Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 235
________________ तैत्तिरीयोपनिषद् [ वल्ली ३ भावसे उसकी उपासना करे । इससे सम्पूर्ण काम्य पदार्थ उसके प्रति विनम्र हो जाते हैं । वह ब्रह्म है— इस प्रकार उसकी उपासना करे | इससे वह ब्रह्मनिष्ठ होता है । वह ब्रह्मका परिमर ( आकाश ) है - इस प्रकार उसकी उपासना करे । इससे उससे द्वेष करनेवाले उसके प्रतिपक्षी मर जाते हैं, तथा जो अप्रिय भ्रातृव्य ( भाईके पुत्र ) होते हैं वे भी मर जाते हैं । वह, जो कि इस पुरुषमें है और वह जो इस आदित्य में है, एक है ॥ ४ ॥ तथा पृथिव्याकाशोपासकस्य तथा पृथिवी और आकाशकी वसतौ वसतिनि- | [ अन्न एवं अन्नादरूपसे ] उपासना मित्तं कंचन कंचि- करनेवालेके यहाँ रहनेके लिये कोई भी आये उसे उसका परित्याग नहीं करना चाहिये । अर्थात् अपने यहाँ निवास करनेके लिये आये हुए किसी भी व्यक्तिका वह निवारण न करे । जब किसीको रहनेका स्थान दिया जाय तो उसे भोजन भी विधया येन केन च प्रकारेण | अवश्य देना चाहिये । अतः जिस दपि न प्रत्याचक्षीत वसत्यर्थ मागतं न निवारयेदित्यर्थः । वासे च दत्तेऽवश्यं द्यशनं दात व्यम् । तस्माद्यया कया च प्राप्नुयाद्रह्वन्नसंग्रहं बह्वन्नं कुर्यादित्यर्थः । किसी भी विधिसे यानी किसी-नकिसी प्रकार बहुत-सा अन्न प्राप्त करे; अर्थात् खूब अन्न-संग्रह करे । आतिथ्योपदेशः यस्मादन्नवन्तो विद्वांसोऽभ्या- क्योंकि अन्नवान् उपासकगण गतायान्नार्थिनेऽराधि संसिद्ध- अपने यहाँ आये हुए अन्नार्थीसे मस्मा अन्नमित्याचक्षते न 'अन्न तैयार है' ऐसा कहते हैं नास्तीति प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति । परित्याग नहीं करते । इसलिये भी 'अन्न नहीं है' ऐसा कहकर उसका तस्माच्च हेतोर्बह्वन्नं प्राप्नुयादिति | बहुत-सा अन्न उपार्जन करे - इस पूर्वेण संवन्धः । अपि चान्नदा- | प्रकार इसका पूर्ववाक्यसे सम्बन्ध

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