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(२६) जिस दर्शनमें अपने आत्माका आत्मपणा जानके, पूर्णदयाको अंगीकार करी होवे, सो तो, एक, श्रीजैनदर्शनही है, जो सर्व लोकको विदित है, और इससे यह धर्म, जगत्में सर्वोत्कृष्ट कहा जाता है. ____इस धर्मके अपेक्षावशसें आचारधर्म, दयाधर्म, क्रियाधर्म, और वस्तुधर्म, ये चार मेद होते हैं. और दान, शील, तप, और भाव, येही चार तिसके कारण है. धनके बलसें दान होता है, मनोवलसें शील पलता है, शरीरबलसें तप होता है, और सम्यग्ज्ञानवलसें भावषमकी वृद्धि होती है.
भावधर्म, दान शील तपसे अधिक है. क्योंकि, भावधर्मका कारण ज्ञानबल है, जिसकरके वस्तुका स्वरूप जाना जाय सो ज्ञान है. ज्ञानसें जितना आत्मधर्मकी दृदि, और संरक्षण होता है, उतना प्रथमके तीन दान, शील, तप, इनसें नही होता है. इसका कारण यह है कि, नय, निक्षेप, प्रमाण, चार अनुयोगविचार, सप्तभंगी, षद्रव्यादिकका विचार, इत्यादि सर्व, ज्ञानबलकरकेही जीवको परिपूर्ण प्राप्त होता है. श्री दशवेकालिक सूत्र में भी प्रथम ज्ञान, और पीछे क्रिया कही है. “ पढमं नाणं तओ दया" इति वचनात्. ज्ञान विनाको जो क्रिया करनी है, सो भी, क्लेशरूप प्रायः है; क्रिया ज्ञानकी दासी तुल्य है; ज्ञानी पुरुषकी अल्पक्रिया भी, अत्यंत श्रेष्ठ है. “ जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुहिं वासकोडिहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं " इति वचनात. श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि, ज्ञानगुणसंयुक्त जो होवे, उसको मुनि कहना; इससे भी ज्ञानका माहात्म्य कथंचित् अत्युत्कृष्ट मालूम होता है. श्री महानिशीथ सूत्रमें ज्ञानको अप्रतिपाति कहा है. श्री उपदेशमालामें कहा है, ज्ञानरूप नेत्रकरके उद्यमवान्, ऐसे मुनिको वंदन करना योग्य है.
श्री देवाचार्य, श्री मल्लवादी प्रभृति आचार्योंने, दिगंबर बौद्धादिकोंका पराजय किया, भोर यशोवाद प्राप्त किया; तथा श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायजीने, काशीमें सर्व गादीयोंका पराजय करके 'न्यायविशारद' की पदवी पाई, सो भी, ज्ञानकाही प्रभाव जानना.
ज्ञानविना सम्यक्त्व नही रह सकता है, ज्ञानविना अहिंसा मार्ग नही जाना जाता है, सिद्धांतोक्त सकल क्रियाका मूल जो श्रद्धा, उसका भी कारण ज्ञान है. क्योंकि, ज्ञानविना प्रायः श्रद्धा प्राप्त होती नही है, ऐसा जो ज्ञान, उसके पांच भेद हैं. मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यव, और केवल. इन पांचोंमें भी, श्रुतज्ञान सर्वसें अधिकोपयोगि है. श्रुतज्ञान पदार्थ मात्रका प्रकाशक है, स्वपरमतका परिपूर्ण प्रकाश करनेवाला भी श्रुतज्ञानहीं है, अज्ञानरूप अंधकार पटलको दूर करनेवास्ते सूर्य समान है,
और दुस्समकालरूप रात्रि में तो दीपक समान है. तथा स्वपरस्वरूपका बोध करानेको श्रुतज्ञानही समर्थ है, अन्य चारों ज्ञानसें जाने हुए पदार्थका स्वरूप भी श्रुतज्ञानसेंही कहा जाता है, इसवास्ते मत्यादि चारों ज्ञान स्थापने योग्य है, "चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवाणज्जाई" इति श्रीअनुयोगद्वारसूत्रादिवचनात् । इसवास्ते श्रुतज्ञानही, उपकारक है. क्योंकि, भवबानसेंही उपदेश होता है, भूतज्ञानसेंही शुद्धात्मिक परमपदकी प्राप्ति होती है, इस
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