Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 234
________________ अनु०१०] शाङ्करभाष्यार्थ २१९ इत्युपासीत । पर्येणं म्रियन्ते द्विषन्तः सपत्नाः। परि येऽप्रिया भ्रातृव्याः । स यश्चायं पुरुषे यश्वासावादित्ये । स एकः ॥ ४ ॥ अपने यहाँ रहने के लिये आये हुए किसीका भी परित्याग न करे । यह व्रत है । अतः किसी-न-किसी प्रकारसे बहुत-सा अन्न प्राप्त करे, क्योंकि वह ( अन्नोपासक ) उस (गृहागत अतिथि ) से 'मैंने अन्न तैयार किया है' ऐसा कहता है । जो पुरुप मुखतः (प्रथम अवस्थामें अथवा मुख्यवृत्तिसे यानी सत्कारपूर्वक ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मुख्यवृत्तिसे ही अन्नकी प्राप्ति होती है । जो मध्यतः (मध्यम आयुमें अथवा मध्यम वृत्तिसे) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मध्यम वृत्तिसे ही अन्नकी प्राप्ति होती है । तथा जो अन्ततः ( अन्तिम अवस्थामें अथवा निकृष्ट वृत्तिसे ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे निकृष्ट वृत्तिसे ही अन्न प्राप्त होता है |॥ १॥ जो इस प्रकार जानता है [ उसे पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है । अब आगे प्रकारान्तरसे ब्रह्मकी उपासनाका वर्णन किया जाता है- ब्रह्म वाणीमें क्षेम ( प्राप्त वस्तुके परिरक्षण ) रूपसे [ स्थित है-इस प्रकार उपासनीय है ], योग-क्षेमरूपसे प्राण और अपानमें, कर्मरूपसे हाथोंमें, गतिरूपसे चरणोंमें और त्यागरूपसे पायुमें [ उपासनीय है ] यह मनुष्यसम्बन्धिनी उपासना है। अब देवताओंसे सम्बन्धित उपासना कही जाती है-तृप्तिरूपसे वृष्टिमें, बलरूपसे विद्युत्में ॥२॥ यशरूपसे पशुओंमें, ज्योतिरूपसे नक्षत्रोंमें, पुत्रादि प्रजा, अमृतत्व और आनन्दरूपसे उपस्थमें तथा सर्वरूपसे आकाशमें [ ब्रह्मकी उपासना करे] । वह ब्रह्म सबका प्रतिष्ठा ( आधार ) है इस भावसे उसकी उपासना करे । इससे उपासक प्रतिष्ठावान् होता है । वह महः [नामक व्याहृति अथवा तेज] है-इस भावसे उसकी उपासना करे। इससे उपासक महान् होता है । वह मन है-इस प्रकार उपासना करे। इससे उपासक मानवान् ( मनन करनेमें समर्थ ) होता है ॥ ३॥ वह नमः है-इस

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