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तैत्तिरीयोपनिषद्
[पल्ली २
द्यते । स एवाविद्याकामकर्माप- आनन्द हो जाता है । कामनाओंसे कर्पण मनुष्यगन्धर्वाद्युत्तरोत्तर- पराभूत न होनेवाले विद्वान् श्रोत्रियभूमिप्वकामहतचिद्वन्ट्रोत्रियन-को प्रत्यक्ष अनुभव होनेवाला यह
ब्रह्मानन्द ही मनुष्य-गन्धर्व आदि त्यक्षो विभाज्यते शतगुणोत्तरो- आगे-आगेकी भूमियोंमें हिरण्यगर्भत्तरोत्कर्पण यावद्धिरण्यगर्भस्य पर्यन्त अविधा, कामना और कर्मका ब्रह्मण आनन्द इति । निरस्ते हास होनसे उत्तरोत्तर सौ-सौ गुने
उत्कर्षसे आविर्भूत होता है । तथा त्वविद्याकृते विषयविपयिविभागे
विद्याद्वारा अविद्याजनित विषय-विषयिविद्यथा स्वाभाविक परिपूर्ण विभागके निवृत्त हो जानेपर यह एक आनन्दोऽद्वैतो भवतीत्येत-खाभाविक परिपूर्ण एक और अद्वैत मर्थ विभावयिष्यन्नाह ।
आनन्द हो जाता है-इसी अर्थशो
समझाने के लिये श्रुति कहती है. युवा प्रथमवयाः। साधुयुवेति जो युवा अर्थात् पूर्ववयस्क,
साधुयुवा अर्थात् जो साधु भो हो और साधुश्चासौ युवा चेति यूनो युवा भी इस प्रकार साधुयुवा विशेषणम् । युवाप्यसाधुर्भवति शब्द 'युवा' का विशेषण है; लोकमें
युवा भी असाधु हो सकता है और साधुरप्ययुवातो विशेषणं युवा साधु भी अयुवा हो सकता है, स्यात्साधुयुवेति । अध्यायको- हो' इस प्रकार विशेषणरूपसे कहा है।
इसीलिये 'जो युवा हो-साधुयुवा .ऽधीतवेदः। आशिष्ठ आशास्त- तथा अध्यायक-वेद पढ़ा हुआ, .
आशिष्ठः-अत्यन्त आशावान्, तमः । दृढिष्ठो दृढतमः। वलिछो इद्विष्ठः-अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठबलवत्तमः। एवमाध्यामिक अति बलवान् होइस प्रकार जो
इन आध्यात्मिक साधनोंसे सम्पन्न साधनसंपन्नः तस्येयं पृथिव्युर्वी हो; और उसीकी, यह धनसे अथाद