Book Title: Vandan Pratikramanavchuri
Author(s): Kanchanvijay, Kshemankarsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 40
________________ पार्श्वस्थादिखरूपम् वन्दनप्रतिक्रमणावचूरिः ॥११॥ ॥१२॥" तत्र ज्ञानादीनां पार्वे तिष्ठंतीति पार्श्वस्थाः, यथा-"सो पासत्थो दुविहो सके देसे अ होइ नायव्यो । सबंमि णाणदं- सणचरणाणं जो उ पासंमि ॥ १३ ॥ देसंमि अ पासत्थो सिज्जायरभिहडरायपिंडं च । नीअंच अग्गपिंडं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥ १४ ॥ कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि अ अकारणे विसइ । संखडिपलोअणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ॥ १५॥" अवसीदति स्म क्रियाशैथिल्यान्मोक्षमार्गे श्रान्त इव अवसन्नः, यथा-"अवसन्नोऽवि य दुविहो सके देसे अ तत्थ सबंमि।। उउबद्धपीढफलगो ठविअगभोई य नायवो ॥ १६ ॥ आवस्सयसम्झाए पडिलेहणझाणभिक्खअभत्तट्टे । आगमणे निग्गमणे ठाणे अ निसीयणतुयट्टे ॥ १७ ॥ आवस्सयाइयाई न करे करेइ अहवावि हीणमहियाई । गुरुवयणबलाइ तह भणिओ एसो अ उस्सन्नो ॥१८॥" कुत्सितं-ज्ञानादि ३ विराधकं शील-स्वभावो यस्य स कुशीलः, यथा-"कालविणयाइरहिओ नाणकुसीलो तु दंसणे इणमो। निस्संकियाइविजुओ चरणकुसीलो इमो होइ ॥१९॥ कोउअभूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । कककुरुआइलक्खण उवजीवइ विज्जमंताई ॥२०॥” संविग्नासंविग्नसंसर्गात् तद्भावं संसज्जति स्मेति संसक्तः, यथा-"पासत्थाईएK संविग्गेसुं च जत्थ संमिलई । तहिं तारिसओ होइ पिअधम्मो अहव इयरो अ॥२१॥” यथाकथंचित् गुर्वागमनिरपेक्षतया सर्वकार्येषु छन्दः-अभिप्रायः यस्य स यथाछन्दः, यथा-"उस्सुत्तमणुवइटुं सच्छंदविगप्पिअं अणणुवाई। परतत्तिं पवत्तेति यो इणमो अहाछंदो ॥ २२॥ पासत्थाइ वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेसं एमेव कुणति तहा कम्मबंधं च॥२३॥" ज्ञातानि पञ्च-"दबे भावे वंदण १ रयहरणा २ ऽऽवत्त ३ नमण ४ विणएहिं ५ । सीयल १ खुड्डय २ कण्हे ३ सेवय ४ पालय ५ उदाहरणा ॥२४॥” एतानि पञ्चापि षडावश्यकवृत्तितो (पृष्ठं ५७) ज्ञेयानि । अथ नामानि पञ्च-"वंदण १| ॥११॥ Jain Educational For Private & Personel Use Only D ainelibrary.org

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