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धारण करने को उत्पादन और मूल रूप के बने रहने को ध्रौव्य कहते हैं । स्वामी समन्त भद्र ने एक दृष्टान्त देकर बतलाया है कि जब सोने के घट को मिटाकर उसका मुकुट बनाया जाता है, तब घट के इच्छुक को शोक होता है, मुकुट से अभिलाषी को हर्ष होता है, किन्तु सुवर्णार्थी के मध्यस्थ भाव रहता है । घटार्थी को शोक घटके विनाश के कारण हुआ, मुकुटार्थी को हर्ष मुकुट के उत्पाद के कारण हुआ । किन्तु सुवर्णार्थी का मध्यस्थ भाव दोनों ही दशाओं में सोने के बने रहने के कारण रहा । अतएव यह सिद्ध होता है कि वस्तु उत्पादन-व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रयात्मक है । जैनदर्शन के इस रहस्य को पतञ्जलि ने अपने पातञ्जल भाष्य में और कुमारिल भट्ट ने अपनी मीमांसाश्लोकवात्तिक में स्वीकार किया है, ऐसा निर्देश इस सर्ग के १७ वें श्लोक में ग्रन्थकार ने किया है । पाठकों की जानकारी के लिए उक्त दोनों ग्रन्थों के यहां उद्धरण दिये जाते हैं
"द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या ।सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्यस्वस्तिकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णापिण्डः, पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसदशे कुण्डले भवतः । आकृतिरनित्या अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव । आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते ॥"
(पाताञ्जल महाभाष्य १११, योगभाष्य ४।१३) अर्थात्- द्रव्य नित्य है और आकृति अनित्य है । सोना किसी आकृति-विशेष से युक्त होने पर पिण्ड कहलाता है । पिण्ड रूप आकृति का विनाश कर रुचक बनाये जाते हैं और रुचकरूप आकृति का उपमर्दन कर कटक बनाये जाते हैं । पुनः कटक रूप आकृति का विनाश कर स्वस्तिक बनाये जाते हैं और फिर उसे भी मिटा कर सुवर्ण पिण्ड बना दिया जाता है । पुनः नयी आकृति से वही खैर के अंगार-सद्दश चमकते हुए कुण्डल बन जाते हैं । इस प्रकार आकृति तो अनित्य है, क्योंकि वह नये नये रूप धारण करती रहती है, किन्तु सुवर्ण रूप द्रव्य ज्यों का त्यों बना रहता है ।
मीमांसाश्लोकवार्त्तिककार कुमारिल भट्ट ने स्वामी समन्तभद्र का अनुसरण कर ते हुए वस्तु का स्वरूप विनाश-उत्पाद और स्थिति रूप से त्रयात्मक ही माना है । यथा
वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिन शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ।
(मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. ६१९) अर्थात् जब सोने के वर्धमानक का विनाश करके रूचक बनाया जाता है, तब वर्धमानक के इच्छुक को तो शोक होता है और रुचकार्थी को प्रसन्नता होती है । किन्तु स्वर्णार्थी के तो माध्यस्थ्य भाव बना रहता है । इससे सिद्ध है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से त्रयात्मक है ।
इस प्रकार वस्तु की नित्या नित्यात्मकता और अनेक धर्मात्मकता को सिद्ध करके जैन दर्शनानुसार उसके चेतन और अचेतन ये दो भेद कर उनके भी उत्तर भेदों का वर्णन किया गया है । साथ ही जीव का अस्तित्व भी सयुक्तिक सिद्ध किया गया है । विस्तार के भय से यहां उसकी चर्चा नहीं की जा रही है।
आगे बताया गया है कि यतः प्रत्येक वस्तु अनादि-निधन है और अपने-अपने कारण-कलापों से उत्पन्न होती है, अतः उसका कोई कर्ता, सृष्टा या नियन्ता ईश्वरादिक भी नहीं है।
इस प्रकार इस सर्ग में अनेक दार्शनिक तत्त्वों की चर्चा की गई है।
बीसवें सर्ग में अनेक सरल युक्तियों से अतीन्द्रिय ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध करके उसके धारक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है।
इक्कीसवें सर्ग में शरद् ऋतु का साहित्यिक दृष्टि से सुन्दर वर्णन करके अन्त में बताया गया है कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम भाग में भ. महावीर ने पावा नगरी के उपवन से मुक्ति-लक्ष्मी को प्राप्त किया ।
१. घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ (आप्तमीमांसा श्लो. ५९)
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