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अनु०८]
शाङ्करभाप्यार्थ
चन्द्रस्य सत्त्वं यदतैमिरिकेण द्वितीय चन्द्रमाकी वास्तविकता
यही है कि वह तिमिररोगरहित चक्षुष्मता न गृह्यते ।
नेत्रोंवाले पुरुपद्वारा ग्रहण नहीं
किया जाता। नैवं न गृह्यत इति चेत् ? पूर्व०-परन्तु द्वैतका ग्रहण न
होता हो-ऐसी बात तो है नहीं। न, सुपुप्तसमाहितयोर- सिद्धान्ती-ऐसा मत कहो,
क्योंकि सोये हुए और समाधिस्थ ग्रहणात् ।
पुरुषको उसका ग्रहण नहीं होता । सुपुप्तेऽग्रहणमन्यासक्तवदिति पूर्व०-किन्तुसुषुप्तिमें जो द्वैतका
अग्रहण है वह तो विपयान्तरमें चेत् ।
आसक्तचित्त पुरुपके अग्रहणके
समान है ? न, सर्वाग्रहणात् । जाग्रत्स्वम- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि उस
समय तो सभी पदार्थोका अग्रहण योरन्यस्य ग्रहणात्सत्त्वमेवेति । है [ फिर वह अन्यासक्तचित्त कैसे
कहा जा सकता है ? ] यदि कहो चेन्नः अविद्याकृतत्त्वालाग्र
कि जाग्रत् और स्वप्नावस्थामें अन्य पदार्थोका ग्रहण होनेसे उनकी सत्ता
है ही, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं; स्वमयो, यदन्यग्रहणं जाग्रत्स्वम
क्योंकि जाग्रत् और खप्न अविद्या
कृत हैं। जाग्रत् और खप्नमें जो अन्य योस्तदविद्याकृतमविद्याभावेऽभा-पदार्थका ग्रहण है वह अविद्याके
कारण है, क्योंकि अविद्याकी निवृत्ति वात् ।
| होनेपर उसका अभाव हो जाता है ? सुपुप्तेऽग्रहणमप्यविद्याकृत- पूर्व०-सुषुप्तिमें जो अग्रहण है मिति चेत् १
| वह भी तो अविद्याके ही कारण है।