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तैत्तिरीयोपनिपद्
[घल्ली २
न, स्वाभाविकत्वात् । द्रव्य- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि वह तो
| स्वाभाविक है। द्रव्यका तात्त्विक वस्तनस्ताविक- यहि तत्त्वमविक्रि-खरूप तो विकार न होना ही है. विशेषरूपयो- या परानपेक्षयात। क्योंकि उसे दुसरेकी अपेक्षा नहीं निर्वचनम् ।
होती । दुसरेकी अपेक्षाचाला होनेके विक्रिया न तत्त्वं- कारण विकार तत्व नहीं है । जो
कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंकी परापेक्षत्वात् । न हि कारकापेक्षे अपेक्षावाला होता है यह वस्तुका
तत्त्व नहीं होता । विद्यमान वस्तुका वस्तुनस्तत्वम् । सतो विशेषः ।
विशेष रूप कारकोंकी अपेक्षावाला कारकापेक्षः, विशेपश्च विक्रिया। होता है, और विशेष ही विकार
होता है । जाग्रत् और खमका जो जाग्रत्वमयोश्च ग्रहणं विशेपः । ग्रहण है वह भी विशेप ही है।
जिसका जो रूप अन्यकी अपेक्षासे यद्धि यस्य नान्यापेक्षं स्वरूपं रहित होता है वही उसका तत्व तत्तस्य तत्त्वम, यया होता है और जो अन्यकी अपेक्षा
वाला होता है वह तत्त्व नहीं होता, तत्तत्त्वम् ; अन्याभावेऽभावात् । क्योंकि उस अन्यका अभाव होनेपर
उसका भी अभाव हो जाता है। तस्मात्स्वाभाविकत्वाजाग्रत्खन- । अतः [सुषुप्तावस्था] स्वाभाविक होनेके वन सुपुते विशेषः।
कारण उस समय जाग्रत् और खप्त
के समान विशेषकी सत्ता नहीं है। येपां पुनरीश्वरोऽन्य आत्मनः। किन्तु जिनके मतमें ईश्वर आत्मा
से भिन्न है और उसका कार्यरूप मेददृष्टे- कार्य चान्यत्तेपां यह जगत् भी भिन्न है उनके भयकी - भयानिवृत्तिर्भयस्या
निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि
या भय दूसरेके ही कारण हुआ करता न्यनिमित्तत्वातसतश्चान्यस्याम- है । अन्य पदार्थ यदि सत् होगा
। तब तो उसके खरूपका अभाव हानानुपपत्तिः। न चासत आ- नहीं हो सकता और यदि असत
भयहेतुत्वम्