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अनु०८]
शाङ्करभाष्यार्थ
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वस्त्वन्तराभावाच । न च आत्मासे भिन्न अन्य वस्तुका
| अभाव होनेसे भी [ उसका किसीके स्वात्मन एव संक्रमणम् । न हि |
| प्रति जानारूप संक्रमण नहीं हो जलकात्मानमेव संक्रामति ।
सकता] । अपना अपनेको ही
प्राप्त होना तो सम्भव नहीं है। तस्मात्सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मति जोंक अपने प्रति हीसंक्रमण (गमन)
| नहीं करती। अतः 'ब्रह्म सत्यखरूप, यथोक्तलक्षणात्मप्रतिपत्यर्थमेव ।
| ज्ञानखरूप और अनन्त है' इस बहुभवनसर्गप्रवेशरसलाभाभय
पूर्वोक्त लक्षणवाले आत्माके ज्ञानके
लिये ही सम्पूर्ण व्यवहारके आधारसंक्रमणादि परिकल्प्यते ब्रह्माणि भूत ब्रह्ममें अनेक होना, सृष्टिमें सर्वव्यवहारविपये न तु परमार्थता अनुप्रवेश करना, आनन्दकी प्राप्ति,
पता अभय और संक्रमणादिकी कल्पना निर्विकल्पे ब्रह्मणि कश्चिदपि की गयी है; परमार्थतः तो निर्विकल्प
ब्रह्ममें कोई विकल्प होना सम्भव विकल्प उपपद्यते ।
है नहीं । तमेतं निर्विकल्पमात्मानमेवं- इस प्रकार क्रमशः उस इस क्रमणोपसंक्रम्य विदित्वा न | निर्विकल्प आत्माके प्रति उपसंक्रमण
| कर अर्थात् उसे जानकर साधक विभेति कुतश्चनाभयं प्रतिष्ठा किसीसे भयभीत नहीं होता। वह विन्दत इत्येतस्मिन्नर्थेऽप्येप श्लो- अभयस्थिति प्राप्त कर लेता है । इसो को भवति । सर्वस्यैवास्य प्रक- अर्थमें यह श्लोक भी है। इस
| सम्पूर्ण प्रकरणके अर्थात् आनन्दरणस्यानन्दवल्ल्यर्थस्य संक्षेपतः
वल्लीके अर्थको संक्षेपसे प्रकाशित प्रकाशनायैप मन्त्रो भवति ॥५॥ करनेके लिये ही यह मन्त्र है ॥५॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यामष्टमोऽनुवाकः ॥ ८॥