________________
२००
तैत्तिरीयोपनिषद्
[चल्लो २
परमात्मभावेनोमे पश्यतीत्यर्थः। है अर्थात इन दोनोंको परमात्मभाव
से देखता है [ उसे ये पाप-पुण्य उभे पुण्यपापे हि यस्सादेवमेप
सन्तप्त नहीं करते ] । क्योंकि ये विद्वानेते आत्मानमात्मरूपेणैव पाप-पुण्य दोनों ऐसे हैं [ अर्थात्
आत्मस्वरूप हैं ] अतः यह विद्वान् पुण्यपापे स्वेन विशेषरूपेण इस पाप-पुण्यल्प आत्माको आत्म
भावनासे ही अपने विशेषरूपसे शून्ये कृत्वात्मानं स्पृणुत एव ।
शून्य कर आत्माको ही तृप्त करता को य एवं वेद यथोक्तमद्वैत- ' है । वह विद्वान् कौन है ? जो इस
प्रकार जानता है अर्थात् पूर्वोक्त मानन्दं ब्रह्म वेद तस्यात्मभावेन अद्वैत एवं आनन्दत्वरूप ब्रह्मको
जानता है। उसके आत्मभावसे दृष्टे पुण्यपापे निर्वीर्य अतापके
पक देखे हुए पुण्य-पाप निर्वीर्य और जन्मान्तरारम्भके न भवतः। ताप पहुँचानेवाले न होनेसे
| जन्मान्तरके आरम्भक नहीं होते। इतीयमेवं यथोक्तास्यां वल्लयां इस प्रकार इस वल्लीमें, जैसी कि
ऊपर कही गयी है, यह ब्रह्मविद्याब्रह्मविद्योपनिपत्सर्वाभ्यो विद्या
रूप उपनिपद् है । अर्थात् इसमें भ्यः परमरहस्यं दर्शितमित्यर्थः।
अन्य सब विद्याओंको अपेक्षा परम
रहत्य प्रदर्शित किया गया है । इस परं श्रेयोऽस्यांनिपण्णमिति ॥१॥ विद्यामें ही परम श्रेय निहित है॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां नवमोऽनुवाकः ॥९॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्ये
ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता ।