Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

View full book text
Previous | Next

Page 199
________________ १८४ तैत्तिरीयोपनिषद् [वल्ली २ किं ततः ? । पूर्व ०-इस विचारसे लाभ क्या है ? यद्यन्यः स्याञ्छृतिविरोधः ।' सिद्धान्ती-यदि वह उससे भिन्न "तत्सृष्ट्वा तदेवानुनाविशत" है तो “उसे रचकर उसी अनुप्रविष्ट (तै० उ०२।६।१)"अ- हो गया" "यह अन्य है और मैं न्योऽसावन्योऽहमस्मीति । न सक अन्य है-इस प्रकार जो कहता है वह नहीं जानता" "एक ही वेद" (वृ० उ० १ । ४।१०) अद्वितीय" "तु वह है" इत्यादि "एकमेवाद्वितीयस्" (छा० उ०1. श्रुतियोंसे विरोध होगा। और यदि ६।२ । १) "तत्वमसि' वह स्वयं हो आनन्दमय आत्माको (छा० उ०६१८-१६) इति। प्राप्त होता है तो उस [ एक ही ] अथ स एव, आनन्दमयमात्मानम में कर्म और कर्तापन दोनोंका होना पसंक्रामतीति कर्मकर्तृत्वानुप- ' असम्भव है, तथा परमात्माको ही पत्तिः, परस्यैव च संसारित्वं संसारित्वकी प्राप्ति अथवा उसके पराभावो वा। परमात्मत्यका अभाव सिद्ध होता है। यधुभयथा प्राप्तो दोपो न पूर्व०-यदि दोनों ही अवस्थाओं | में प्राप्त होनेवाले दोपका परिहार पारहत शक्यत इति व्यथा नहीं किया जा सकता तो उसका चिन्ता । अथान्यतरसिपक्षे विचार करना व्यर्थ है और यदि | किसी एक पक्षको स्वीकार कर लेनेसे दोपाप्राप्तिस्तृतीये वा पक्षेऽदष्टे दोपकी प्राप्ति नहीं होती अथवा कोई तीसरा निर्दोष पक्ष हो तो उसे स एव शास्त्रार्थ इति व्यथैव ही शास्त्रका आशय समझना चाहिये। चिन्ता। | ऐसो अवस्थामें भी विचार करना | व्यर्थ ही होगा। न तनिर्धारणार्थत्वात् । सत्यं सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि यह . उसका निश्चय करनेके लिये है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255