________________
आनंदातिरेक में वह बाला घूम रही थी कि उसे अशोक वृक्ष के नीचे हाथ में चित्रपट लिए एक विचित्र चित्रकार खड़ा हुआ दिखाई दिया। धनवती की कमलिनी नामकी एक सखी ने बल प्रयोग कर वह चित्रपट उसके हाथ से ले लिया। उस चित्रपट पर चित्रित एक सुंदर पुरुष का चित्र देख विस्मृत होकर वह चित्रकार से बोली- “सुर, असुर और मनुष्यों में ऐसा अद्भुत रूप किसका है ? अथवा उनमें तो ऐसा सुंदर रूप संभव ही नहीं है, लगता है तूने अपना कौशल जताने हेतु ऐसा रूप स्वमति से ही चित्रित किया है। कारण कि अनेक प्राणियों की सृष्टि करने से श्रांत (थके हारे) वृद्ध विधाता ने ऐसा सुंदर रूपरचना करने की प्रवीणता कहाँ से आयी?' ऐसे वचन सुनकर चित्रकार हँसता हुआ बोला- "इस चित्र में यथार्थ रूप ही चित्रित है। इसमें मेरा जरा भी कौशल नहीं है। अचलपुर के विक्रमराजा के युवा और अनुपम आकृति वाले धनकुमार का यह चित्र है।" राजकुमार को प्रत्यक्ष देखने के पश्चात् जो यह चित्र देखता है, तो वह मुझे उलटा ‘कूट लेखक' कहकर बार-बार निंदा करता है। हे मुग्धे! तुमने राजकुमार को देखा नहीं है, अतः तुमको आश्चर्य होता है, क्योंकि तुम तो कुएँ के मेढ़क जैसी हो। धनकुमार के अद्भुत रूप को देखकर तो देवांगनाएं भी मोहित हो जाती हैं। मैंने तो मात्र दृष्टि विनोद के कारण ही यह चित्र चित्रित किया है।"
(गा. 29 से 38) समीप खड़ी राजकुमारी धनवती वार्तालाप सुनकर और राजकुमार का चित्र देखकर ऐसी हो गई मानो कामदेव ने बाणों से बांध दिया हो। पश्चात् कमलिनी बोली- हे भद्र! तुमने दृष्टिविनोद के लिए भी इस अद्भुत चित्र को बहुत सुंदर चित्रित किया है, वास्तव में तुम निपुण और विवेकी कलाकार हो।
(गा. 39 से 40) इतना कह कमलिनी तो चल पड़ी, किन्तु धनवती शून्य हृदयवाली हो गई। उसका मुख मुरझाए कमल जैसा हो गया। पीछे मुड़-मुड़ कर देखती हुई, डगमगाते अस्थिर कदमों से चलती हुई जैसे-तैसे घर आई। चित्रस्थ धनकुमार के रूप से (मोहित) राजकुमारी धनवती मरुस्थल प्रदेश की हंसनी की तरह हो गई। उसका आनंद काफूर हो गया। दुर्बल शरीर वाली वह क्षुधा तृषा एवं रात्रि में निद्रा विहीन हो गई। रात व दिन का चैन समाप्त हो गया। उसकी स्थिति वन
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)