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अनु० ८ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
त्मलाभः | सापेक्षस्यान्यस्य भय होगा तो उसके खरूपकी सिद्धि ही नहीं हो सकती । यदि कहो कि दूसरा ( ईश्वर ) तो [ हमारे हेतुत्वमिति चेन्न, तस्यापि तुल्य- | धर्माधर्म आदिकी ] अपेक्षासे ही
त्वात् । यदधर्माद्यनुसायीभृतं
भयका कारण है, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि वह [सापेक्ष ईश्वर ] भी वैसा ही है । जो कोई नित्यमनित्यं वा निमित्तमपेक्ष्या - अनित्य अधर्मादिरूप सहायक निमित्तईश्वरादि ] दूसरा पदार्थ नित्य या
[
की अपेक्षासे भयका कारण होता न्यद्भयकारणं स्यात्तस्यापि तथा है, यथार्थ होनेके कारण उसके स्वरूपका भी अभाव न होनेसे उसके भयकी निवृत्ति नहीं हो सकती;
भूतस्यात्महानाभावाद्भयानिवृत्तिः और यदि उसके स्वरूपका अभाव
माना जाय तो सत् और असत्को इतरेतरत्य [ अर्थात् सत्को असच्य और असत्को सत्त्व ] की प्राप्ति होनेसे कहीं विश्वास ही नहीं किया जा सकता ।
आत्महाने वा सदसतोरितरेत
रापत्ती सर्वत्रानाश्वास एव ।
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एकत्वपक्षे पुनः सनिमित्तस्य धानाधानयो- संसारस्य अविद्यानमस्त्रम् कल्पितत्वाददोपः ।
deforeटस्य हि द्वितीयचन्द्र
परन्तु एकत्व - पक्ष स्वीकार करनेपर तो सारा संसार अपने कारणके सहित अविद्याकल्पित होने के कारण कोई दोप ही नहीं आता । तिमिर रोगके कारण देखे गये द्वितीय चन्द्रमाके खरूपकी न तो प्राप्ति ही होती है और न नाश हो । यदि स्य नात्मलाभो नाशो वास्ति । कहो कि ज्ञान और अज्ञान तो आत्मा ही धर्म हैं [ इसलिये उनके विद्याविद्ययोस्तद्धर्मत्वमिति चेन्न कारण आत्माका विकार होता होगा ] तो ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि प्रत्यक्षत्वात् । विवेकाविवेकौ | वे तो प्रत्यक्ष ( आत्मा के दृश्य.) हैं।