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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० २ ]
परिकल्प्यते वचनात् । सर्वत्र वचनादेव पक्षादिकल्पना । व्यानो व्यानवृत्तिर्दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा । य आकाशस्थो वृत्ति - विशेषः समानाख्यः स आत्मेवा
त्मा;
प्राणवृत्त्यधिकारात् । मध्यस्थत्वादितराः पर्यन्ता वृत्तीरपेक्ष्यात्मा | “मध्यं ह्येषामङ्गा - नामात्मा" इति श्रुतिप्रसिद्धं मध्यमस्थस्यात्मत्वम् ।
पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । पृथिवीति पृथिवीदेवताध्यात्मिकस्य प्राणस्य धारयित्री स्थितिहेतुत्वात् । " सैपा पुरुपस्थापानमवष्टभ्य” (बृ० उ० ३ । ८) इति हि श्रुत्यन्तरम् । अन्यथोदानवृच्योर्ध्वगमनं गुरुत्वाच्च पतनं वा स्याच्छरीरस्य । तस्मात्पृथिवी देवता पुच्छं प्रतिष्ठा प्राणमयस्यात्मनः । तत्तस्मिन्नेवार्थे प्राणमयात्मविषय एप श्लोको भवति ॥१॥
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कल्पना किया जाता है। इसके सिवा आगे भी श्रुतिके वचनानुसार है । व्यान अर्थात् व्यान नामकी ही पक्ष आदिकी कल्पना की गयी वृत्ति दक्षिण पक्ष है, अपान उत्तर पक्ष है, आकाश आत्मा है । यहाँ प्राण-वृत्तिका अधिकार होनेके कारण [ 'आकाश' शब्दसे ] आकाशमें स्थित जो समानसंज्ञक प्राणकी वृत्ति है वही आत्मा है। अपने आसपासकी अन्य सव वृत्तियों की अपेक्षा मध्यवर्तिनी होने के कारण वह आत्मा है । "इन अंगोंका मध्य आत्मा है" इस श्रुति से मध्यवर्ती अंगका आत्मत्व प्रसिद्ध ही है ।
पृथिवी पुच्छ-प्रतिष्ठा है । 'पृथिवी' इस शब्द से पृथिवीकी अधिष्ठात्री देवी समझनी चाहिये, क्योंकि स्थितिकी हेतुभूत होनेसे वही आध्यात्मिक प्राणको भी धारण करनेवाली है । इस विपयमें "वह पृथिवी-देवता पुरुपके अपानको आश्रय करके" इत्यादि एक दूसरी श्रुति भी है । अन्यथा प्राणकी उदानवृत्तिसे या तो शरीर ऊपरको उड़ जाता अथवा गुरुतावश गिर पड़ता । अतः पृथिवी-देवता ही प्राणमय शरीरकी पुच्छ-प्रतिष्ठा है । उसी अर्थ में अर्थात् प्राणमय आत्माके विपयमें ही यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाकः ॥ २ ॥
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