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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
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धानतया नास्तित्वं प्रतिपद्यते- असत्त्व प्रतिपादन करता है, ब्रह्मप्रतिपत्त्यर्थत्वात्तस्य । अतो क्योंकि वह भी ब्रह्मकी प्राप्तिके ही
लिये है । अतः वह नास्तिक लोकमें नास्तिकः सोऽसन्नसाधुरुच्यते
असत्-असाधु कहा जाता है। लोके । तद्विपरीतः सन्योऽस्ति | इसके विपरीत जो पुरुष 'ब्रह्म है' ब्रह्मति चेद्वेद स तद्ब्रह्मप्रतिपत्ति- एसा जानता है वह सत्' है।
| क्योंकि वह उस ब्रह्मकी प्राप्तिके हेतुं सन्मार्ग वर्णाश्रमादिव्यव
| हेतुभूत वर्णाश्रमादिके व्यवस्थारूप स्थालक्षणं श्रद्दधानतयां यथा- | सन्मार्गको श्रद्धापूर्वक ठीक-ठीक वत्प्रतिपद्यते यसात्ततस्तस्मात् जानता है । इसीलिये साधुलोग उसे सन्तं साधुमार्गस्थमेनं विदुः |
| सत् यानी शुभ मार्गमें स्थित जानते
हैं । अतः 'ब्रह्म है' ऐसा ही साधवः तस्मादस्तीत्येव ब्रह्म
| जानना चाहिये यह इस वाक्यका प्रतिपत्तव्यमिति वाक्यार्थः। अर्थ है। तस्य पूर्वस्य विज्ञानमयस्यैप उस विज्ञानमयका यही शारीर
विज्ञानमय शरीरमें रहनेवाला आत्मा एव शरीरे विज्ञानमये भवः ।।
| | है । वह कौन ? यह जो आनन्दमय शारीर आत्मा। कोऽसौ ? य एप है । उसके नास्तित्वमें तो कुछ भी आनन्दमयः । तं प्रति नास्त्या
शंका नहीं है । किन्तु ब्रह्म सम्पूर्ण
विशेषणोंसे रहित है इसलिये उसके शङ्का नास्तित्वे । अपोढसर्व
| अस्तित्वके अभावमें शंका - होना विशेपत्वात्तु ब्रह्मणो नास्तित्वं | उचित ही है । इसके सिवा ब्रह्मकी
सबके साथ समानता होनेके कारण प्रत्याशङ्का युक्ता । सर्वसामा
भी [ऐसी शंका हो ही सकती है। न्याच्च ब्रह्मणः । यस्सादेवमतः क्योंकि ऐसी बात है इसलिये अबतस्मात, अथानन्तरं श्रोतुः | इसके अनन्तर श्रवण करनेवाले
शिष्यके अनुप्रश्न हैं । आचार्यकी शिष्यसामना आचायातमनु | इस उक्तिके पश्चात् किये जानेवाले एते प्रश्ना अनुप्रश्नाः। । ये प्रश्न अनुप्रश्न हैं
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