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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
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मयो विज्ञानमयाश्रितः स्वम उप-/ हुआ यह आनन्दमय स्वप्नावस्थामें
विज्ञानमयके अधीन ही उपलब्ध लभ्यते।
होता है। तस्यानन्दमयस्यात्मन इष्ट- उस आनन्दमय आत्माका पुत्रादि आनन्दमयस्य पुत्रादिदर्शनजप्रियं इष्ट पदार्थोके दर्शनसे होनेवाला पुरुषविधत्वन् शिर व शिरः प्रिय ही प्रधानताके कारण शिरके
| समान शिर है। प्रिय पदार्थकी प्राधान्यात् । मोद इति प्रिय
प्रय प्राप्तिसे होनेवाला हर्प 'मोद' लाभनिमित्तो हर्पः । स एव च कहलाता है; वही हर्प प्रकृष्ट प्रकृष्टो हर्पः प्रमोदः । आनन्द ( अतिशय ) होनेपर 'प्रमोद' कहा
जाता है । 'आनन्द' सामान्य इति सुखसामान्यमात्मा प्रिया
सुखका नाम है; वह सुखके दीनां सुखावयवानाम् । तेष्वनु-अवयवभूत प्रिय आदिका आत्मा है, स्यूतत्वात् ।
क्योंकि उसीमें वे सब अनुस्यूत हैं । __ आनन्द इति परं ब्रह्म । तद्धि 'आनन्द' यह परब्रह्मका ही शुभकर्मणा प्रत्युपस्थाप्यमाने
| वाचक है । वही शुभकर्मद्वारा
प्रस्तुत किये हुए पुत्र-मित्रादि विशेष पुत्रमित्रादिविपयविशेपोषाधाव- विपय ही जिसकी उपाधि हैं उस न्तःकरणवृत्तिविशेपे तमसा प्र- | सुप्रसन्न अन्तःकरणकी वृत्तिविशेप
में, जब कि वह तमोगुणसे आच्छादित च्छाधमाने प्रसन्नेऽभिव्यज्यते । नहीं होता, अभिव्यक्त होता है। तद्विपयसुखमिति प्रसिद्धं लोके ।। वह लोकमें विषय-सुख नामसे प्रसिद्ध
है । उस वृत्तिविशेपको प्रस्तुत तवृत्तिविशेषप्रत्युपस्थापकस्य क
करनेवाले कर्मके अस्थिर होनेके मणोऽनवस्थितत्वात्सुखस्य क्षणि- कारण उस सुखकी भी क्षणिकता
है। अतः जिस समय अन्तःकरण कत्वम् । तद्यदान्तःकरणं तपसा तमोगुणको नष्ट करनेवाले तप, तमोनेन विद्ययाब्रह्मचर्येण श्रद्धया उपासना, ब्रह्मचर्य और श्रद्धाके द्वारा