________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 10 वर्द्धमानोऽवधिः कश्चिद्विशुद्धेर्वृद्धितः स तु। देशावधिरिहाम्नात: परमावधिरेव च // 13 // हीयमानोऽवधिः शुद्धीयमानत्वतो मतः। स देशावधिरेवात्र हाने: सद्भावसिद्धितः // 14 // अवस्थितोऽवधिः शुद्धेरवस्थानान्नियम्यते। सर्वोङ्गिनां विरोधस्याप्यभावान्नानवस्थितेः // 15 // विशुद्धरनवस्थानात्सम्भवेदनवस्थितः। स देशावधिरेवैकोऽन्यत्र तत् प्रतिघाततः॥१६॥ प्रोक्तः सप्रतिपातो वाऽप्रतिपातस्तथाऽवधेः। सोऽन्तर्भावममीष्वेव प्रयातीति न सूत्रितः // 17 // विशुद्धेः प्रतिपाताप्रतिपाताभ्यां सप्रतिपाताप्रतिपातौ ह्यवधीषट्स्वेवान्तर्भवतः / अनुगाम्यादयो हि केचित् प्रतिपाताः केचिदप्रतिपाता इति। विशुद्धि और सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि हो जाने से कोई-कोई वह अवधिज्ञान तो वर्द्धमान कहा जाता है। उनमें देशावधि और परमावधि ही यहाँ वर्द्धमान माना गया है, क्योंकि देशावधि के जघन्य अंश से लेकर उत्कृष्ट अंशों तक वृद्धियाँ होती हैं। उसी प्रकार तेजस्कायिक जीवों की अवगाहनाओं के भेदों के साथ तेजस्कायिक जीव राशि का परस्पर गुणा करने से जितना लब्ध आता है, उतने असंख्यात लोक प्रमाण परमावधि के द्रव्य अपेक्षा भेद हैं और क्षेत्रकाल की अपेक्षा से भी असंख्यात भेद हैं अतः परमावधि भी वर्द्धमान है किन्तु सर्वावधि का भेद वर्द्धमान नहीं है, वह अवस्थित है॥१३॥ सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और संक्लेश परिणामों की वृद्धि तथा क्षयोपशमविशेषजन्य विशुद्धि की न्यूनता हो जाने से अवधिज्ञान हीयमान होता है। इन तीनों अवधिज्ञानों में विशुद्धि हानि के सद्भाव की सिद्धि हो जाने से वह देशावधि ही एक हीयमान है। बढ़ते हुए चारित्र गुण वाले मुनि महाराजों के परमावधि और सर्वावधि होती है। अत: ये हीयमान नहीं हैं॥१४॥ कोई अवधि तो सम्यग्दर्शनादि गुणों के और क्षयोपशमजन्य विशुद्धि के अवस्थान रहने से अवस्थित हैं। यह अवस्थित भेद सभी जीवों के तीनों अवधिज्ञानों में घटित हो जाता है, क्योंकि विरोध दोष होने का इसमें अभाव है। सर्वावधि में अनवस्थित का सर्वथा निषेध है तथा अवस्थित देशावधि, परमावधि में भी अनवस्थित का निषेध है, अत: तीनों ही अवस्थित भेद वाली हैं // 15 // विशुद्धि के समान क्षयोपशमजन्य आत्मा की विशुद्धि का अनवस्थान हो जाने से अवधि का अनवस्थित भेद सम्भव है। उनमें यह देशावधि ही एक अनवस्थित है। अन्य दो अवधियों में उस अनवस्थित का प्रतिघात है॥१६॥ ___ उक्त छह भेदों के अतिरिक्त सप्रतिपात और अप्रतिपात ये दो भेद भी अवधिज्ञान के श्री अकलंकदेव ने कहे हैं। किन्तु ये भेद इन छह भेदों में ही अन्तर्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। इसी कारण सूत्रकार ने अवधि के आठ भेदों का सूत्र द्वारा सूचन नहीं किया है॥१७॥ आत्मा की निर्मलता के प्रतिपात और अप्रतिपात से प्रतिपातसहित और प्रतिपात रहित दो अवधिज्ञान के भेद इन छह भेदों में ही गर्भित हो जाते हैं, क्योंकि अनुगामी आदिक छहों भेद कोई तो प्रतिपाती हैं और कोई अनुगामी आदि भेद प्रतिपातरहित हैं। यहाँ तक अवधिज्ञान को कहने वाला प्रकरण समाप्त हुआ।