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तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली ३
चेतनावात् । अन्नस्यैव वा परा- ' चेतनावान् शर्ता हुँ । अथवा परार्थ र्थस्यान्नादार्थस्य सतोऽनेकात्म- यानी अन्नादके लिये होनेवाले अन्नका, कस्य पारार्थेन हेतुना संपात-जा
अनेकारमक है, मैं संवात करनेवाला कृत् । निरुक्तिर्विसायत्वख्याप
है। मूलमें जो तीन बार कहा गया है नार्थी।
| यह विस्मयत्व प्रकट करने के लिये है। अहससि भवामि । प्रथमजाः मैं इस ऋत-सत्य यानी मृतप्रथमजः प्रथमोत्पन्न जातस्य मूर्तरूप जगत्का 'प्रथमजा--प्रथम सत्यस्य मूर्तामूर्तस्वास जगतः। उत्पन्न होनेवाला (हिरण्यगर्भ) हूँ। देवेभ्यश्च पूर्वम् । अमृतस्य नाभि
मैं देवताओंसे पहले होनेवाला और
| अमृतका नाभि यानी अमरत्वका रमृतत्वस्थ नाभिर्मध्यं मत्संस्थ
मध्य (केन्द्रस्थान ) हूँ, अर्थात् समृतत्व प्राणिनामत्यर्थः। प्राणियोंका अमृतत्व मेरेमें स्थित है।
यः कश्चिन्मा मामन्त्रमन्नार्थि- जो कोई अन्नरूप मुझे अन्नार्थियोंभ्यो ददाति प्रयच्छत्यन्नात्मता को दान करता है अर्थात् अन्नात्म
भावसे मेरा वर्णन करता है वह ब्रवीति स इदित्थमेवमविनष्टं ।
इस प्रकार अविनष्ट और यथार्थ यथाभूतमावा अवतीत्यर्थः । यः अन्नखरूप मेरी रक्षा करता है। पुनरन्यो मामदत्वार्थिभ्यः काले किन्तु जो समय उपस्थित होनेपर प्राप्तेऽन्नमत्ति तमन्नमदन्तं भक्ष
अन्नार्थियोंको मेरा दान न कर
खयं ही अन्न भक्षण करता है उस यन्तं पुरुषमहमन्नमेव संप्रत्यझि
अन्न भक्षण करनेवाले पुरुषको मैं भक्षयामि।
अन्न ही खा जाता हूँ। अत्राहैवं तर्हि विभेमि सर्वा- इसपर कोई वादी कहता है
| यदि ऐसी बात है तब तो मैं त्मत्वप्राप्तेर्मोक्षादस्तु संसार एव सर्वात्मत्वप्राप्तिरूप मोक्षसे डरता हूँ।
इससे तो मुझे संसारहीकी प्राप्ति