी यात्री फहियान और हुएनत्सांग ने भी अपने यात्रा-विवरणों में जैन मुनियों को नग्न लिखा है।
मथुरा का वर्णन करते हुए फाहियान ने लिखा है-"सारे देश में कोई अधिवासी न जीवहिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन प्याज खाता है, सिवाय चाण्डाल के । जनपद में न कहीं सूनागार (कसाईघर) है और न मद्य की दुकानें हैं । (फाहियान पृ. ३१)
यहां यह बात ज्ञातव्य है कि फाहियान ने ईसा की चौथी शती के अन्त में और हुएनत्सांग ने ईसा की सातवीं शती के प्रारम्भ में भारत की यात्री की थी। . श्वेताम्बर साधु जब नगराश्रित उपाश्रयों में रहने लगे, तो उनका प्रभाव दिगम्बर साधुओं पर भी पड़ा और उनमें से कितने ही आचार्यों ने कहना प्रारम्भ कर दिया कि साधुओं को इस कलिकाल में वन में नहीं रहना चाहिए । इस प्रकार जब साधुओं में शिथिलाचार ने प्रवेश कर लिया, तो गृहस्थ श्रावकों के आचार में भी शिथिलता आ गई ।
यद्यपि भद्रबाहु के समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने, उनके पुत्र बिन्दुसार ने और पौत्र अशोक ने, तथा सम्प्रति आदि अनेक राजाओं ने अपने समय में जैन धर्म को राज्याश्रय दिया उसका प्रसार किया और विक्रमादित्य के समय तक उसका प्रभाव सारे भारतवर्ष पर रहा, तथापि इस अवधि के मध्य ही वैदिक-सम्प्रदाय-मान्य स्नान, आचमन आदि बाह्य क्रियाकाण्ड ने जैनधर्म में प्रवेश पा लिया और जैनों में अग्नि की उपासना यक्षादिक व्यन्तर देवों की पूजा, एवं पंचामृताभिषेक आदि का प्रचार प्रारम्भ हो गया । जैनों का भी प्रभाव हिन्दुओं पर पड़ा और उनमें से यज्ञ-हिंसा ने विदाई ले ली ।
धीरे-धीरे दि. और श्वे. दोनों ही साधु-परम्पराओं में जरा-जरा से मतभेदों के कारण अनेक गण-गच्छ आदि के भेद उठ खड़े हुए, जिससे आज सारा जैन समाज अनेक उपभेदों में विभक्त हो रहा है । इन नवीन उपभेदों के प्रवर्तकों ने तो सदा से चली आई जिनबिम्ब-पूजन का भी गृहस्थों के लिए निषेध करना प्रारम्भ कर दिया और कितनों ने वीतराग मूर्ति को भी वस्त्राभूषण पहिराना प्रारम्भ कर दिया । कितने ही लोग जनता को पीने का पानी सुलभ करने के लिए कुंआ, बावड़ी के खुदवाने आदि पुण्य कार्यों के करने से भी गृहस्थों को मना करने लगे और किसी स्थान पर लगी आग में घिरे जीवों को बचाने के लिए उसे बुझाने को भी जल-अग्नि आदि की विराधना का नाम लेकर पाप बताने लगे।
इस स्थल पर ग्रन्थकार कहते हैं जो धर्म प्राणि मात्र पर मैत्री और करुणा भाव रखने का उपदेश देता है, उसी के अनुयायी कुछ जैन लोग कहें कि साधु के सिवाय अन्य किसी भी प्राणी की रक्षा करना पाप है तो यह बड़े ही आश्चर्य और दुःख की ही बात है । यथार्थ बात यह है कि जो जैन धर्म उत्तम क्षत्रिय राजाओं के द्वारा धारण करने योग्य था और अपनी सर्व कल्याण-कारिणी निर्दोष प्रवृत्ति के कारण सबका हितकारी था, वही जैन धर्म आज व्यापार करने वाले उन वैश्यों के हाथ में आ गया है जिनका कि धन्धा ही अपने माल को खरा और अन्य के माल को खोटा बताकर अपनी दुकान चलाना है ।
इस प्रकार अपने हार्दिक दुःख पूर्ण उद्गारों को प्रकट करते हुए ग्रन्थकार ने इस सर्ग के साथ ही अपने ग्रन्थ को समाप्त किया है ।
अवतार-वाद नहीं, उत्तार-वाद संसार में यह प्रथा प्रचलित रही है कि जो कोई भी महापुरुष यहां पैदा हुआ, उसे ईश्वर का पूर्णावतार या अंशावतार कह दिया गया है । भ. महावीर ने अपने उपदेशों में कभी अपने आपको ईश्वर का पूर्ण या आंशिक अवतार नहीं कहा प्रत्युत अवतार वाले ईश्वर का निराकरण ही किया है। उन्होंने कहा-ईश्वर तो आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम
१. देखो फाहियान यात्रा-विवरण पृ. ४६,६३ आदि । २. देखो- हुएनत्सांग का भारत-भ्रमण पृ. १४३, ३२०, ५२६, ५३३, ५४५, ५७०, ५७३ आदि)
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