Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 248
________________ अनु० १०] शाङ्करभाष्यार्थ २३३ .. ब्रह्मवेत्ताद्वारा गाया जानेवाला साम। ' . का पुनरसौ विलयः ? किन्तु वह विस्मय क्या है ? सो इत्युच्यते बतलाया जाता है- . . अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् । अहमन्नादो३ ऽहमन्नादो३ ऽहमन्नादः । अह श्लोककृदह श्लोककृदह श्लोककृत् । अहमस्मि प्रथमजा ऋतारस्य । पूर्व देवेभ्योऽमृतस्य ना३ भायि । यो मा ददाति स इदेव माश्वाः । अहमन्नमन्नमदन्तमाझि । अहं विश्वं भुवनमभ्यभवायम् । सुवर्न ज्योतीः य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ ६॥ . मैं अन्न (भोग्य ) हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं ही अन्नाद (भोक्ता) हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ; मैं ही श्लोककृत ( अन्न और अन्नादके संघातका कर्ता) हूँ, मैं ही श्लोककृत् हूँ, मैं ही श्लोककृत हूँ। मैं ही इस सत्यासत्यरूप जगत्के पहले उत्पन्न हुआ [ हिरण्यगर्भ ] हूँ । मैं ही देवताओंसे पूर्ववर्ती बिराट् एवं अमृतत्वका केन्द्रखरूप हूँ। जो [अन्नखरूप ] मुझे [अन्नार्थियोंको ] देता है वह इस प्रकार मेरी रक्षा करता है, किन्तु [जो मुझ अन्नस्वरूपको दान न करता हुआ खयं भोगता है उस ] अन्न भक्षण करनेवालेको मैं अन्नरूपसे भक्षण करता हूँ। मैं इस सम्पूर्ण भुवनका पराभव करता हूँ, हमारी ज्योति सूर्यके समान नित्यप्रकाशखरूप है । ऐसी यह उपनिषद् [ब्रह्मविद्या ] है । जो इसे इस प्रकार जानता है [ उसे पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है॥६॥ . अद्वैत आत्मा निरञ्जनोऽपि निर्मल अद्वैत आत्मा होनेपर भी सन्नहमेवानमन्नादश्च । किं चाह- | मैं ही अन्न और अन्नाद हूँ, तथा मैं मेव श्लोककृत् । श्लोको नामा- ही श्लोककृत् हूँ। 'श्लोक' अन्न और नानादयोः संघातस्तस्य कर्ता अन्नादके संघातको कहते हैं उसका

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