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RATPOR
पञ्चम अनुवाक
विज्ञानकी महिमा तथा आनन्दमय कोशका वर्णनं
विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । । । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चे.. | तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति । शरीरे पाप्मनो हित्वा । सर्वान्कामान्समश्नुत इति । तस्यैप एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः । तेनैप पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः । मोढ़ो दक्षिणः पक्षः । प्रमोद उत्तरः पक्षः | आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १ ॥
विज्ञान ( विज्ञानवान् पुरुष ) यज्ञका विस्तार करता है और वही कर्मोका भी विस्तार करता है । सम्पूर्ण देव ज्येष्ठ विज्ञान - ब्रह्मको उपासना करते हैं । यदि साधक 'विज्ञान ब्रह्म है' ऐसा जान जाय और फिर उससे प्रमाद न करे तो अपने शरीरके सारे पापोंको त्यागकर वह समस्त कामनाओं (भोगों) को पूर्णतया प्राप्त कर लेता है । यह जो विज्ञानमय है वही उस अपने पूर्ववर्ती मनोमय शरीरका आत्मा है । उस इस विज्ञानमयसे दूसरा इसका अन्तर्वर्ती आत्मा आनन्दमय है । उस आनन्दमयके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह आनन्दमय भी पुरुषाकार ही है | उस ( विज्ञानमय ) की पुरुषाकारताके समान ही यह पुरुषाकार है । उसका प्रिय ही शिर है, मोद दक्षिण पक्ष है, प्रमोद उत्तर पक्ष है, आनन्द आत्मा है और ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥
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