Book Title: Tristutik Mat Samiksha Prashnottari
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Nareshbhai Navsariwale

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Page 15
________________ १४ त्रिस्ततिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी फिर भी त्रिस्तुतिक मतवाले श्री व्यवहार भाष्यकी निम्नांकित गाथा को अपने मत के समर्थन में प्रस्तुत करते हैं। तिन्नि वा कड्डई जाव, थुईओ तिसिलोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण वि ॥१॥ पहले हम इस गाथा की व्याख्या (टीका)का अर्थ देखें। "श्रुतस्तवानन्तरं तिस्रः स्तुती स्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रय प्रमाणा यावत् कुर्वते तावत् तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं, कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातमिति ॥" भावार्थ : श्रुतस्तव के बाद तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुतियां कहलाएं तब तक मंदिर में रहने की आज्ञा है। कारणवश अधिक रहने की भी आज्ञा है। यहां कहने का तात्पर्य यह है कि, साधु जिनमंदिर में रुकते नहीं है अथवा प्रतिक्रमण के अंत में मंगल के निमित्त 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' अथवा 'विशाललोचन०' की तरह चैत्यवंदन के अंतमें प्रणिधानार्थ तीन श्लोकात्मक स्तुति कहे, तब तक साधुओं को मंदिर में रुकने की आज्ञा है। विशेष कारण में अधिक रुकने की भी आज्ञा है। (यह तात्पर्य 'संघाचार' नामक चैत्यवंदन भाष्य की टीका में है।) उपरोक्त व्यवहारभाष्य की गाथा नीचे की गाथा के साथ सम्बद्ध है। दुब्भिगंधमलस्सावि तणुरप्पेस न्हाणया। दुहा वा ओवहो चेव, तो चिटुंति न चेइये ॥१॥ तिन्नि वा कड्डइ जाव, थुईओ तिसिलोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं कारणेवा परेणऽवि ॥२॥ इन दोनों गाथा का तात्पर्यार्थ 'संघाचार' नामक चैत्यवंदन भाष्य की टीका में पू.आ.भ.श्री धर्मघोषसूरिजी ने निम्नानुसार बताया है। ___ "एतयोर्भावार्थ:- साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठन्ति, अथवा चैत्यवंदनान्ते शक्रस्तवाद्यनन्तरं तिस्रः स्तुतीः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थं

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