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रियोपनिपद
[चल्ली ३
ना उपलब्धुरनुपलस्पत्याए सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि जो
| (जीव) सबका द्रष्टा है वह देखा
नहीं जा सकता। संसारधर्मविशिष्ट आत्मोप- पूर्व०-सांसारिक धर्मोसे युक्त , लम्यत इति गर?
आत्मा तो उपलब्ध होता ही है ? । ना धर्माणां धर्मिणोऽव्यति- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है।
क्योंकि धर्म अपने धर्मीसे अभिन्न रेकारकत्वानुपपत्ते, उष्णप्र- होते हैं अतः वे उसके कर्म नहीं
हो सकते, जिस प्रकार कि [ सूर्यके काशयोदशप्रकाश्यत्वानुपपत्ति-धर्म उष्ण और प्रकाशका दाह्यत्व
और प्रकाश्यत्व सम्भव नहीं है। वत् ।त्रासादिदशेनान्तुःखित्वा- यदि कहो कि भय आदि देखनेसे धनसीयत इति चेताया- आत्माके दुःखित्व आदिका अनुमान
होता ही है तो ऐसा कहना भी देर्दुःखस्य चोपलभ्यमानत्वानो-ठीक नहीं, क्योंकि भय आदि दुःख
उपलब्ध होनेवाले होनेके कारण पलब्धृधर्मत्वम् ।
उपलब्ध करनेवाले [आत्मा के
धर्म नहीं हो सकते। कापिलकाणादादितर्कशास्त्र- पूर्व-परन्तु ऐसा माननेसे तो विरोध इति चेत् ?
कपिल और कणाद आदिके तर्क
शास्त्रसे विरोध आता है। ना तेषां मूलाभावे वेद- सिद्धान्ती-ऐसा कहना ठीक विरोधे च भ्रान्तत्वोपपत्तेः । न होनेसे और वेदसे विरोध होनेसे
नहीं, क्योंकि उनका कोई आधार
भ्रान्तिमय होना उचित ही है। श्रुति श्रुत्युपपत्तिभ्यां च सिद्धमात्म- और युक्तिसे आत्माका असंसारित्व नोऽसंसारित्वमेकत्वाच्च
सिद्ध होता है तथा एक होनेके ।। कारण भी ऐसा ही जान पड़ता है।