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अनु०७]
. शाङ्करभाष्यार्थ
कार्यकरणग्राणनादिचेष्टास्तस्कृत और इन्द्रियकी प्राणन आदि चेष्टाएँ एव चानन्दो लोकस्य । हो रही हैं, और उसीका किया हुआ
. लोकका आनन्द भी है। . कुतः ? एप ह्येव पर आत्मा ऐसा क्यों है ? क्योंकि यह आनन्दयात्यानन्दयति सुखयति
| परमात्मा ही लोकको उसके धर्मालोकं धर्मानुरूपम् । स एवात्मा
नुसार आनन्दित-सुखी करता है।
| तात्पर्य यह है कि वह आनन्दरूप नन्दरूपोऽविद्यया परिच्छिन्नो आत्मा ही प्राणियोंद्वारा अविद्यासे विभाज्यते प्राणिभिरित्यर्थः । परिच्छिन्न भावना किया जाता है। भयाभयहेतुत्वाद्विद्वदविदुपोरस्ति
अविद्वान्के भय और विद्वान्के
अभयका कारण होनेसे भी ब्रह्म है, तद्रह्म ! सद्वस्त्वाश्रयणेन ह्यभय क्योंकि किसी सत्य पदार्थके आश्रयसे भवति । नासद्वस्त्वाश्रयणेन ही अभय हुआ करता है, असद्वस्तुके
आश्रयसे भयकी निवृत्ति होनी सम्भव भयनिवृत्तिरुपपद्यते ।
नहीं है। कथमभयहेतुत्वमित्युच्यते-- ब्रह्मका अभयहेतुत्व किस प्रकार ब्रह्माणोऽभय- यदा ह्येव यस्मादेप |
है, सो वतलाया जाता है क्योंकि
जिस समय भी यह साधक इस हेतुत्वम् साधक एतस्मिन्त्र- ब्रह्ममें [प्रतिष्ठा-स्थिति अर्थात् मणि किंविशिष्टेऽदृश्ये दृश्यं नाम | आत्मभाव प्राप्त कर लेता है।]
किन विशेषणोंसे युक्त ब्रह्ममें ? द्रष्टव्यं विकारो दर्शनार्थत्वाद्वि- अदृश्यमें-दृश्य देखे जानेवाले अर्थात्
विकारका नाम है क्योंकि विकार कारस्य । न दृश्यमदृश्यमविकार देखे जानेके ही लिये है; जो दृश्य न
हो उसे अदृश्य अर्थात् अविकार इत्यर्थः। एतस्मिन्नदृश्येऽविकारें
कहते हैं। इस अदृश्य-अविकारी विषयभूते. अनात्म्येऽशरीरे ।
अर्थात् अविषयभूत, अनात्म्य-अ
शरीरमें । क्योंकि वह अदृश्य. है यस्माददृश्यं तस्मादनात्म्यं इसलिये अशरीर भी है और क्योंकि