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नक्ष्य अनुदाक
ब्रह्मानन्दका अनुभव करनेवाले विद्वान्की अभयप्राप्ति यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्रनेति । एतह वाव न तपति । किसह साधु नाकरवम् । किमहं पापमकरवमिति । स य एवं विद्वानेते आत्मानः स्पृणुते । उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते । य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ १ ॥
जहाँ मनके सहित चाणो उसे प्राप्त न करके लौट आती है उस ब्रह्मके आनन्दको जाननेवाला किसीसे भी भयभीत नहीं होता । उस विद्वान्को, मैंने शुभ क्यों नहीं किया, पापकर्म क्यों कर डाला - इस प्रकारको चिन्ता सन्तप्त नहीं करती । उन्हें [ ये पाप और पुण्य ही तापके कारण हैं - ] इस प्रकार जाननेवाला जो विद्वान् अपने आत्माको प्रसन्न अथवा सवल करता है उसे ये दोनों आत्मस्वरूप ही दिखायी देते हैं । [ वह कौन है ? ] जो इस प्रकार [ पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दखरूप ब्रह्मको ] जानता है । ऐसी यह उपनिषद् ( रहस्य - विद्या ) है |
यतो यस्मान्निर्विकल्पाद्यथोक्त
जिस पूर्वोक्त लक्षणोंवाले निर्विकल्प अद्वयानन्दरूप आत्माके लक्षणादद्वयानन्दादात्मनो वाचो- पाससे द्रव्यादि सविकल्प वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाला वाक्यऽभिधानानि द्रव्यादिसविकल्प- । अभिधान, जो वस्तुत्वमें [ ब्रह्मको