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तैत्तिरीयोपनिषद्
[चल्ली ३
दिदोपगन्धोऽप्यविधानिमित्तो- विद्वान्को अविद्याके कारण होनेवाले विधोच्छेदारभूतस्य नास्तीति। मय
सो भय आदि दोएका गन्ध भी नहीं
होता। अहं विश्वं समस्तं भुवनं भूतः मैं अपने श्रेष्ठ ईश्वररूपसे विश्व । संसजनीयं ब्रह्मादिभिर्मवन्तीति । यानी सम्पूर्ण मुवनका पराभव
(उपसंहार) करता हूँ। जो वारिपन्थूतानीति भुवनमस्यभरा-प्रामादि भूतों (प्राणियों) के द्वारा ममियतासि परेणेश्वरेण स्वरू
संभजनीय (भोगे जाने योग्य) है
अथवा जिसमें भूत (प्राणी ) होते पेण । सुवर्न ज्योतीः नुवरा- है उसका नाम भुवन है । 'सुवर्न दित्यो नकार उपमार्थे । आदित्य ज्योतिः'-'सुवः' आदित्यका नाम
है और न उपमाके लिये है। अर्थात् इन सद्विभातगणदीयं ज्योती
हमारी ज्योति-हमारा प्रकाश ब्योतिः प्रकाश इत्यर्थः ।
आदित्यके समान प्रकाशमान है। शत पल्लाद्वयोवाहतोपानप- इस प्रकार इन दो वल्लियोंमें कही स्परमात्मज्ञानं तामेतां यथोक्ता- हुई उपनिपत् परमात्माका ज्ञान है । सुपनिपदं शान्तो दान्त उपरत- इस उपर्युक्त उपनिपत्को जो भृगुस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वा भृगु-|
| के समान शान्त, दान्त, उपरत, वत्तपो. महदास्थाय य एवं
तितिक्षु और समाहित होकर महान्
न तपस्या करके इस प्रकार जानता है वेद तस्येदं फलं यथोक्तमोक्ष | उसे यह उपर्युक्त मोक्षरूप फल इति ॥६॥.. .
प्राप्त होता है ॥६॥ " . . -*. . .. इति भृगुवल्ल्यां दशमोऽनुवाकः ॥ १० ॥
इति श्रीयनपुरमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छ कर
मात कृतौ तैत्तिरीयोपनिपद्भाष्ये भृगुवल्ली समाप्ता ॥
' समान्य कष्णयजुर्वेदीया तैत्तिरीयोपनिपत् ॥