Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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भावोंका कारण माननेपर तो अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोष आते हैं । उत्साह, इच्छा होनेपर भी अपनी राजीसे कोई देवगति या मनुष्यगतिको प्राप्त नहीं हो जाता है । कोई वीतरागमुनि इच्छा न होनेपर भी आजकल देवगतिको प्राप्त हो जाते हैं । कोई पतले शरीरकी प्रकृतिको धारनेवाला मोटा होना चाहता है । किन्तु स्थूलकाय नहीं हो पाता है । इसके विपरीत कोई वातुल शरीरवाला अतिस्थूल मनुष्य न चाहने पर भी रुईका गद्दा बना जारहा है। कषायके परिदृष्ट कारण गाली, कुवचन, अनिष्ट पदार्थकी प्राप्ति, होनेपर भी क्षमावान् , सन्तोषी साधु पुरुषके कषाय कलुषतायें नहीं उपजती हैं । साथमें किसी अकारण क्रोधी पुरुषके गाली, अपमान आदि कारण न मिलनेपर भी क्रोध इर्ष्या, गर्व ये विभाव परिणाम उपज जाते हैं । हंसी, शोक, भय, ग्लानिके बहिरंग कारण न मिलनेपर भी बहुतसे जीव इन झगडोंमें फंसे हुये हैं । और अनेक गम्भीर, आत्मध्यानी, सज्जन इनके कारण मिलनेपर भी उक्त विपत्तियोंसे बचे हुये हैं । एकान्तमें स्त्रीपुरुष या शृंगार रस वर्द्धक कारणोंके होनेपर भी अनेक जीव अपने ब्रह्मचर्यकी रक्षा करलेते हैं । तथा व्यसनी जीव कारणोंके बिना ही संकल्प, विकल्प, करते हुये ही मैथुन परिणामोंको करलेते हैं । सम्यग्दर्शनके बहिरंग कारण जुट जानेपर भी द्रव्यलिंगी मुनि मिथ्यात्व परिणामोंको बनाये रखता है । साथमें श्री समन्तभद्रस्वामी या अकलंक देव प्रभृति पावन पुरुष अनायतनोंमें भी अपने सम्यग्दर्शनको परिपुष्ट बनाये रखते हैं। इसी प्रकार असंयमी, असिद्ध, लेश्या, परिणामोंका भी बहिरंग हेतुओंके साथ कार्यकारणभाव माननैमें अन्वय व्यभिचार या व्यतिरेक व्यभिचार आता है । हां अन्तरंग सूक्ष्म गतिनाम, मतिज्ञानावरण मिथ्यात्व, हास्य, आदि, कर्मोको इनका कारण मानना निर्दोष है । अतः तैसा होनेपर जिन पराधीनता सम्पादक पदाोंके उदयसे आत्मामें कभी कभी होनेवाले गति, कषाय, आदिक परिणाम विशेष होते हैं, वे गतिनाम, चारित्रमोहनीय, पुवेद, आदिक कर्म प्रकृतियोंके विशेष भेद हो रहे कर्मद्रव्य हैं । यह “परिशेष" न्यायसे निर्णय कर लिया जाता है । अर्थात्-जो कार्य कभी कभी होता है, वह आत्मद्रव्यका स्वभाव तो है नहीं । हां परद्रव्यके सम्बन्धसे होनेवाला विभाव परिणाम है । जैसे कि तीव्र काम वासना वश हो रहा श्रोत्रिय ब्राह्मण अपने स्वभावका अतिक्रमण कर वेश्यागृह प्रति गमन करता है । अथवा वशीकरण मंत्र या चूर्णकी पराधीनतासे कोई कुलकामिनी परपुरुषकी अनुगामिनी हो जाती है। इसी प्रकार निश्चय नयसै शुद्धभावोंको धार रहा भी आत्मा जिनकी पराधीनतासे दुःख कारण अथवा दुःखरूप हो रहीं कषाय, अज्ञान, अनर्गल प्रवृत्ति, आदि अवस्थाओंको आत्मसात् करलेता है, वे ही जैनसिद्धांतमें पौद्गलिककर्म हैं । उनका उदय आनेपर जीव स्वभावोंको छोडकर विभाव परिणतियोंको प्राप्त कर लेता है । जैसे कि ज्वर श्लेष्मरहित भी जीवित शरीर कभी कभी बात, पित्त, कफ, दोषोंका प्रकोप होनेपर ज्वरी या कफी हो जाता है । इस प्रकार अविनाभावी हेतुसे अनुमान द्वारा कर्मोका उदय साध दिया जाता है । प्रसंग प्राप्तका निषेध कर चुकनेपर बचे हुये का ज्ञान करानेबाला परिशेष न्याय है । " प्रसक्त प्रतिषेधे शिष्यमाण संप्रत्ययहेतुः परिशेषः ।