Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 15
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सूत्रकारोऽत्र तत्त्वार्थश्रद्धानमिति दर्शनम् । • धात्वनेकार्थवृत्तित्वाद् दृशेः श्रद्धार्थतागतेः ॥२॥ सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्चु धातुसे किप् प्रत्यय करनेपर सम्को समि आदेश करके सम्यकाद्ध व्युत्पादित होता है। उसका अर्थ प्रशंसा है और दृशिप्रेक्षणे धातुसे युट् प्रत्यय करनेपर दर्शन शद्ध निष्पन्न होता है, इसका अर्थ आलोचन ( सामान्य देखना ) है । ऐसा स्थित होनेपर हमारा अभीष्ट पारिभाषिक सम्यग्दर्शनका अर्थ लब्ध नहीं हो पाता है । निरुक्तिसे तो अच्छा देखना रूप दर्शनोपयोग अर्थ निकलता है, जो कि एकेद्रिय अभव्य जीवोंके भी ज्ञानके पहिले नियमसे होता है। या निरुक्तिसे चाक्षुषप्रत्यक्ष अर्थ किया जा सकता है। इस कारण उस अनादि पारिभाषिक अर्थका निर्णय करनेके लिए सूत्र बनानेवाले श्रीउमास्वामी महाराजने इस प्रकार सम्यग्दर्शनका लक्षण सूत्र यहां कहा है कि तत्त्व करके निर्णीत माने गये अर्थाका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। धातुओंकी अनेक अर्थोंमें वृत्ति है, इस कारण दृशि धातुका अर्थ श्रद्धान करना जान लिया जाता है । धातुओंसे तिप्, तस्, झि और युट्, अच् आदि प्रत्यय आते हैं, किंतु अनुकरण कर कर्ता, कर्म आदिकी विवक्षा होनेपर सु आदि प्रत्यय भी उतरते हैं । सु, औ, जस् आदि विभक्तियोंके लानेके पहिले इक् और स्तिप् निर्देश कर लिए जाते हैं। यहां दृश् धातुसे इक् निर्देश करके दृशि नाम बना लिया गया है । उसका पीके एक वचनमें दृशेः बन जाता है। सम्यगिति प्रशंसार्यों निपातः क्व्यन्तो वेति वचनात् प्रशंसार्थोऽयं सम्यक् शद्धः सिब प्रशस्तनिःश्रेयसाभ्युदयहेतुत्वाइर्शनस्य प्रशस्तत्वोपपत्तेर्ज्ञानचारित्रवत् । - - सम्यक् इस प्रकारका अनादिकालसे लक्षणसूत्रोंके बिना ही बनाया निपात शब्द है, जिसका कि अर्थ प्रशंसा होता है । अथवा सम् पूर्वक अञ्चु धातुसे अन्तमें " कि " प्रत्यय करके व्युत्पत्तिके द्वारा व्याकरणके लक्षणसूत्रोंसे व्युत्पादित कराया गया सम्यक् कृदन्त शब्द है । इसका अर्थ भी प्रशंसा है। अव्युत्पन्न 'पक्षमें शब्दोंको अनादिसे वैसा ही सिद्ध हो रहा मानकर अपरिमित अर्थ उनपर ला हुआ कहना यही मुख्य सिद्धान्त अच्छा है, तभी तो मंत्रके शब्दोंमें और बीजाक्षरोंमें अनन्तशक्ति है। किन्तु प्रकृति प्रत्यय लाकर शब्दोंका पेट चीरकर खण्ड करनेसे परिमित अर्थ निकालना, गौण व्युत्पन्न पक्ष है । खनिको एक बार ही तोड मरोड डालनेसे उतना धन नहीं मिलता है, जितना कि उसे वैसा ही अक्षुण्ण रहने देनेसे अमित अर्थ प्राप्त होता रहता है । खेदको नहीं प्राप्त कराई गैई मुर्गी अनेक अंडोंकी जननी है । इस प्रकार प्राचीन ऋषियोंकी आम्नायके वचनसे यह सम्यक् शब्द प्रशंसा अर्थको कहता हुआ सिद्ध हो रहा है। प्रशंसनीय हो रहे मोक्ष और स्वर्गका हेतु हो जानेके कारण दर्शनको प्रशंसनीयपना युक्तियोंसे सिद्ध है, जैसे कि सामान्य ज्ञान और सामान्य चारित्र तो मोबसपा विशेष स्वर्ग अनुदिश आदिके कारण नहीं हैं, किंतु जो ज्ञान, चारित्र प्रशंसनीय होकर सम्यग्ज्ञान

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