________________
१३६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २ ।
थावधान होता है ।
च निर्मलत्वमापद्यते यावद्याव- जितना-जितना निर्मलताको प्राप्त त्तावत्तावद्विविक्ते प्रसन्नेऽन्तः- होता है उतने-उतने हो खच्छ और करण आगो
प्रसन्न हुए उस अन्तःकरणमें विशेष
आनन्दका उत्कर्ष होता है अर्थात् विपुलीभवति । वक्ष्यति च- वह बहुत बढ़ जाता है। यही बात "रसो वै सः । रस ह्येवायं "वह रस ही है, इस रसको पाकर लब्ध्वानन्दी भवति एप होवान- ही पुरुष आनन्दी हो जाता है।
यह रस ही सबको आनन्दित करता न्दयाति' (तै० उ० २१७१
है ।" इस प्रकार आगे कहेंगे, १) "एतस्यैवानन्दस्यान्यानि तथा "इस आनन्दके अंशमात्रके भूतानि मात्रामुपजीवन्ति (वृ० आश्रय ही सब प्राणी जीवित रहते उ० ४।३ । ३२) इति च है" इस अन्य श्रुतिसे भी यही बात
| सिद्ध होती है। इसी प्रकार कामश्रुत्यन्तरात् । एवं च कामोप-शान्तिके उत्कर्षकी अपेक्षा आगेशमोत्कर्षापेक्षया शतगुणोत्तरो- आगेके आनन्दका सौ-सौ गुना त्तरोत्कर्ष आनन्दस्य वक्ष्यते । उत्कर्ष आगे बतलाया जायगा ।
एवं चोत्कृष्यमाणसानन्द- इस प्रकार परमार्य ब्रह्मके विज्ञानमयस्यात्मनः परमार्थब्रह्माविज्ञाना
की अपेक्षासे क्रमशः उत्कर्पको प्राप्त
होनेवाले आनन्दमय आत्माकी पेक्षया ब्रह्म परमेव । यत्प्रकृतं अपेक्षा ब्रह्म पर ही है। जो प्रकृत सत्यज्ञानानन्तलक्षणम्, यस
ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्तरूप है,
जिसकी प्राप्तिके लिये अन्नमय आदि च प्रतिपत्त्यर्थं पञ्चान्नादिमयाः पाँच कोशोंका उपन्यास किया गया कोशा उपन्यस्ताः, यच तेभ्य | है, जो उन सबकी अपेक्षा अन्तर्वर्ती
। है और जिसके द्वारा वे सत्र आभ्यन्तरम् , येन च ते सर्व
' आत्मवान् हैं—वह ब्रह्म ही उस आत्मवन्तः, तब्रह्म पुच्छंप्रतिष्ठा । आनन्दमयको पुच्छ-प्रतिष्ठा है ।