Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 250
________________ अनु० १०] शाकरभाष्यार्थ २३५ यतो मुक्तोऽप्यहमनभूत आद्यः हो [ यही अच्छा है ], क्योंकि सामन्नस्य। मुक्त होनेपर मैं भी अन्नभूत होकर अन्नका भक्ष्य होऊँगा। एवं मा भैपीः संव्यवहार- सिद्धान्ती-ऐसे मत डरो, क्योंकि विषयत्वात्सर्वकामाशनस्य अती सब प्रकारके भोगोंको भोगना यह तो व्यावहारिक ही है । विद्वान् तो त्यायं संव्यवहारविषयमन्नान्ना- ब्रह्मविद्याके द्वारा इस अविद्याकृत दादिलक्षणमविद्याकृतं विद्यया अन्न-अन्नादरूप व्यावहारिक विषय का उल्लघन कर ब्रह्मत्वको प्राप्त हो ब्रह्मत्वमापन्नो विद्वांस्तस्स नैव जाता है । उसके लिये कोई दूसरी द्वितीयं वस्त्वन्तरमस्ति यती वस्तु ही नहीं रहती, जिससे कि | उसे भय हो । इसलिये तुझे मोक्षसे विभेत्यतो न भेतव्यं मोक्षात् । नहीं डरना चाहिये। एवं तहि किमिदमाह-अह- यदि ऐसी बात है तो 'मैं अन्न मनमानिने मोहूँ, मैं अन्नाद हूँ ऐसा क्यों कहा है-~-ऐसा प्रश्न होनेपर कहा जाता ऽयमन्नान्नादादिलक्षणः संव्यव-यह जो अन्न और अनादरूप हारः कार्यभृतः स संव्यवहार- | कार्यभूत व्यवहार है वह व्यवहार मात्र हो है-परमार्थवस्तु नहीं है। मात्रमेव न परमार्थवस्तु । स | वह ऐसा होनेपर भी ब्रह्मका कार्य एवंभृतोऽपि ब्रह्मनिमित्तो ब्रह्म- होनेके कारण ब्रह्मसे पृथक् असत् व्यतिरेकेणासन्निति कृत्वा ब्रह्म ही है-इस आशयको लेकर ही | ब्रह्मविद्याके कार्यभूत ब्रह्मभावकी विद्याकार्यस्य ब्रह्मभावस्य स्तुत्य- स्तुतिके लिये 'मैं अन्न हूँ, मैं अन्न थंमुच्यते । अहमन्नमहमन्नमह हूँ, मैं अन्न हूँ; मैं अन्नाद हूँ, मैं | अन्नाद हूँ, मैं अन्नाद हूँ' इत्यादि कहा मन्नम् । अहमन्नादोऽहमन्नादो जाता है। इस प्रकार अविद्याका ऽहमन्नाद इत्यादि । अतो भया- नाश हो जानेके कारण ब्रह्मभूत

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