Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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पाषा : १८३-१५.] चजत्यो महाहियारों
[ ५५ विशेषा:-परतक्षेत्रका विस्तार ५२६ पो० है ओर विजयाधका मूलमें विस्तार ५० योजन है, अतः ( ५२६ -५०)२=२३८० योजन दक्षिण भरतका ओर २३ी योजन हो उत्तर भरतका विस्तार है।
धनुषाकार क्षेत्र में जोवाका प्रमाण निकालनेका विधानहा इम-होणं, वग्गिय अवणिका बाल-बागे ।
सेसं चरगुण - मूलं, जीवाए होनि परिमाणं ॥१३॥
प्रबं:-बाणसे रहित अर्ध-विस्तारका वर्ग करके उसे विस्तारके अर्ध मागके वर्ग से घटा देनेपर अवषिष्ट राशिको पारसे गुणा करके प्राप्त राधिका वर्गमूल निकालने पर जीयाका प्रमाण प्राप्त होता है ।।१८३॥
धनुषका प्रमाण निकालनेका विधानबाग-पुर-रद-बग्गे', य-कयो सोषिवून दुगुण करे।
जं सद्ध होवि छ, करणी वावस्स परिमार्ग ॥१८॥
म:- बाणसे युक्त व्यासक वर्ग मेंसे व्यासके वर्गको घटाकर शेषको दुगुना करनेपर जो राशि प्राप्त हो वह धनुषका वर्ग होता है और उसका वर्गमूल धनुषका प्रमाण होता है ।।१४।।
वारणका प्रमाण निकालनेका विधानजीव-की-तुरिमंसा, 'वास - कदौए सोहिंग पर ।
पम्मि बिहीणे, सब समस्त परिमाण ॥१८५।।
प:-जीवाके वर्गके चतुर्थ भागको अर्ध विस्तारके वर्ग से घटाकर भेषका वर्गमूल निकासने पर जो प्राप्त हो उसे विस्तारके अर्ष मागमेंसे कम कर देनेपर भवशिष्ट रही राशि प्रमाण ही बाणका प्रमाण होता है ।।१८।।
शिरोपा:-या-जम्मूढीपका व्यास एक लाख योजन और विजयाकी दक्षिण जीवा MP3 या ६४ योजन है ।
१.ब.क. ज.
गो। २...क... साबद्ध ।
३.३...क... पर।