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अनु० ४]
शाङ्करभाष्यार्थ
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शरीरे प्राणमये भवः शारीरः। अर्थात् प्राणमय शरीरमें रहनेवाला
| आत्मा है । कौन ? यह जो मनोमय का? य एप मनोमयः। तसाद्वा है । 'तस्माद्वा एतस्मात्' इत्यादि एतस्मादित्यादि पूर्ववत् । अ
| वाक्यका अर्थ पूर्ववत् समझना
चाहिये । उस इस मनोमयसे दूसरा न्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयो इसका अन्तर आत्मा विज्ञानमय है
अर्थात् मनोमय कोशके भीतर मनोमयस्याभ्यन्तरो विज्ञानमय
विज्ञानमय कोश है। मनोमयो वेदात्मोक्तः। - मनोमय कोश वेदरूप बतलाया दार्थविषया बुद्धिनिश्चयात्मिका
गया था। वेदोंके अर्थक विषयमें
जो निश्चयात्मिका बुद्धि है उसीका विज्ञानं तच्चाध्यवसायलक्षणम- नाम विज्ञान है । और वह अन्त:न्तस्करणस्य धर्मः । तन्मयो
करणका अध्यबसायरूप धर्म है।
| तन्मय अर्थात् प्रमाणखरूप निश्चय निश्चयविज्ञानैः प्रमाणवरूपैनि- विज्ञानसे (निश्चयात्मिका बुद्धिसे) वर्तित आत्मा विज्ञानमयः । निष्पन्न होनेवाला आत्मा विज्ञानमय
| है, क्योंकि प्रमाणके विज्ञानपूर्वक प्रमाणविज्ञानपूर्वको हि यज्ञादि- ही यज्ञादिका विस्तार किया जाता स्तायते । यज्ञादिहेतुत्वं च है । विज्ञान यज्ञादिका हेतु है
| यह बात श्रुति आगे चलकर मन्त्रवक्ष्यति श्लोकेन ।
द्वारा बतलायेगी। निश्चयविज्ञानवतो हि कर्तव्ये- निश्चयात्मिका बुद्धिसम्पन्न पुरुष
| को सबसे पहले कर्त्तव्य कर्ममें श्रद्धा वर्थेषु पूर्व श्रद्धोत्पद्यते । सा ही उत्पन्न होती है । अतः सम्पूर्ण
कमोंमें प्रथम होनेके कारण वह सर्वकर्तव्यानां प्राथम्याच्छिर इव शिरके समान उस विज्ञानमयका
शिर है । ऋत और सत्यका अर्थ शिरः । ऋतसत्ये यथाव्या पहले (शीक्षावल्ली नवम अनुवाकम) ख्याते एव । योगो युक्तिः । की हुई व्याख्याके ही समान है।