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अनु० १]
शाङ्करभाष्यार्थ
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सावशेपोक्तः। अन्नादि ब्रह्मणः क्योंकि [ उसके पिताका ] कथन
सावशेप ( जिसमें कुछ कहना शेष प्रतिपत्तौ द्वारं लक्षणं च यतो रह गया हो-ऐसा ) था । वरुणने
'यतो वा इमानि भूतानि' इत्यादि वा इमानीत्याधुक्तवान् । सावशेष रूपसे अन्नादि ब्रह्मकी प्राप्तिका द्वार
और लक्षण कहा था । वह सावशेष हि तत्साक्षाह्मणोऽनिर्देशात् । ( असम्पूर्ण) था, क्योंकि उससे
ब्रह्मका साक्षात् निर्देश नहीं होता। अन्यथा हि खरूपेणैव ब्रह्म
। नहीं तो, उसे अपने जिज्ञासु निर्देष्टव्यं जिज्ञासवे पुत्रायेद
पुत्रके प्रति 'वह ब्रह्म ऐसा है' इस
प्रकार उसका खरूपसे ही निर्देश मित्थंरूपं ब्रह्मोति । न चैवं निर- करना चाहिये था। किन्तु इस दिशत्कि तर्हि ? सावशेषमेवोक्त-प्रकार उसने निर्देश किया नहीं है।
तो किस प्रकार किया है ? उसने वान् । अतोऽवगम्यते नूनं साध
| उसे सावशेप ही उपदेश किया है । नान्तरमप्यपेक्षते पिता ब्रह्म- इससे जाना जाता है कि उसके विज्ञानं प्रतीति । तपोविशेषप्रति- | पिताको अवश्य ही ब्रह्मज्ञानके प्रति
किसी अन्य साधनकी भी अपेक्षा पत्तिस्तु सर्वसाधकतमत्वात् । है। सबसे बड़ा साधन होनेके सर्वेषां हि नियतसाध्यविपयाणां | कारण भृगुने तपको ही विशेष
रूपसे ग्रहण किया । जिनके साध्य साधनानां तप एव साधकतमं
विपय नियत हैं उन साधनोंमें तप साधनमिति हि प्रसिद्धं लोके । ही सबसे अधिक सिद्धि प्राप्त कराने
वाला साधन है-यह बात लोकमें तसात्पित्रानुपदिष्टमपि ब्रह्म
प्रसिद्ध ही है। इसलिये पिताके विज्ञानसाधनत्वेन तपः प्रतिपेदे उपदेश न देनेपर भी भृगुने ब्रह्म
विज्ञानके साधनरूपसे तपको खीकार भृगुः । तच्च तपो वाह्यान्त:
किया। वह तप वाह्य इन्द्रिय करणसमाधानं तद्वारकत्वाइम- और अन्तःकरणका समाहित करना