________________
तैत्तिरीयोपनिपद्
१५४
[वल्ली २
न बहिष्ठस्य प्रवेशोपपत्तेन | सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेश
बाहर रहनेवाले पदार्थका ही हो हि यो यस्यान्तास्थः स एव सकता है । जो जिसके भीतर
स्थित है वह उसमें प्रविष्ट हुआ तत्प्रविष्ट उच्यते । बहि ठस्यानु
13 | नहीं कहा जाता । अनुप्रवेश प्रवेशः स्यात्प्रवेशशब्दार्थस्यैवं तो वाहर रहनेवाले पदार्थका ही
हो सकता है, क्योंकि 'प्रवेश दृष्टत्वात् । यथा गृहं कृत्वा शब्दका अर्थ ऐसा ही देखा गया
है। जैसे कि 'घर बनाकर उसमें प्राविशदिति ।
प्रवेश किया' इस वाक्यमें । जलसूर्यकादिप्रतिविम्बवत्प्र- यदि कहो कि जलमें सूर्यके वेशः स्यादिति चेन्न, अपरिच्छि
- प्रतिविम्ब आदिके समान उसका
प्रवेश हो सकता है, तो ऐसा नत्वादमूर्तत्वाच । परिच्छिन्नस्य कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म मूर्तस्यान्यस्यान्यत्र प्रसादस्व
अपरिच्छिन्न और अमूर्त है। परि
च्छिन्न और मूर्तरूप अन्य पदार्थोका भावके जलादौ सूर्यकादिप्रतिवि- ही स्वच्छस्वभाव जल आदि अन्य म्बोदयः स्यात् । न त्वात्मनः | पदार्थाम सूर्यकादिरूप प्रतिविम्ब
पड़ा करता है; किन्तु आत्माका अमूर्तत्वादाकाशादिकारणस्या- प्रतिविम्व नहीं पड़ सकता, क्योंकि त्मनो व्यापकत्वात् । तद्विप्रकृष्ट
वह अमूर्त है तथा आकाशादिका
कारणरूप आत्मा व्यापक भी है। देशप्रतिविम्बाधारवस्त्वन्तराभा- | उससे दूर देशमें स्थित प्रतिविम्बकी वाञ्च प्रतिविम्ववत्प्रवेशो न
आधारभूत अन्य वस्तुका अभाव
होनेसे भी उसका प्रतिविम्बके समान युक्तः।
प्रवेश होना सम्भव नहीं है। एवं तर्हि नैवास्ति प्रवेशो न पूर्व-तब तो आत्माका प्रवेश
होता ही नहीं-इसके सिवा च गत्यन्तरमुपलभामहे 'तदे- 'तदेवानुप्राविशत्' इस श्रुतिकी और