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अष्टसा तुकाक अनका त्याग न करनारूप व्रत तथा जल और ज्योतिरूप अन-बाके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अन्नं न परिचक्षीत । तद्रतम् । आपो वा अन्नम् । ज्योतिरन्नादम् । अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम् । ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिताः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान्कीया ॥१॥
अन्नका त्याग न करे । यह व्रत है । जल ही अन्न है। ज्योति अन्नाद है । जलमें ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योतिमें जल स्थित है। इस प्रकार ये दोनों अन्न ही अन्नमें प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित होता है, अन्नवान् और अन्नाद होता है, प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्तिके कारण भी महान होता है ॥१॥
अन्नं न परिचक्षीत न परि-1 अन्नका प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग हरेत् । तद्रुतं पूर्ववत्स्तुत्यर्थम् । होता
न करे, यह व्रत है-यह कथन
पूर्ववत् स्तुतिके लिये है । इस तदेवं शुभाशुभकल्पनया अपरि- प्रकार शुभाशुभकी कल्पनासे उपेक्षा हियमाणं स्तुतं महीकृतमन्नं स्यात्। एवं महिमान्वित किया जाता है।
न किया हुआ अन्न ही यहाँ स्तुत एवं यथोक्तमुत्तरेष्वप्यापो वा तथा आगेके 'आपो वा अन्नम्
" इत्यादि वाक्योंमें भी पूर्वोक्त अर्थकी अन्नमित्यादिषु योजयेत् ॥१॥ ही योजना करनी चाहिये ॥१॥
इति भृगुवल्ल्यामष्टमोऽनुवाकः ॥८॥