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चतुर्थ अनुवाक
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मनोमय कोशकी महिमा तथा विज्ञानमय कोशका वर्णन यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न विभेति कदाचनेति । तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयस्तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुपविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य श्रद्धैव शिरः । ऋतं दक्षिणः पक्षः । सत्यमुत्तरः पक्षः । योग आत्मा । महः पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १ ॥
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जहाँ से मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रह्मानन्दको जाननेवाला पुरुष कभी भयको प्राप्त नहीं होता । यह जो [ मनोमय शरीर ] है वहीं उस अपने पूर्ववर्ती [ प्राणमय कोश ] का शारीरिक आत्मा है । उस इस मनोमयसे दूसरा इसका अन्तर आत्मा विज्ञानमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह विज्ञानमय भी पुरुषाकार ही है । उस [ मनोमय ] की पुरुषाकारताके अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है । उसका श्रद्धा ही शिर है । ऋत दक्षिण पक्ष है । सत्य उत्तर पक्ष है । योग आत्मा ( मध्यभाग ) है और महत्तत्त्व पुच्छ-प्रतिष्ठा है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥ यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य जहाँ से मनके सहित वाणी उसे मनसा सहेत्यादि । तस्य पूर्वस्य अर्थ स्पष्ट ही है ]। उस पूर्वन पाकर लौट आती है - इत्यादि प्राणमयस्यैप एवात्मा शारीरः । कथित प्राणमयका यही शारीर