Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 14
________________ फ्र श्रीविद्यानंदस्वामिविरचितः . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार: तत्त्वार्थचिंतामणिटीका सहितः ( द्वितीयखंडः ) अथ सम्यग्दर्शनविप्रतिपत्तिनिवृत्त्यर्थमाह अब इसके अनन्तर आदिके सूत्रमें कहे गये पहिले सम्यग्दर्शन गुणके लक्षणमें पड़े हुए अनेक विवादोंकी निवृत्ति करनेके लिये सूत्रकार श्रीउमास्वामी महाराज दूसरा सूत्र कहते हैं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ तत्त्वरूपसे निर्णीत किये गये वास्तविक अर्थोका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । ननु सम्यग्दर्शनशद्वनिर्वचनसामर्थ्यादेव सम्यग्दर्शनस्वरूपनिर्णयादशेषवद्विभूविष-: त्तिनिवृत्तेः सिद्धत्वात्तदर्थं तल्लक्षणवचनं न युक्तिमदेवेति कस्यचिदारका, तामपाकरोति - यहां शंका है कि सम्यक् और दर्शन शद्बोंकी निरुक्तिकी सामर्थ्यसे ही. सम्यग्दर्शन गुणके स्वरूपका निर्णय करना हो जावेगा और उसमें नाना प्रतिवादियोंके पडे हुए विवादोंका भी उसी निरुक्तिसे निवारण हो जाना सिद्ध है, फिर उसके लिए उमास्वामी महाराजेका सम्यग्दर्शन के लक्षणको कहनेवाला सूत्र बोलना युक्त नहीं है। ज्ञान और चारित्रका लक्षण भी लक्षणसूत्रोंके बनाये विना ही केवल निरुक्तिसे ही आप जैन इष्ट कर लेते हैं, फिर सम्यग्दर्शनमें ही ऐसी कौनसी विशेषता है कि जिसके लिए एक स्वतंत्र सूत्र बनाया जा रहा है ? । अत्यंत आवश्यकता पड़नेपर अधिक उदात्त अर्थको थोडे शद्वोंगें कहनेवाला नवीन सूत्र रचा जाता है। वैयाकरण तो आधी मात्राके ही लाघव हो जानेसे पुत्रजन्म के समान उत्सव मानते हैं । इस प्रकार किसीका अनुनयसहित आक्षेप है । उसका पूज्यचरण श्रीविद्यानंदस्वामी निराकरण करते हैं । सम्यकुशद्वे प्रशंसार्थे दृशावालोचनस्थितौ । न सम्यग्दर्शनं लभ्यमिष्टमित्याह लक्षणम् ॥ १ ॥

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