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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
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विधानम्यो
अमदनं तन्निवृत्त्यर्थमुच्यते तसा- | होना सम्भव है; उसकी निवृत्तिके चेन्न प्रमाद्यतीति, अन्नमयादिष्वा
| लिये कहते हैं-'यदि उससे प्रमाद
न करें' इत्यादि । तात्पर्य यह है त्मभावं हित्वा केवले विज्ञान- कि यदि अन्नमय आदिमें आत्मभावमये ब्रह्मण्यात्मत्वं भावयन्नास्ते को छोड़कर केवल विज्ञानमय ब्रह्ममें
ही आत्मत्वकी भावना करके स्थित चेदित्यर्थः । . रहेततः किं स्यादित्युच्यते- तो क्या होगा ? इसपर कहते
नोहैं-शरीरके पापोंको त्यागकर, पासनफलम् हित्वा । शरीराभि
| सम्पूर्ण पाप शरीराभिमानके कारण
ही होनेवाले हैं; विज्ञानमय ब्रह्ममें माननिमित्ता हि सर्वे पाप्मानः | आत्मत्वका अभिमान करनेसे निमित्ततेपांच विज्ञानमये ब्रह्मण्यात्माभि- का क्षय हो जानेपर उनका भी
क्षय होना उचित ही है, जिस मानानिमित्तापाये हानमुपपद्यते,
प्रकार कि छातेके हटा लिये जानेपर छत्रापाय इवच्छायापायः । छायाकी भी निवृत्ति हो जाती है । तसाच्छरीराभिमाननिमित्तान् ।
अतः शरीराभिमानके कारण होने
वाले शरीरजनित सम्पूर्ण पापोंको सर्वान्पाप्मनः शरीरप्रभवाशरीर
शरीरहीमें त्यागकर विज्ञानमय ब्रह्मएव हित्वा विज्ञानमयब्रह्मस्वरू- खरूपको प्राप्त हुआ साधक उसमें पापनस्तत्स्थान्सर्वान्कामान्विज्ञा
| स्थित सारे भोगोंको विज्ञानमय
खरूपसे ही सम्यक्प्रकारसे प्राप्त नमयेनैवात्मना समश्नुते सम्य- कर लेता है अर्थात् उनका पूर्णतया ग्भुङ्क्त इत्यर्थः।
उपभोग करता है। तस्य पूर्वस्य मनोमयस्यात्मैप उस पूर्वकथित मनोमयका शारीर आनन्दमयस्य एव शरीरे मनोमये -मनोमय शरीरमें रहनेवाला आत्मा
स्थापनम् भवः शारीरः। का? | भी यही है । कौन ? यह जो य एष विज्ञानमयः । तसाद्वा विज्ञानमय है । 'तस्माद्वा एतस्मात्'
कार्यात्मत्य