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[ चली २
शंका- मन्त्र के अक्षरोंको विषय करनेवाली स्मृति की आवृत्ति होनेसे । मन्त्रकी भी आवृत्ति हो सकती हैयदि ऐसा मानें तो ?
नः मुख्यार्थासंभवात् । "त्रिः
प्रथमामन्वाह विरुत्तमाम्" इति
ऋगावृत्तिः श्रूयते । तनच
ऽविपयत्वे तद्विषयस्मृत्याचच्या
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मन्त्रावृत्तौ च क्रियमाणायाम्
समाधान- नहीं क्योंकि [ ऐसा मानने का विधान करनेवाली श्रुतिका ] मुख्य अर्थ असम्भव हो नायगा । "तीन बार प्रथम ऋक्की आधुनि करनी चाहिये और तीन बार अन्तिम ऋकूका अन्याख्यान ( आवर्तन) करें" इस प्रकार छक्को आवृमिके विषय में श्रुतिकी आज्ञा है । ऐसी अवस्सा में मन्त्रमय ऋक् तो "त्रिः प्रथमामन्वाह" इति ऋगा- ' मनका विषय नहीं है, अतः मन्त्रकी वृत्तिर्मुख्योऽर्थथोदितः परित्यका स्मृतिका ही आवर्तन किया जाय • आवृत्ति स्थानमें यदि केवल उसकी स्यात् । तस्मान्सनोट्टत्युपाधि- तो “तीन बार प्रथम ऋक्की ! आवृत्ति करनी चाहिये" इस श्रुतिका परिच्छिन्नं मनोवृत्तिविष्ठमात्म- ! मुख्य अर्थ छूट जाता है । अतः यह चैतन्यमनादिनिधनं यजुः शब्द- उपाधिसे परिच्छिन्न मनोवृत्तिस्थित समझना चाहिये कि मनोवृत्तिरूप वाच्यमात्मविज्ञानं मन्त्रा इति । जो अनादि-अनन्त आत्मचैतन्य 'यजुः ' शब्दवाच्य आत्मविज्ञान हैएवं च नित्यत्वोपपत्तिर्वेदानाम् । । यह यजुर्मन्त्र हैं । इसी प्रकार वेदोंकी नित्यता भी सिद्ध हो सकती अन्यथा विषयत्वे रूपादि - | है नहीं तो इन्द्रियोंके विषय होनेबदनित्यत्वं च स्यान्नैतद्यु- अनित्यता ही सिद्ध होगी; और ऐसा पर तो रूपादिके समान उनको भी क्तम् । “सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्ति | होना ठीक नहीं है । "जिसमें समस्त
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तैत्तिरीयोपनिषद्
अक्षरविपयस्मृत्यावृत्त्या
मन्त्रावृत्तिः स्यादिति चेत् ।
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