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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
नित्यमविभक्तं पर से नसके उजाला पुरुष कोण
तस्य सर्वैपणाविनिर्मुक्तस्यात्मभृतं अकामहत और सब प्रकारको
एपणाओंसे मुक्त साधकके आत्मभूत, विपयविपयिसंवन्धविनिर्मुक्तं
विषय-विषयी सम्बन्धसे रहित, खाभाविकं नित्यमविभक्तं पर-खाभाविक, नित्य और अविभक्त मानन्दं ब्रह्मणो विद्वान्यथोक्तेन । ऐसे उसके उत्कृष्ट आनन्दको पूर्वोक्त विधिना न विभेति कुतश्चन | भयका निमित्त न रहनेके कारण निमित्ताभावात् । किसीसे भयभीत नहीं होता।
न हि तसाद्विदुपोऽन्यद्वस्त्व-! उस विद्वान्से भिन्न कोई दूसरी न्तरमस्ति भिन्नं यतो विभेति । वस्तु ही नहीं है जिससे कि उसे भय अविद्यया यदोदरमन्तरं कुरुते, अन्तर करता है तभी जीवको भय
हो । अविद्यावश जब थोड़ा-सा भी अथ तस्य भयं भवतीति खुक्तम्। होता है-ऐसा कहा ही गया है। विदुपश्चाविद्याकार्यस्य तैमिरिक- अतः तिमिररोगीके देखे हुए द्वितीय दृष्टद्वितीयचन्द्रवन्नाशाद्धयनिमि- चन्द्रमाके समान विद्वान्के अविद्यात्तस्य न विभेति कता के कार्यभूत भयके निमित्तका नाश
हो जानेके कारण वह किसीसे नहीं युज्यते।
डरता-ऐसा कहना ठीक ही है । मनोमये चोदाहतो मन्त्रो मनोमय कोशके प्रकरणमें यह मनसो ब्रह्मविज्ञानसाधनत्वात् ।
मन्त्र उदाहरणके लिये दिया गया
था, क्योंकि मन ब्रह्मविज्ञानका तत्र ब्रह्मत्वमध्यारोप्य तत्स्तु- | साधन है। उसमें ब्रह्मत्वका आरोप त्यर्थ न बिभेति कदाचनेति
करके उसकी स्तुतिके लिये ही वह
कभी नहीं डरता' इस वाक्यसे उसके भयमानं प्रतिपिद्धमिहाद्वैतविषये भयमात्रका प्रतिषेध किया गया था। न विभेति कुतश्चनेति भयनिमि
| यहाँ अद्वैतप्रकरणमें 'वह किसीसे
नहीं डरता, इस प्रकार भयके . त्तमेव प्रतिषिष्यते।
| निमित्तका ही प्रतिषेध किया जाता है।