Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 197
________________ १८२ तैत्तिरीयोपनिषद् [वल्ली २ विशेपोपमर्दैन परमानन्दमपेक्ष्य द्वारा परमानन्दकी अपेक्षा उसके तुल्य ही सिद्ध होता है तो उस समो भवति न कश्चिदुत्कर्पोऽप गतिको प्राप्त हुए पुरुषका कोई कर्पो वा तां गतिं गतस्येत्यभयं उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं रहता और प्रतिष्ठां विन्दत इत्युपपन्नम्। ' वह निर्भय स्थितिको प्राप्त कर लेता है; अतः यह कथन उचित ही है। अस्ति नास्तीत्यनुप्रश्नो व्या- ब्रह्म है या नहीं इस अनुप्रइनकी द्वितीयानुप्रश्न- ख्यातः । कार्यरस - व्याख्या कर दी गयी। कार्यरूप - रसकी प्राप्ति, प्राणन, अभय-प्रतिष्टा विचारः लाभप्राणनाभयप्र- ' और भयदर्शन आदि युक्तियास वह तिष्ठाभयदर्शनोपपत्तिभ्योऽस्त्येव आकाशादिका कारणरूप ब्रह्म है ही-इस प्रकार एक अनुप्रश्नका तदाकाशादिकारणं ब्रह्मेत्यपा-! निराकरण किया गया। दूसरे दो कृतोऽनुप्रश्न एकः । द्वावन्याव- अनुप्रश्न विद्वान् और अविद्वान्की नुप्रश्नौ विद्वदलियो ब्रह्मप्राप्ति और ब्रह्मकी अप्राप्तिके विषयमें हैं। उनमें अन्तिम अनुप्रश्न प्राप्तिविषयौ तत्र विद्वान्समक्षुते | यही है कि विद्वान् ब्रह्मको प्राप्त न समश्नुत इत्यनुप्रश्नोऽन्त्यस्त | होता है या नहीं ?' उसका निरा करण करनेके लिये कहा जाता है। दपाकरणायोच्यते । मध्यमोऽनु- मध्यम अनुप्रश्नका निराकरण तो प्रश्नोऽन्त्यापाकरणादेवापाकृत अन्तिमके निराकरणसे ही हो जायगा; इसलिये उसके निराकरणका इति तदपाकरणाय न यत्यते । यत्न नहीं किया जाता। स यः कश्चिदेवं यथोक्तं ब्रह्म इस प्रकार जो कोई उत्कर्प और उत्सृज्योत्कर्षापकर्षमद्वैतं सत्यं | अपकर्पको त्यागकर 'मैं ही उपर्युक्त सत्य ज्ञान और अनन्तरूप अद्वैत ब्रह्म ज्ञानमनन्तमसीत्येवं वेत्ती-हूँ' ऐसा जानता है वह एवंवित्

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