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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
विशेपोपमर्दैन परमानन्दमपेक्ष्य द्वारा परमानन्दकी अपेक्षा उसके
तुल्य ही सिद्ध होता है तो उस समो भवति न कश्चिदुत्कर्पोऽप
गतिको प्राप्त हुए पुरुषका कोई कर्पो वा तां गतिं गतस्येत्यभयं उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं रहता और प्रतिष्ठां विन्दत इत्युपपन्नम्। '
वह निर्भय स्थितिको प्राप्त कर लेता
है; अतः यह कथन उचित ही है। अस्ति नास्तीत्यनुप्रश्नो व्या- ब्रह्म है या नहीं इस अनुप्रइनकी द्वितीयानुप्रश्न- ख्यातः । कार्यरस
- व्याख्या कर दी गयी। कार्यरूप
- रसकी प्राप्ति, प्राणन, अभय-प्रतिष्टा विचारः लाभप्राणनाभयप्र- ' और भयदर्शन आदि युक्तियास वह तिष्ठाभयदर्शनोपपत्तिभ्योऽस्त्येव आकाशादिका कारणरूप ब्रह्म है
ही-इस प्रकार एक अनुप्रश्नका तदाकाशादिकारणं ब्रह्मेत्यपा-!
निराकरण किया गया। दूसरे दो कृतोऽनुप्रश्न एकः । द्वावन्याव- अनुप्रश्न विद्वान् और अविद्वान्की नुप्रश्नौ विद्वदलियो ब्रह्मप्राप्ति और ब्रह्मकी अप्राप्तिके
विषयमें हैं। उनमें अन्तिम अनुप्रश्न प्राप्तिविषयौ तत्र विद्वान्समक्षुते | यही है कि विद्वान् ब्रह्मको प्राप्त न समश्नुत इत्यनुप्रश्नोऽन्त्यस्त
| होता है या नहीं ?' उसका निरा
करण करनेके लिये कहा जाता है। दपाकरणायोच्यते । मध्यमोऽनु- मध्यम अनुप्रश्नका निराकरण तो प्रश्नोऽन्त्यापाकरणादेवापाकृत
अन्तिमके निराकरणसे ही हो
जायगा; इसलिये उसके निराकरणका इति तदपाकरणाय न यत्यते । यत्न नहीं किया जाता।
स यः कश्चिदेवं यथोक्तं ब्रह्म इस प्रकार जो कोई उत्कर्प और उत्सृज्योत्कर्षापकर्षमद्वैतं सत्यं
| अपकर्पको त्यागकर 'मैं ही उपर्युक्त
सत्य ज्ञान और अनन्तरूप अद्वैत ब्रह्म ज्ञानमनन्तमसीत्येवं वेत्ती-हूँ' ऐसा जानता है वह एवंवित्