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तैत्तिरीयोपनिषद्
[.वल्ली २
व्यक्तिः । एवं पूर्वसाः पूर्वस्या अभिव्यक्ति होती है । इस प्रकार भूमेरुत्तरस्यामुत्तरस्यां भ्रमौ पूर्व-पूर्व भूमिको अपेक्षा आगे-आगे
की भूमिमें प्रसादको विशेषता होनेप्रसादविशेषतः शतगुणेनानन्दो- मोमोगाने
| से सौ-सौ गुने आनन्दका उत्कर्ष स्कर्ष उपपद्यते ।
होना सम्भव ही है। प्रथमं त्वकामहताग्रहणं मनु- [ आगेके सब वाक्योंके साथ
रहनेवाला ] 'श्रोत्रियस्य चाकामह
तस्य' यह वाक्य पहले [मानुप प्यविषयमोगकामानमिहतस्य
आनन्दके साथ ] इसलिये ग्रहण
नहीं किया गया कि विषय-भोग श्रोत्रियस्य मनुष्यानन्दाच्छत- और कामनाओंसे व्याकुल न रहने
वाले श्रोत्रियके आनन्दका उत्कर्ष गुणेनानन्दोत्कर्षो मनुष्यगन्धर्वेण मानुप आनन्दकी अपेक्षा सौ गुना
अर्थात् मनुष्यगन्धर्वके आनन्दके . तुल्यो वक्तव्य इत्येवमर्थम् । तुल्य वतलाना है । श्रुतिमें 'साधु
युवा' और 'अध्यायक' ये दो विशेषण साधुयुवाध्यायक इति श्रोत्रिय
| [ सार्वभौम राजाका ] श्रोत्रियत्व
और निष्पापत्व प्रदर्शित करनेके
लिये ग्रहण किये जाते हैं। इन्हें स्वाजिनत्वे गृह्यते । ते ह्यर्वि-आगे भी सबके साथ समान भावसे
समझना चाहिये । विषयके उत्कर्ष शिष्टे सर्वत्र । अकामहतत्वं तु और अपकर्पसे सुखका भी उत्कर्ष
और अपकर्ष होता है [किन्तु. विषयोत्कर्षापकर्पतः सुखोत्कर्षा- कामनारहित पुरुपके लिये सुखका
| उत्कर्ष या अपकर्प हुआ नहीं.
करता] इसीलिये अकामहतत्वकी पकपोय विशेष्यते । अताकाम- विशेषता है। और इसीसे
'अकामहत' पद ग्रहण किया गया हतग्रहणम्, तद्विशेषतः शतगुण-1 है । अतः उससे विशिष्ट पुरुषके.