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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली १
हमारे लिये सुखावह हो । [ नेत्र और सूर्यका अभिमानी देवता ] अर्यमा हमारे लिये सुखप्रद हो । बलका अभिमानी इन्द्र तथा [ वाक् और बुद्धिका अभिमानी देवता] वृहस्पति हमारे लिये शान्तिदायक हो। तथा जिसका पादविक्षेप ( डग ) बहुत विस्तृत है वह [ पादाभिमानी देवता] विष्णु हमारे लिये सुखदायक हो । ब्रह्म [ रूप वायु ] को . नमस्कार है । हे वायो ! तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ना हो । अतः तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा | तुम्हींको ऋत ( शास्त्रोक्त निश्चित अर्थ ) कहूँगा और [ क्योंकि वाक् और शरीरसे सम्पन्न होनेवाले कार्य भी तुम्हारे ही अधीन हैं इसलिये ] तुम्हींको मैं सत्य कहूँगा । अतः तुम [विद्यादानके द्वारा ] मेरी रक्षा करो तथा ब्रह्मका निरूपण करनेवाले आचार्यकी भी [ उन्हें वक्तृत्व-सामर्थ्य देकर ] रक्षा करो। मेरी रक्षा करो और वक्ताकी रक्षा करो । आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीनों प्रकारके तार्पोकी शान्ति हो ॥ १ ॥
शं सुखं प्राणवृत्तेरहश्चाभि- प्राणवृत्ति और दिनका अभिमानी मानी देवतात्मा मित्रो नोऽस्माकं |
| देवता मित्र हमारे लिये शं-सुखरूप
हो । इसी प्रकार अपानवृत्ति और भवतु। तथैवापानवृत्ते रात्रेश्चाभि- | रात्रिका अभिमानी देवता वरुण, मानी देवतात्मा वरुणः । चक्ष- नेत्र और सूर्यमें अभिमान करनेवाला प्यादित्ये चाभिमान्यर्यमा ।
अर्यमा, वलमें अभिमान करनेवाला
इन्द्र, वाणी और बुद्धिका अभिमानी बल इन्द्रः। वाचि बुद्धौ च बृहस्पति तथा उरुक्रम अर्थात् वृहस्पतिः। विष्णुरुरुक्रमो वि- | विस्तीर्ण पादविक्षेपवाला पादाभिमानी स्तीर्णक्रमः पादयोरभिमानी ।
देवता विष्णु-इत्यादि सभी अध्यात्म
देवता हमारे लिये सुखदायक हों। एवमाद्याध्यात्मदेवताः शं नः।।
'भवतु' (हों) इस क्रियाका सभी भवत्विति सर्वत्रानुपङ्गः। वाक्योंके साथ सम्बन्ध है।