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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
विज्ञानम् । न तथेह ब्रह्मविज्ञानं का ही उपदेश किया जाता है ।
उसके समान इस प्रसङ्गमें ब्रह्मव्यतिरेकेण साधनान्तरविषय विज्ञानसे भिन्न किसी अन्य साधन
सम्बन्धी विज्ञानका उपदेश नहीं विज्ञानमुपदिश्यते।
किया जाता। उक्तकर्मादिसाधनापेक्षं ब्रह्म
यदि कहो कि [ पूर्वकाण्डमें ]
कहे हुए कर्मकी अपेक्षावाला ब्रह्मज्ञान विज्ञानं परमाप्तौ साधनसप- परमात्माकी प्राप्तिमें साधनरूपसे
उपदेश किया जाता है, तो ऐसी दिश्यत इति चेन्नः नित्य- बात भी नहीं है, क्योंकि मोक्ष
नित्य है-इत्यादि हेतुओंसे इसका त्वान्मोक्षस्येत्यादिना प्रत्युक्त- पहले ही निराकरण किया जा चुका त्वात् । श्रुतिश्च तत्सृश्ट्वा तदेवा- प्रविष्ट हो गया' यह श्रुति भी कार्य
है । 'उसे रचकर वह उसीमें अनुनुप्राविशदिति कार्यस्थस्य तदा- में स्थित आत्माका परमात्मत्व प्रदर्शित
| करती है। अभय-प्रतिष्टाकी उपपत्तिस्मत्वं दर्शयति । अभयप्रतिष्ठोप- के कारण भी [उनका अभेद ही पत्तेश्च । यदि हि विद्यावान्खा- भिन्न किसी औरको नहीं देखता
मानना चाहिये। यदि ज्ञानी अपनेसे मनोऽन्यन्न पश्यति ततोऽभ तो वह अभयस्थितिको प्राप्त कर
लेता है-ऐसा कहा जा सकता प्रतिष्ठां विन्दत इति स्याद्भयहेतोः है, क्योंकि उस अवस्थामें भयके
हेतुभूत अन्य पदार्थकी सत्ता नहीं परस्यान्यस्याभावात् । अन्यस्य रहती । अन्य पदार्थ [अर्थात्
द्वैत ] के अविद्याकृत होनेपर चाविद्याकृतत्वे विद्ययावस्तुत्व- ही विद्याके द्वारा उसके अवस्तुत्व
दर्शनकी उपपत्ति हो सकती दर्शनोपपत्तिस्तद्धि द्वितीयस्य है । [भ्रान्तिवश प्रतीत होनेवाले ]